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Friday, December 31, 2010

वह क्षीर सिन्धु है 'मेरी बहन' (My Sister)

जब भी चाहा शब्द खोजना,
अर्थ कहीं खो जाता है । 
जब चाहा कि सपने देखूं..
सपना खुद सो जाता है ।।
         उस पर कलम चलाऊं कैसे
         शब्द नही हैं उस लायक ।
         वह प्रेम-पर्व का उच्च शिखर
         मैं धरती का अदना गायक ।।
प्रस्थान बिंदु है वह मेरी
मेरे गीतों की स्वर्ण-तान ।
प्रारंभ वही और अंत वही
है मूल्य मेरा, उसकी मुस्कान ।।
                  
                      ना बाँध सकूँ शब्दों में उसे
                      ना पंक्ति कोई भी पूरी हो ।
                      वो मुझमे है, मुझमे ही रहे
                      न मुझसे, मेरी दूरी हो ।।
धरती सा धीर कहूं उसको
या चंचल जैसे मलय पवन ।
हर रिश्ता घुलकर पूर्ण हुआ
वह क्षीर सिन्धु है 'मेरी बहन' ।।

यद्यपि आज ऐसा कुछ भी नही है जिस से इस कविता का सरोकार स्थापित हो सके. वैसे भी तस्वीर कुछ ऐसी बन चुकी है कि बहन को याद करने का मतलब या तो राखी का त्यौहार हो या फिर भैया-दूज का. उसके अलावा भाई-बहन के प्रेम और रिश्ते पर चर्चा नही होती. 
किसी प्रकार की चर्चा का आधार मैं स्वयं भी नही बना रहा हूँ. ये सवाल जरूर है मन में कि आखिर इस रिश्ते का सच बस इतना सा ही तो नही है ना.... 
बस आज ऐसे ही कुछ पलों को सोचते-सोचते यह कविता बन गयी. कविता पर निस्संदेह अधिकार मेरा नही है, इस कविता पर अधिकार तो इस रिश्ते का ही है, उसी 'क्षीर सिन्धु सी बहन का है'. उसी के कहने पर यह आप सभी से साझा कर रहा हूँ.
बाकी सबसे बड़ा सत्य तो यही है कि उतनी प्यारी कविता शायद ही कभी लिख सकूँ, जितना प्यारा यह रिश्ता है. 

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Wednesday, December 22, 2010

हमारे प्रधानमंत्री 'नर्वस' नहीं होते हैं क्‍योंकि वो 'नारी-वश' हैं ... !!




मनमोहन एक निहायत ईमानदार व्यक्ति हैं. निष्ठावान प्राणी हैं. वफादार तो हैं ही. उनकी वफादारी और निष्ठा पर संदेह नही किया जा सकता है. उनकी वफादारी तो जैसे.....!!
कुछ ऐसी ही तस्वीर बनाई हुई है हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री की कांग्रेसियों ने. सच भी है. जिस वफादारी और निष्ठा से वो अपना काम कर रहे हैं, उस पर संदेह किया भी नही जाना चाहिए. हमें अपने मन से यह संदेह मिटा देना चाहिए कि वो देश के प्रधानमंत्री हैं. हमें ये संदेह भी नही रखना चाहिए कि वो किसी भी हाल में कांग्रेस प्रा. लि. कंपनी के प्रति अपनी वफादारी में कमी ला सकते हैं. वो अपनी मुखिया के प्रति पूर्ण निष्ठावान हैं. इस निष्ठा के लिए वो बाकि किसी भी निष्ठा की बलि चढ़ा सकते हैं. और लगातार चढ़ा भी रहे हैं.
हमें अपने इस शक्तिशाली प्रधानमंत्री पर गर्व करना चाहिए. इनकी शक्ति का नमूना इन्होने कई बार दिखाया है, लेकिन हम देखने को तैयार ही नही होते हैं. जिस दिन अमेरिका से परमाणु संधि करने गए थे और बुश से हाथ मिलाया था उसी दिन अमेरिका के 8 बैंक दिवालिया हो गए. मैं तो खैर मनाता हूँ कि मैडम ने गले मिलने के लिए नही कहा था, वरना अमेरिका सेल पे आ गया होता. !!
ऐसे में हमारी अर्थव्यवस्था रखी है, ये क्या कम बड़ी बात है. शक्तिशाली इतने कि पाकिस्तान के भेजे दस आतंकी मर भी नही पाए थे कि शाम को चिट्ठी लिख दी कि हमारे वाले 20 और लौटा दो.
मीडिया में भी प्रधानमंत्री के धैर्य और शालीनता की लगातार प्रशंसा होती रहती है. मीडिया लगातार कहता आ रहा है कि चाहे देश में कुछ भी हो जाए लेकिन अपने प्रधानमंत्री नही हिल सकते हैं. कभी किसी भी परेशानी में इन्हें परेशान होते नही देखा गया है. हमेशा वही खिलता-मुस्कुराता चेहरा है.
कहा जाता है कि प्रधानमंत्री कभी नर्वस नही होते हैं. अब भला ये भी कोई बात है. प्रधानमंत्री जी नर्वस हो भी कैसे सकते हैं, वो तो वैसे भी "नारी-वश" हैं. जो "नारी-वश" हो गया है वो नर्वस हो भी कैसे सकता है. लेकिन ये मीडिया वाले उन्हें लगातार परेशां करते रहते हैं.
मनमोहन जी तो इतने निष्ठावान है कि उस निष्ठा में वो ये भी भूल गए हैं कि वो देश के प्रधानमंत्री हैं. उन्हें लगता है कि वो तो बस गाँधी परिवार की जागीर को कुछ दिन तक सँभालने की जिम्मेदारी निभा रहे हैं, एक कार्यकारी राजा की तरह. युवा युवराज जैसे ही गद्दी सँभालने लायक हो जायेंगे ये तुरंत उन्हें गद्दी सौंपकर भार-मुक्त हो जायेंगे.
देश को इस भ्रम से बाहर आ जाना चाहिए कि वो कोई प्रधानमंत्री हैं. ऐसी बातों से भ्रम की स्थिति बनती है. लोग बिना वजह उनसे अपनी झूठी सच्ची उम्मीदें बाँध लेते हैं. यह उनके साथ अन्याय है. देश को उनकी नाकारा-नालायक और नाजायज ईमानदारी को स्वीकार लेना चाहिए.
उनसे कभी ये प्रश्न नही किया जाना चाहिए कि उनकी इस नाकारा ईमानदारी से देश को क्या मिलने वाला है?
हमें उनकी इस नाजायज ईमानदारी की मनमोहनी तान पर मंत्र-मुग्ध होकर मान जाना चाहिए.

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Tuesday, December 21, 2010

"खादी महज एक वस्त्र नहीं, विचार है" (Handlooms in 21st century)





जीवन की तीन बुनियादी जरूरतें हैं - रोटी, कपडा और मकान और विडंबना देखिये कि समाज को रोटी देने वाला किसान भूखा है, सभ्यता को वस्त्रों से अलंकृत करने वाला बुनकर नग्न है और मकान बनाने वाला मिस्त्री सड़क पर सोने के लिए अभिशप्त है.
इसी विचित्र विडम्बना में हम 21 वीं सदी में हथ-करघा के स्वरुप, संकट और संभावनाओं की चर्चा करने के लिए विवश हैं.
हथ-करघा का सवाल महज अतीत को पुचकारने के लिए नहीं है, बल्कि यह आज की एक जरूरी जरूरत बन चुका है. यह उन बुनियादी सवालों का हिस्सा है जिनके साथ हम सदी-दर-सदी की यात्रा करते हुए सूचना क्रान्ति के इस विस्फोटक युग तक आ पहुंचे हैं. हमने बेहतर जीवन के लिए बदलावों का स्वागत किया. परिवर्तनों को स्वीकारते रहे. बाजारवाद के रथ पर सवार जगतीकरण की उद्घोषणा के साथ आई इस सदी का हमने आगे बढ़कर स्वागत किया. उम्मीद थी कि शायद इसके बहाने हर घर में विकास का दीप जलाया जा सकेगा. लेकिन ऐसा नही हुआ, बहुत जल्द ही जगतीकरण का विद्रूप चेहरा सामने आ गया. इसका उजागर हुआ चेहरा सभी मानवीय अवधारणाओं को धता बता गया.
इसकी अमानवीयता का सबसे बड़ा शिकार वही हाथ हुए जिन्होंने सदैव इस सभ्यता को सजाने और संवारने का काम किया. हथ-करघा कभी भी महज एक आर्थिक अभिव्यक्ति नहीं रहा है. बुनकर कभी भी किसी मिल के मजदूर नहीं समझे गए. हमारे यहाँ के बुनकरों ने तो मनुष्य की नग्न सभ्यता को वस्त्र देने का काम किया. उस वक़्त कोई मशीन नहीं थी, कोई पॉवर-लूम नही था, हमारे बुनकरों के हाथ ही पॉवर थे. हमने यूनान, मिश्र, रोम से लेकर चीन और मध्य-एशिया तक को वस्त्र दिया. यहीं से सीखकर यह सभ्यता खुद को शालीन कह पाई.
सिन्धु-घाटी सभ्यता में ही यहाँ बुनकरों के प्रमाण मिलते हैं.
रही बात समाज में बुनकरों की महत्ता की, तो सौंदर्य का मानक बनी आम्रपाली तो बुनकरों की दीवानी ही हुआ करती थी. इन्ही बुनकरों ने तो कवियों के सौंदर्य-बोध को स्थापित किया. यह यदि इस सभ्यता को वस्त्रों से ना सजाते तो शायद तमाम सौंदर्य के काव्य नहीं रचे जा सकते थे.
"तब सूरदास न किसी कंचुकी की सुन्दरता का बखान करते, ना ही कृष्ण किसी का कपडा यमुना किनारे से लेकर भाग पाते ! "
इसी करघे से कबीर जैसा संत भी निकला. कबीर ने करघे को अध्यात्म का मार्ग बना दिया. कबीर ने अपने बिम्बों में करघे को जोड़ा. "झीनी-झीनी भीनी चदरिया" हो या "जस की तस धर दीनी चदरिया" कबीर ने करघे के आध्यात्म को रचा या यह भी कहा जा सकता है कि करघे ने कबीर जैसे संत को रचा.
इतिहास साक्षी है कि बिना किसी पॉवर-लूम के हमारे ढाका का मलमल विश्वप्रसिद्ध था. लेकिन जिस वक़्त में उन मलमल बनाने वाले मजदूरों के हाथ इस बर्बर मशीनी मनुष्य ने काटे थे, जब लाखों कारीगरों को अपाहिज बनाया जा रहा था, तभी इस देश की संस्कृति और सभ्यता का मूल-तत्त्व भी कट गया था.
देश और उसकी आत्मा की उस हत्या को कोई और भले ही नही देख पाया हो लेकिन गांधी ने उसे देखा. कालांतर में यही करघा स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हथियार बना. गाँधी ने चरखे और तकली से भारत को जिन्दा करने की कोशिश की. उन्होंने मैनचेस्टर के कपड़ों की होली इसी चरखे को जिन्दा करने के लिए जलाई थी. बापू ने इसे स्वदेशी की परिभाषा से जोड़ा. इसके सामाजिक और सांस्कृतिक रूप को गढ़ा. गाँधी का स्वदेशी किसी टाटा-बिरला के स्वदेशी उत्पाद को इंगित नहीं करता था. उन्होंने जब कहा था कि "मजबूरी में विदेशी, चाहत में स्वदेशी, दिल में देसी." तब वह किसी "फैब इंडिया" के बने खादी की बात नहीं कर रहे थे. उन्होंने कहा था कि जब साधना शुरू हो तब देश, कुछ और बढे तो प्रदेश, और गहन साधना हो जाए तो जिला, उसके बाद गाँव, फिर पड़ोस, फिर घर और साधना जब सम्पूर्ण हो जाए तब अपने हाथ की बनी चीजों के प्रयोग तक पहुँचो.
गाँधी का स्वदेशी-स्वराज और खादी स्वावलंबन की उस पराकाष्ठा तक जाते हैं. स्वावलंबन के उस हथियार को चलाने वाले हाथ ही काट दिए गए.
एक वक्त में ढाका में हमारे मलमल के कारीगरों के हाथ काटे गए थे और अब पूरी जिंदगी ही काटी जा रही है.
आज खादी का मतलब गाँव का गरीब बुनकर कहाँ रह गया है. अब तो खादी भी स्टेटस सिम्बल है. वो बुनकर जो दुनिया को एक से एक कपडे देता है, इतना भी नहीं कमा पाता है कि खुद अपने लिए एक कपडा बुन सके.

21 वीं सदी में स्वरुप, संकट और संभावनाएं
स्वरूप -
इस सदी में हथ-करघे ने अपना स्वरुप बहुत बदला है. कई मायनों में यह बदला हुआ स्वरुप सुखद है, लेकिन कहीं ज्यादा मायनों में यह स्वरुप अपना मानवीय चेहरा नहीं सिद्ध कर पा रहा है. हथ-करघा महज आर्थिक अभिव्यक्ति नहीं था बल्कि यह जीवन दर्शन रहा है. कबीर के ताना-भरनी और करघे से लेकर महात्मा गांधी के चरखे से होते हुए इसने पॉवर लूम तक की यात्रा की है. बात चाहे विश्वगुरु की हो या सोने की चिड़िया की, इन बुनकरों का उसमे सबसे बड़ा योगदान रहा है.
आज भी भारत के कुल निर्यात में एक बड़ा हिस्सा हस्त-शिल्प का ही है. कृषि के बाद यह सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र है. दसवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक इसमें 67 .70 लाख रोजगार था. इसे ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक 80 लाख करने का लक्ष्य भी रखा गया है.
इसमें प्रतिवर्ष 3 प्रतिशत की वृद्धि-दर भी चल रही है.
आज खादी का मूल्य बढ़ रहा है. सूती वस्त्र महंगे हो रहे हैं. कॉटन की साडी का दाम आसमान छू रहा है लेकिन प्रश्न यही है कि आखिर इस महंगाई में उस मजदूर बुनकर की क्या हिस्सेदारी है.
बुनकरों की बदहाली इन तमाम बदलावों का अमानवीय पक्ष ही है.


संकट-
इस क्षेत्र के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या इसका संगठित ना होना भी है. एक ऐसा क्षेत्र जिसका वर्ष 2006 -2007 में निर्यात 20963 करोंड का रहा है, जिसमे दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान लगभग 70 प्रतिशत की वृद्धि दर देखी गयी. उस क्षेत्र के मजदूरों का बदहाल होना, उस क्षेत्र का संगठित स्वरूप ना होना सबसे बड़ी चुनौती है.
तमाम बुनकरों को नवीनतम तकनिकी शिक्षा का ज्ञान ना होना, बाज़ार की समझ ना होना, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार के मानकों से अनभिज्ञता इस क्षेत्र से जुड़े हुए लोगों की सबसे बड़ी समस्या है.
इतने बड़े क्षेत्र के मजदूर यदि इस से पलायन करने को मजबूर हो जाएँ तो निस्संदेह ही यह गंभीर संकट है.


संभावनाएं
21 वीं सदी में हथ-करघा क्षेत्र की संभावनाओं को इसमें हो रही वृद्धि से समझा जा सकता है. सभ्यता को वस्त्र पहनाने वाला भारत एक बार फिर पूरे विश्व को संवारने की स्थिति में आ सकता है. आवश्यकता है कि सरकार इस क्षेत्र की अहमियत को समझकर कदम उठाये.
और इस बात से भी इनकार नही किया जा सकता है कि सरकार इस पर ध्यान देने की मनः-स्थिति में आ गयी है. हथ-करघा के क्षेत्र के लिए बजट में वृद्धि का मामला हो या 'बाबा साहेब आंबेडकर हस्त-शिल्प' जैसी योजनायें चलाने का, यह सभी कदम इस क्षेत्र के प्रति सरकार की चिंता और प्रयास को दर्शा रहे हैं.
क्षेत्र को संगठित करने के लिए भी योजनायें बनाये जाने और बनी हुई योजनाओं पर अमल किये जाने की आवश्यकता है. इस से जुड़े मजदूरों के स्वास्थ्य, शिक्षा और उचित सम्मान-धन पर गहन विचार की आवश्यकता है.
हस्त-शिल्पियों ने न सिर्फ कपडे बुने हैं, बल्कि भारत बुनने का काम भी इन्होने ही किया है.
इस बात में कोई संदेह नही है कि यदि इस क्षेत्र पर ध्यान दिया जाए तो भारत एक बार फिर से सोने की चिड़िया बन सकता है. और उस चिड़िया को सजाने के लिए देश के कोने-कोने में लगे हुए बुनकर अपना हाथ आगे करते रहेंगे.
और इसी से बापू के 'स्वदेशी' और 'स्वावलंबन' की अवधारणा को भी जिया जा सकता है.
अंत में बस हमें बापू की कही हुई इस बात को ध्यान में रखना होगा "खादी महज वस्त्र नही, बल्कि एक विचार है".

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Wednesday, December 1, 2010

मुझमे मैं भी रहती हूँ.. !! ( Where am I ?)





राधा-मीरा की बातों से कब तक मुझको बहलाओगे..?
मेरा भी अस्तित्व है कुछ.. क्या मान कभी ये पाओगे..?

क्या तुम ये स्वीकार सकोगे..मुझमे मैं भी रहती हूँ..?
तुम जब बातों में बहते हो..मुझमे मैं भी बहती हूँ..?

मैं माँ हूँ.. यह भी एक सच है, मैं बेटी भी होती हूँ..!
माना कि मैं मीरा भी हूँ, कृष्ण बिना मैं रोती हूँ !!

मैं प्रेयसी हूँ.. यह भी सच है, मैं भाग तुम्हारा आधा हूँ !
फिर भी तुमको लगता है, मैं स्वयं तुम्हारी बाधा हूँ !!

पहले भी तुमने छला मुझे, तुम अब भी तो छलते हो !
मैं जब भी आगे बढती हूँ, हाथ तभी तुम मलते हो !!

ना हूँ मैं पूजन की प्यासी.. न मात्र किताबी बातों की..!
जो सात वचन देती हूँ तुमको, इच्छित हूँ उन सातों की !!

स्वीकार करो यह सत्य महज, मैं बस इतना कहती हूँ.. !
बस तुम यह स्वीकार करो कि मुझमे मैं भी रहती हूँ.. !!

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Tuesday, November 30, 2010

.. और वह चिरनिद्रा में सो गई (And she Passed away)




जैसे ही उसे चिंकी की खट्टी-मीठी गोलियों का राज़ और उस तथाकथित पुजारी के सच का पता चला, उसने मन ही मन अपना फैसला कर लिया, और मौका मिलते ही पत्थरों के जरिये अपना न्याय कर दिया. लेकिन अपने न्याय के कारणों को बताने के लिए उसके पास शब्द नहीं थे, इसीलिए उस रात उसे पिता के दो-चार थप्पडों के साथ ही भूखा ही सोना पड़ा.
ऐसी बहुत सी घटनाएं शशि के साथ अक्सर होती रहती थीं. गलत और अन्यायपूर्ण कृत्य देखना उसे पसंद नहीं था.
और सही?! सही तो शायद कहीं होता ही नहीं! कहानियों में अक्सर सुनती थी कि कहीं स्वर्ग है, जहाँ सब कुछ सही होता है, वहां सिर्फ अच्छे लोग होते हैं....! और अक्सर वो उस स्वर्ग कि कल्पना में खो जाया करती थी.
जब कहीं नारी समता की बातें पढ़ती तो उसे अपना गाँव मानो नरक लगने लगता था. बहुत जिद के बाद उसे शहर में आगे पढ़ने की इजाजत मिल पायी थी. मगर ये क्या!!! यहाँ भी तो उसका गाँव ही दिखाई दे रहा था चारो तरफ...थोडा रंग-बिरंगे शालीन कपडों में. यहाँ भी समता की वो ऊँची-ऊँची बातें सिर्फ बातों में ही थी, व्यवहार में नहीं. बड़ी मुश्किल से सामंजस्य बिठा पा रही थी वो. कभी-कभी सोचती थी कि या तो ये दुनिया गलत है या फिर वो गलत दुनिया में आ गयी है!!
बड़ी दीदी की शादी में उसने विरोध करने की कोशिश की भी, लड़का शराबी था, अनपढ़ और गंवार भी.
"लड़की हो लड़की की तरह जीना सीख लो, उतना ही बोलो जितना पूछा जाये."पिता ने सख्त लहजे में कहा. वो चुप हो गयी.
इस बार छुट्टियों में घर पहुंची तो बड़ी दीदी को आया देखा, रो रहीं थीं, माँ ने समझाते हुए दीदी को कहा था:-"बेटी कुछ भी हो जाए, ससुराल से लड़की की अर्थी ही उठती है. कैसे भी करके वहीँ रह लेना, नहीं रह पाओ तो आग लगा कर जल जाना, मगर मायके की ओर मत देखना." दीदी चली गयी.
मगर वो पूरी रात नहीं सो पायी, उसे लगा कि वो शायद सच में इस दुनिया के लायक नहीं है. फिर वो चिरनिद्रा में सो गयी,. अब वो स्वर्ग में है..जहाँ सब कुछ अच्छा है. वो शायद उसी दुनिया के लिए बनी थी, क्योंकि इस दुनिया में तो हमने उसे कभी चैन से सोने ही नहीं दिया, जब तक वो सो नहीं गयी.
आखिर हम कब जागेंगे? अभी और कितनी 'शशियाँ' चिरनिद्रा में सोने के लिए मजबूर की जाती रहेंगी?

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

'स्‍त्री-सम्‍मान और मैं' - मेरा अन्‍तर्मन (My Conscience)


अकारण ही... आज अकारण ही मन अपने अन्‍दर के खालीपन को स्‍वीकारना चाह रहा है। शब्‍द - अर्थ और फिर अर्थ्‍ा के भीतर के अर्थ। कितना ही छल भरा है मन में।
सच को स्‍वीकारने का साहस होता ही कब है। कब स्‍वीकार पाया हूँ अपने अर्थों के भीतर के अर्थ को। कई मर्तबा स्‍वीकार भी किया, तो ऐसी व्‍यंजना के साथ, कि सुनने वालों ने उस स्‍वीकारोक्ति को भी मेरी महानता मानकर मेरे भीतर के उस सत्‍य को धूल की तरह झाड़ दिया।
ऐसा ही एक सत्‍य है, 'स्‍त्री-सम्‍मान और मैं'। स्‍त्री होना ही पूर्णता है। स्‍त्री स्‍वयं में शक्ति का रूप है। स्‍त्री - शक्ति का सम्‍मान करना ही नैतिकता है। स्‍त्री का अपमान करना, निष्‍कृष्‍टतम् पाप है।
इन बातों का ऐसा प्रभाव हुआ, कि मैं भी स्‍त्री-शक्ति को विशेष रूप से खोजकर, उनका सम्‍मान करने लगा। अक्‍सर सड़क किनारे से गुजरते हुये ये ख्‍याल आ जाता था कि काश कोई सुन्‍दर स्‍त्री-शक्ति लड़खड़ाये, और मैं दौड़कर उसकी सहायता और सम्‍मान कर सकूं। काश यह मुझ अकेले की बात होती. 
सोच रहा हूँ कि आखिर स्‍त्री-सम्‍मान के लिये इतनी बातों और इतने प्रयासों की आवश्‍यकता ही क्‍यूँ आन पड़ी ?और फिर इनका अपेक्षित परिणाम क्‍यूँ नहीं मिला ? क्‍यूँ स्‍त्री - सम्‍मान की सहज भावना नहीं पैदा हो पाई इस मन में ? क्यों सहायता से पहले सूरत देखने की इच्छा आ जाती है? क्‍यूँ मुझ जैसे अधिकतर युवाओं में 'सुन्‍दरतम् स्‍त्री-शक्ति का अधिकतम् सम्‍मान' की भावना बनी रही ?
क्‍यूँ शक्तिहीन और सौन्‍दर्यविहिन के प्रति सहज सम्‍मान-भाव नहीं जागृत हो सका मन में ?
इन प्रश्‍नों का उत्‍तर अभी भी अज्ञेय ही है।
भीतर के इस सत्‍य का कारण, समाज से चाहता हूँ।
उत्‍तर अभी प्रतिक्षित है।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

(तस्वीर गूगल सर्च से साभार)

दोधारी तलवार: कैसे बचेगी पूजा??(Double-edged sword)




पूजा, हरीश की पत्नी. एक सुन्दर-सुशीला गृहिणी. पिछले कुछ दिनों से पड़ोस में रहने वाले लड़के, विनय के आचरण से थोडा परेशान सी थी. जब विनय की हरकतें बढ़ने लगी, तो एक दिन पूजा ने परेशान होकर अपने पति हरीश को सारी बात से अवगत कराया.
पति-पत्नी इस बात को लेकर परेशान थे. फिर उन्होंने अपने पहचान के एक विश्वसनीय व्यक्ति रामबाबु से इस बात को लेकर विमर्श किया. रामबाबु ने पूजा से कहा,"अरे, ये भी कोई बात है...? ये बताओ, जब उसने तुम्हे पहली बार परेशान किया, तब तुमने उसे डांटा था?"
"जी..नहीं तो....मैंने सोचा शायद खुद ही मान जाए..लेकिन जब नहीं माना, तो फिर मैंने इनको बता दिया.." पूजा ने मासूमियत से जवाब दिया..
"यही तो...तुम सब भी ना...अरे तुमने उसे ढंग से डांटा तो होता..उसकी क्या मजाल, दुबारा तुम्हे कुछ बोल देता..बिना मतलब हरीश को परेशान कर दिया...ये कोई हरीश को बताने वाली बात थी!!? इस से तो तुम खुद भी निबट सकती थीं..." रामबाबू ने पूजा को समझाते हुए कहा.
यद्यपि फ़िलहाल जो समस्या बन गयी है, उसका कोई हल नहीं है उनके पास....

(2)
पूजा, हरीश की पत्नी. एक सुन्दर-सुशीला गृहिणी. पिछले कुछ दिनों से पड़ोस में रहने वाले एक लड़के, विनय के आचरण से कुछ परेशान थी. पूजा ने एक दो बार उसे डांटा भी. फिर जब एक दिन उसकी हरकत ज्यादा बढ़ गयी, तो पूजा ने गुस्से में आकर उसे थप्पड़ मार दिया. विनय हतप्रभ सा वहां से चला तो गया, लेकिन उस थप्पड़ के लिए बदले की भावना उसके मन में आ गयी थी. उसने मोहल्ले के कुछ असामाजिक तत्वों के माध्यम से पूजा के दामन पर कीचड उछालने का प्रयास किया. बात बढ़ने लगी तो पूजा ने हरीश को सभी बातों से अवगत कराया. पति-पत्नी दोनों परेशान थे. फिर उन्होंने अपने एक पहचान के विश्वसनीय व्यक्ति रामबाबू के साथ बैठकर इस बात पर विमर्श किया.
"हम्म..क्या कर दिया तुमने...? ये बताओ जब उसने पहली बार तुम्हे परेशान किया था, तब तुमने हरीश को बताया था..?" रामबाबू ने पूजा से पूछा.
"जी नहीं तो..मैंने ही डांट दिया था उसे.. मैंने सोचा मान जायेगा.. फिर उस दिन जब हरकत ज्यादा हो गयी, तो गुस्से में मैंने थप्पड़ मार दिया...मुझे क्या पता था कि. ..." पूजा ने सफाई देते हुए कहा.
"यही तो...तुम सब भी ना...बोलो, हरीश को क्यों नहीं बताया...? दो चार फिल्में देखकर तुम लोगों को हिरोइन बनने का शौक लग जाता है...तुम्हे क्या लगता है, ये आजकल के बच्चे तुम्हारे थप्पडों से डर जायेंगे क्या?? हरीश को बताया होता शुरुआत में ही, तो ये दिन तो ना देखना पड़ता..अब बोलो...क्या होगा?" रामबाबू ने पूजा को समझाते हुए कहा.
यद्यपि जो समस्या सामने आ गयी है, उसका कोई हल नहीं है उनके पास..

अब मैं ये सोच रहा हूँ, कि पूजा को करना क्या चाहिए?
उसका तो कोई भी कदम समाज के हिसाब से ठीक नहीं है..
इस दोधारी तलवार से बचने के लिए पूजा क्या करे??
आखिर कब तक पूजा को ही हर बात का दोषी ठहराया जाता रहेगा?
है कोई जवाब इस समाज के पास?

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Monday, November 29, 2010

राहुल अब सीट नहीं दुल्‍हन तलाशेंगे (What next for Rahul)






बिहार के चुनाव परिणाम अपने अन्दर कई निहितार्थ लिए हुए हैं. हर कोई इसके अर्थ तलाश रहा है. बिहार में यह बदलाव सभी के लिए बहुत कुछ अप्रत्याशित रहा है. लालू-पासवान को शायद अब समझ लेना चाहिए कि पार्टी को प्रा.लि. कंपनी की तरह नहीं चलाया जाना चाहिए. हालाँकि इस बात की उम्मीद कम ही है कि वो ऐसा कोई विश्लेषण कर पाएंगे.
लालू तो अभी भी जीत में रहस्य खोजने में लगे हैं. और पासवान के पास तो है ही क्या? वैसे हुआ तो दोनों ही लोगों के साथ बहुत बुरा. चिराग ने झोपडी जला दी और तेजस्वी का तेज ऐसा कि लालटेन ही बुझ गयी. लालू-पासवान को शर्म तो नहीं ही आई थी उस वक्त भी जब कि जिंदगी भर इनके पीछे-पीछे जिंदाबाद का नारा लगाने वाले तमाम दूसरी पंक्ति के लोगों को नकार कर ये लोग अपने बेटों को लेकर आ गए थे. जे. पी. और लोहिया के आदर्शों की बात करने वाले लोगों का ऐसा हश्र... लालू.. जिनसे कि गाँव-देश की राजनीति को एक नयी दिशा मिल सकती थी, उन्हें नेता के नाम पर अपनी पत्नी और बेटे के अलावा कोई दिखाई ही नहीं देता.
खैर लालू-पासवान से तो कोई और बेहतर अपेक्षा अब रही भी नही है.
लेकिन इस चुनाव में सबसे बड़ा झटका कांग्रेस प्रा. लि. कंपनी के राजा-बेटा राहुल को लगा है. प्रधानमंत्राी के तुल्य बनाये जा रहे राजा-बेटा को मिला परिणाम अप्रत्याशित रूप से निराशाजनक रहा. यह सम्भावना तो नहीं व्यक्त की जा सकती है कि कांग्रेस का राहुल से मोहभंग हो सकता है, क्यूंकि वहां इस बात का भी विकल्प नहीं शेष है. जैसा कि किसी भी प्राइवेट कंपनी में ऐसा विकल्प नहीं हो सकता है. कम्पनी के मालिक के बेटे की तमाम असफलताओं के बाद भी उसके लिए कुछ न कुछ तर्क तैयार कर ही लिए जाते हैं.
राहुल जैसे राजा-बेटा को इस मीडिया ने ही मार डाला. लोकतंत्रा में किसी को युवराज की तरह से पेश करने को आखिर भूख और बदहाली से जूझती जनता कब तक चुपचाप देखती सुनती रहे. बेरोजगारी और बेबसी से बजबजाती जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त हो गया बिहार भला क्लीन शेव्ड युवराज का करता ही क्या? मीडिया को इनके किसी भाषण से ज्यादा राहुल के लिए बहु की चिंता बनी रहती है. मीडिया कभी इस बात को लेकर परेशान नहीं दिखता कि राहुल ने आजतक कभी कुछ कहा भी है देश में चीखते सवालों को लेकर? कोई रास्ता, कोई हल, कोई एजेंडा... दिखाया राहुल ने कभी?
और फिर इसमें भी तुर्रा यह कि इनके स्क्रिप्ट राइटर भी शायद या तो अनभिज्ञ थे या फिर जानबूझ के राहुल की राजनीति को मारने की इच्छा में थे, जो अनर्गल बातें लिख कर दे देते थे माँ-बेटे को..!
केंद्र की सत्ता में काबिज सबसे शक्तिशाली महिला और उनका स्वयमेव शक्तिशाली पुत्रा जब यहाँ-वहां ये कहते फिरेंगे कि सचमुच भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया है.. तो जनता क्या समझेगी? अरे भई जब तुम ही खुद हो सत्ता में, और आज से नहीं साठ साल से तो फिर भला इस भ्रष्टाचार को ख़त्म कौन करने आयेगा? सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार हुआ तो इसी दल में है.
इतना ही नहीं जब वो एक अनपढ़ की तरह केंद्र द्वारा किसी राज्य को दिए गए धन को लेकर तेरा-मेरा करेंगे तो भला जनता को क्या सन्देश जायेगा. ??
जब सर्वशक्तिमान युवराज दो-दो बाहुबलियों की पत्नियों (रंजित रंजन/लवली आनंद) के साथ सभाएं करते फिरेंगे तो जनता क्या अर्थ निकालेगी?
राहुल शुरुआत से ही दिशाहीन राजनीति कर रहे हैं. और मीडिया है कि कभी भी राहुल की निरर्थक बातों और राजनीति को लेकर कुछ नहीं बोलता. उसे बस युवराज के लिए दुल्हनिया की तलाश रहती है.
हालाँकि यह हार स्वयं में राहुल के लिए एक सकारात्मक बात है. इस हार के बाद पहली बार मीडिया में राहुल को प्यारा बच्चा की जगह हार्डकोर तरीके से विश्लेषित किया गया. और राहुल के लिए बहुत बेहतर होगा कि अगर वो अब अपने नौसिखियेपन और अपनी नासमझी को समझ जाएँ. देश में बेरोजगारी से जूझ रहे युवा को क्लीन शेव्ड राहुल से कोई अपेक्षा कैसे हो सकती है जबकि राहुल अपने लगभग घुमाते-फिराते 6 -7 सालों में एक भी बात उन युवाओं के लिए नहीं कर सके. जब राहुल को किसी भव्य से महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में चमचमाते युवाओं के अलावा कोई युवा दिखाई ही नहीं देगा तो फिर भला राहुल को ही क्यों देखें लोग?
जब युवा का अर्थ सिंधिया, जिंदल और पायलट के परिवार से होना ही होगा, तो फिर बाकी देश के युवाओं को उम्मीद ही क्या हो?
राहुल को उनकी राजनितिक हैसियत का अंदाजा जनता ने पहले भी कराया था लेकिन राहुल कुछ भी सीखने को तैयार नहीं दिखे. और यही कारण रहा कि बिहार ने राहुल को फिर से वहीँ पटक दिया, जहाँ से वो चाहे तो अपने लिए दुल्हनियां खोजकर हनीमून पर निकल जाएँ या फिर देश की असली तासीर को समझने की समझ पैदा करें. वैसे भी कांग्रेस का ये प्यारा बच्चा अगर अभी नहीं संभला तो फिर कुछ सालों के बाद उम्र युवा की श्रेणी से भी बाहर कर देगी.

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Saturday, November 27, 2010

बौखलाया विपक्ष कहीं बिहार को बीहड़ ना बना दे (Mandate-less opposition also may be harmful for Bihar)






बिहार के चुनाव परिणाम कई मायने में अलग रहे हैं. पहली बार विकास के नाम परिणाम आया लगता है. भाजपा, जिसमे एक मुर्दनी सी छाई थी पिछले काफी अरसे से, उसमे नयी जान आ गयी, तो वहीँ बाकी दलों में मुर्दनी छा गयी.
कांग्रेस के जनाजे को उठाने के लिए तो चार कंधे मिल गए हैं, लेकिन दुःख तो मुझे पासवान के बारे में सोचकर हो रहा है. लोजपा की अर्थी उठाने के लिए तो चार कंधे भी नहीं मिल पाए. लोजपा का तो जनाजा भी तीन कंधो पे उठता दिख रहा है. लालू की लालटेन बिना तेल की हो गयी है. सूखी बत्ती जल रही है, कब बुझ जाए कुछ पता नही.
लेकिन फिलहाल बिहार एक गहरे संवैधानिक संकट में भी फंस गया है. किसी भी दल के पास विपक्षी दल बनने कि योग्यता नहीं बची है. नीतीश को इतनी अच्छी तरह भी नहीं जीतना चाहिए था. अब विपक्ष विहीन विधानसभा से बिहार किस दिशा में जायेगा?
नीतीश की इस भारी जीत ने स्वयं नीतीश के लिए संकट खड़े कर दिए हैं. यह जनादेश नीतीश से बहुत अधिक अपेक्षा को दर्शा रहा है. लालू या पासवान से किसी को उम्मीद थी भी नहीं. लालू जब सत्ता में थे तब भी उनसे बहुत अधिक उम्मीद नहीं थी किसी को. उनकी असफलता से किसी प्रकार से भी राजनीति की परिभाषा में कोई बदलाव नही आने वाला था, ना आया. कारण स्पष्ट है कि लालू का कद किसी परिभाषा को बनाने या बिगाड़ने के लायक था ही नही. लालू की असफलता भी उनकी नीजी असफलता ही बन कर रह गयी. लेकिन नीतीश के मामले में ऐसा नहीं है. नीतीश ने जनता से कहा था कि वो बिहार बना रहे हैं, और अगर जनता चाहती है कि ये काम चलता रहे तो उन्हें फिर से मौका मिलना चाहिए. जनता ने उनमे अपना भरोसा भी दिखा दिया है. और अब इस भरोसे में किसी भी तरह की चूक सिर्फ नीतीश ही नहीं पूरे बिहार और साथ साथ लोकतान्त्रिाक प्रक्रिया की असफलता के रूप में गिना जायेगा. अभी तक नीतीश ने जो भी विकास बिहार में किया था वह सब पूरी तरह से बाजार के हित में होने वाले विकास थे. निर्माण कार्यों को वास्तविक विकास नहीं कहा जा सकता है. यह विकास की प्रक्रिया का एक आवश्यक अंग आज के समय में भले ही है, लेकिन फिर भी सड़क और पुल निर्माण को वास्तविक विकास नहीं माना जा सकता है. नीतीश की इस दूसरी पारी में जनता को उनसे वास्तविक विकास की उम्मीद रहेगी. अब नीतीश से जिस विकास की अपेक्षा है वह बाजारोंमुख विकास नही है. बल्कि अब जिस विकास की उम्मीद उनसे है उसके होने से बाजार को कोई सीधा लाभ नहीं होगा. ऐसे में नीतीश के लिए यह एक गंभीर चुनौती हो जाएगी कि अगर बाजार उनके वास्तविक विकास में उनके साथ नही खड़ा हुआ तो वो क्या करेंगे. अब नीतीश को ऐसी किसी भी स्थिति से निपटने के लिए भी तैयार रहना होगा.
विपक्षविहीन सदन भी एक छुपा हुआ खतरा दिखा रहा है. अब विपक्ष बुरी तरह से बौखलाया हुआ है. और सबसे बुरी बात ये है कि उसके पास सदन में जगह नहीं है अपने विरोध को जाहिर करने के लिए. अब बहुत संभावना है कि यह बौखलाया हुआ विपक्ष अपने विरोध को सड़कों तक लेकर चला आये. और यह बात तो हर सामान्यजन जानता है कि जैसे ही घर की बातें घर की दीवारों को पार करके बाहर निकलती हैं, घोर अराजकता का जन्म होता है. बिहार की राजनीति में भी यही खतरा दिखाई दे रहा है. कहीं यह घबराया और लुटा-पिटा विपक्ष सदन के पटल पर रखे जाने वाले विरोध को सड़क पर ना ले आये. किसी भी सत्तापक्ष के लिए यह सबसे कठिन पल होता है. सदन और सड़क के विरोध के अंतर को समझना होगा.
इस बार के परिणाम में कुछ और भी बातें सोचने की हैं. इस बार के चुनाव में पहली बार बिहार में सभी वामपंथी दल एकजुट होकर लड़े थे और आश्चर्यजनक रूप से एक सीट पर सिमट गए. वामपंथी दलों की यह हार बहुत से प्रश्न खड़ा करती है. क्या नक्सल का खतरा समाप्त हो गया है? या फिर अब बौखलाए हुए नक्सली और भी उत्पात मचाएंगे? या कि नक्सल समर्थकों ने भी इस बार मिलकर इन सरकारी लाल झंडे वालों को सबक सिखाने के लिए नीतीश का समर्थन किया है.
और फिर यह भी सोचने का विषय है कि बिहार की यह बयार अगर बंगाल तक पहुंची तो बुद्धदेव भट्टाचार्य के लिए कैसा संकट खड़ा होने वाला है?
यह अप्रत्याशित जनादेश देखने में जितना सुखद और प्रिय लग रहा है, इसमें उतना ही गंभीर संकट छुपा है.
नीतीश को संसद से लेकर सड़क तक समस्याओं से जूझते हुए विकास की डगर को तय करना है. और जब कि सदन विपक्ष विहीन हो गया है, ऐसे में मीडिया की जिम्मेदारी भी कई गुना बढ़ जाती है. मीडिया को भी अब नीतीश-पुराण बंद करके एक स्वस्थ विपक्ष की तरह से भूमिकाएं बनानी होंगी. जब तक मीडिया एक स्वस्थ आलोचक की भूमिका में नहीं आ जाता है तब तक बिहार के लिए संकट बना रहेगा.
और फिर मीडिया के चरित्रा को लेकर अब गंभीर चुनौती होगी जब कि नीतीश बिहार में उस वास्तविक विकास की नींव रखेंगे जिसकी चर्चा हमने शुरू में की है कि वो विकास बजारोंमुख नही होगा, तब क्या मीडिया बिहार की जनता के पक्ष में खड़ा हो पायेगा या फिर बाजार की शक्तियों के सामने घुटने टेक देगा. ‘रहा न कुल कोई रोवनहारा’ जैसे विपक्ष को लेकर नीतीश कितने संतुलन के साथ विकास कर पाएंगे यह उनके स्वयं के सामने एक बहुत बड़ा प्रश्न है. पूरे राष्ट्र को यह आशा करनी चाहिए कि बिहार अब निर्माण कार्यों से आगे बढ़कर वास्तविक विकास की यात्रा पर बढ़ सके. अब नीतीश की असफलता बिहार को कई दशक पीछे कर देगी.

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Monday, November 22, 2010

प्रेम के नए सृजनात्‍मक तौर तरीके (Creative techniques of Love)


एक वक़्त हुआ करता था कि जब हर जगह फर्स्ट हैण्ड का बोलबाला और मांग हुआ करती थी. उस वक़्त में प्रेमी-प्रेमिका भी फर्स्ट हैण्ड ही खोजे जाते थे. प्रेम में कोई विशेष रासायनिक-भौतिक शर्ते नहीं हुआ करती थीं. उस वक़्त में लड़कियां अपनी सहेलियों को बताया करती थीं कि मेरा प्रेमी तो किसी लड़की की तरफ आँख उठाकर देखता भी नहीं. मुझसे पहले उसने किसी लड़की के बारे में सोचा भी नहीं. लड़के भी कुछ इसी तरह अपनी प्रेमिका की तारीफ करते थे.. 
उस वक़्त में लड़कों को किसी लड़की से प्रेम सम्बन्ध शुरू करने के लिए कुछ ख़ास मशक्कत नहीं करनी होती थी. लड़की के सामने कुछ साधू जैसे बनके रहो. उसकी सहेलियों की तरफ भी नज़र उठाकर नहीं देखना. ये सब कुछ अच्छे लड़कों की पहचान होती थी. किसी तरह उस लड़की से दोस्ती के बाद जब बात धीरे धीरे प्रेम के इजहार तक पहुंचती थी तो बस कुछ गिने-चुने ही संवाद हुआ करते थे. वो बिल्कुल शराफत से कहा करता था कि -'प्रिये तुम मेरी जिंदगी की पहली और आखिरी लड़की हो, मैंने तो कभी तुम्हरे सिवा किसी दूसरी लड़की कि तरफ आँख उठाकर देखा भी नहीं कभी. तुम्ही मेरा पहला और आखिरी प्रेम हो.' हर लड़के को ये संवाद याद हुआ करते थे. 
कई बार तो हम में से कई लड़के हर बार यही संवाद बोल कर काम चला लेते थे. बीसवीं बार भी हम यही कहते थे. हम जब भी करते पहला और सच्चा प्रेम ही करते. हमारी गिनती कभी भी पहले से आगे नहीं बढती थी. ना ही कभी हमारे प्रेम की सच्चाई कम होती थी. हमेशा उतना ही सच्चा प्रेम करते थे. 
हमारी बीसवीं प्रेमिका भी हमें इतना ही पहला और सच्चा मानती थी जितना कि हमारी पहली प्रेमिका ने माना था. 
सब कुछ ठीक ठाक ही चल रहा था. सबके पास पहले और सच्चे प्रेमी प्रेमिका हुआ करते थे. लेकिन फिर अचानक से ग्लोबलाइजेशन (वैश्वीकरण) के कारण बाज़ार ने अपनी तस्वीर बदल ली. सेकंड पार्टी और थर्ड पार्टी का चलन बढ़ने लगा. अब लोगों को लगने लगा कि नयी 'मारुती -800 ' लेने से बढ़िया है कि अगर उसी रेट में कहीं से बढ़िया सेकंड हैण्ड एस-कोडा या होंडा सिटी मिल जाए तो क्या बुराई है. जैसे जैसे बाज़ार ने अपनी रंगत बदली तो हर जगह की रंगत बदलने लगी. बल्कि अब तो बाज़ार की हालत तो ये गयी कि कोई नयी कार भी ले तो लोगों को लगता है कि झूठ बोल रहा है. 
अब प्रेमी भी कुछ ऐसे ही खोजे जाने लगे. अब धीरे धीरे ये हालत हो गयी कि अगर कोई लड़का कहता कि मैंने तुम्हारे सिवा किसी की ओर नज़र उठा के देखा ही नहीं, तो लड़की उसकी आँखें टेस्ट करवाने निकल पड़ती कि कहीं नज़रें कमजोर तो नहीं हैं. जैसे ही कोई बंदा ऐसा साधू जैसा दिखता है तो लड़की सोचती है कि या तो फरेब कर रहा है, नहीं तो कोई रासायनिक-भौतिक कमी होगी. कॉलेज में पहुँच चुका लड़का किसी भी लड़की के फेर में ना पड़ा हो, ऐसा तो सोचकर भी आश्चर्य होने लगा. अब तो कोई लड़का बेचारा सही का भी साधू हो तो भी शक की ही नज़र से देखा जाने लगा. लड़कों के सामने भयानक मंदी का दौर छा गया. 
बाज़ार की मांग के हिसाब से नयी रणनीतियां जरूरी हो गयी थीं. अब तो पहली और आखिरी कहना जैसे कोई गुनाह सा हो गया था. 
अंततः नयी रणनीतियां भी सामने आ ही गयीं. अब लड़कों ने पहली-आखिरी कहना छोड़ दिया. अब वो खुद ही अपने पहले प्रेम के किस्से सुनाने लगे. इसके लिए बाकायदा प्लाट तैयार किया जाने लगा. 
पहले लड़की से दोस्ती करो. उसकी सहेलियों वगैरा से भी कोई खास डरने की जरूरत नहीं रही. सबसे खुल के बोलो बात करो. फिर एक दिन यु ही अचानक से किसी बात के बीच में गंभीर हो जाना. बस इतना कहना- "... तुम जब ऐसे कहती हो ना.. तो.. अक्चुअली (दरअसल) ... खैर छोड़ो... " बस इतना कहकर चुप हो जाना. अब लड़की भला ऐसे कैसे छोड़ दे?? एक दोस्त होने के नाते पूछना तो पड़ेगा ही. वो भी उत्सुकता के वशीभूत होकर जिद करती है-"बताओ तो क्या बात है. अपने दोस्त को भी नहीं बताओगे?" एक दो बार टालकर फिर लड़का अपनी कहानी बता देता है, बात के बीच में एक दो बार आँख पर रुमाल या हाथ जरूर फेर लेता है.  और फिर उस दिन वो बिना कोई और बात किये कुछ उदासी के साथ विदा लेके चल देता है. 
इस सब में दो-तीन तरह के सेन्ट्रल आईडिया की कहानी होती है. या तो पहले वाली कहानी की लड़की दुनिया से गुज़र गयी, या फिर किसी दूसरे शहर चली गयी,  या उसकी शादी हो गयी या फिर आखिर विकल्प ये कि बेवफाई कर गयी. लड़के के ही किसी दोस्त के साथ वफ़ा निभाने लगी. लड़का बेचारा एक दम दूध का धुला हुआ उसकी बेवफाई में तड़प रहा होता है. उसे सहानुभूति की सख्त जरूरत होती है. हालाँकि वो सहानुभूति से भी इंकार करता है. वो कहता है कि उसने उसके बाद किसी दूसरी लड़की की तरफ देखा ही नहीं. दिल या मन जो भी हो.. वो करता ही नहीं .. 
अब तो किसी और लड़की के बारे में सोचता भी नहीं है. ऐसा ही और भी कुछ-कुछ. इस सब में एक बात पक्की है कि पहली कहानी वाली लड़की किसी भी हालत में उस शहर में नहीं होती है जिस शहर की लड़की को कहानी बताई जा रही होती है. 
हालाँकि सुनने वाली लड़की इतना दिमाग नहीं लगाती है. वो भावनाओं में बह रही होती है. उसे दो बातें समझ में आ जाती हैं, एक तो ये कि लड़के में कोई कमी नहीं है, वो प्रेमी बनने की काबिलियत रखता है. दूसरा ये कि लड़का बहुत सही भी है. ईमानदार है, जो कि उसने अपनी पिछली बात खुद ही बता दी. कुछ भी नहीं छिपाया. विश्वास के काबिल है. दिल का मारा है. किसी लड़की ने बेवफाई की है. और फिर इस तरह से सहानुभूति के रूप में नए प्रेम का सृजन होता है. कभी कभी लड़का पहली कहानी में खुद को भी दूध का धुला नहीं साबित करता है. बल्कि वो कहता है कि वो गलत था, लेकिन अब उसे अपनी गलती का एहसास है और वो प्रायश्चित की आग में जल रहा है. उसकी तो हंसी भी गम को छुपाने का तरीका है. इस सब में बड़े-बड़े शायरों की मेहनत भी बहुत काम आ जाती है. कुल मिलाकर इस तरह से एक नए प्रेम का सृजन होता है.
यही नहीं...
नए प्रेम के सृजन का एक और भी बहुत तेजी से उभरता हुआ और कामयाब तरीका भी आ गया है. ये वो तरीका है जो कि हमने यहाँ इस्तेमाल किया है. 
अब ये भी एक सफल तरीका है कि लड़की के सामने खुद ही लड़कों की बुराई कर दो. सामने वाले की चादर को इतना गन्दा साबित कर दो कि तुम्हारी चादर खुद चमकदार लगने लगे. क्यूंकि ऐसा हुआ है. कभी कभार इस तरह की बात करने के बाद लड़की उल्टा हमसे ही प्रेम करने की इच्छुक हो बैठी. तो हमसे भी सावधान रहिये. 
हालाँकि यह सब पूर्ण सत्य नहीं है. लेकिन पूर्ण असत्य भी नहीं है. बस कहने का प्रयास यही है कि किसी पर भी विश्वास कीजिये.. लेकिन अन्धविश्वास नहीं.. 
FAITH IS GOOD... BUT BLIND FAITH IS HARMFUL..

अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Tuesday, November 16, 2010

दर्द बहुत गहरा तो नहीं था..






दर्द बहुत गहरा तो नहीं था..
शायद था..।
मैं रिश्तों में ठहरा तो नहीं था..
शायद था।।
मैंने ये तो नहीं सोचा था रिश्ता कैसे जीना है
हंसके वक़्त कटेगा सारा या कि आंसू पीना है।
जाने कब किसने क्या दिया मालूम नहीं..
कैसे कह दूं जिसने दिया, उसने ही सब छीना है।।
सपनो पर पहरा तो नहीं था..
शायद था।
मैं रिश्तों में ठहरा तो नहीं था..
शायद था।।

रोया भी तो नहीं था.. रोने का अधिकार नहीं
खोया भी तो नहीं था.. खोने को संसार नहीं .।
क्यों आखिर रोना.. धोना..सुनकर उसको
उसने तो इतना ही कहा.. वो बचपना था प्यार नहीं।।
अश्कों का कोई सहरा तो नहीं था..
शायद था ।
मैं रिश्तों में ठहरा तो नहीं था..
शायद था।।

पागल हूँ, पागल ही सही.. इसमें उसका अपराध भी क्या.
आँखें चुप और दिल रोये.. इस से अच्छा संवाद भी क्या।
उस से पहले भी तो अपना,
जीना-मरना एक ही था
इस जीने में रखा है,
आखिर उसके बाद भी क्या ।।
हर चेहरा वो चेहरा तो नहीं था..
शायद था..

मैं रिश्तों में ठहरा तो नहीं था..
शायद था।।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

युवा : अंतहीन भटकाव की ओर ..


"युवा-शक्ति राष्ट्र की क्षमता का पैमाना होती है"
यह उक्ति स्वतः ही किसी राष्ट्र के युवाओं की महत्ता को व्यक्त करती है. युवा-शक्ति राष्ट्र की शक्ति का प्रतीक मानी जाती है. राष्ट्र के समृद्धि का द्योतक मानी जाती है. ऐसे में यदि किसी राष्ट्र की कुल जनसँख्या की पचास प्रतिशत से अधिक युवा-शक्ति हो, तो उस राष्ट्र का विश्व के समृद्ध और अग्रणी राष्ट्रों में सम्मिलित ना होना, लगातार कई दशकों से विकासशील राष्ट्र कहा जाते रहना, निश्चय ही उस राष्ट्र की युवा-शक्ति तथा उसकी क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगाता है. ऐसा ही एक अनुत्तरित प्रश्न लग गया है अपने राष्ट्र हिंदुस्तान के युवाओं पर भी. 
पचास प्रतिशत से अधिक युवाओं का भारत देश आज भ्रष्ट राष्ट्रों की सूची में गिना जाता है. भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी जैसी ना जाने कितनी लिप्साओं में हमारा राष्ट्र अग्रणी माना जाता है. आज युवाओं का एक बड़ा वर्ग बड़ी शान से कहता है - "सौ में नब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान" और फिर इस मसखरी पर खीसें-निपोरने वाले मसखरों की एक लम्बी फेहरिस्त है. इन सबके बीच राष्ट्र भाव कहाँ लुप्त हो जाता है, इस बात का किसी को भान ही नहीं रहता. 
आज का युवा वर्ग राष्ट्र की अवधारणा से शून्य हो चुका है. आज युवा नैतिकता शब्द का अर्थ जानने-समझने की इच्छा नहीं रखता. उसे इस बात से सरोकार नहीं है कि राष्ट्र की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर क्या है, लेकिन उसे भली-भांति पता है कि बॉलीवुड में इस वर्ष किस श्रेणी की कितनी फिल्में बन रही हैं. 
उसे नहीं पता कि इस वर्ष सरकार ने गन्ने के लिए कितना मानक मूल्य निर्धारित किया है, लेकिन उसे बड़े-बड़े मल्टीप्लेक्स में टिकट की कीमत पता है. उसे इस बात से मतलब नहीं होता कि हर रोज कितने गरीब भूख से बेहाल होकर दम तोड़ देते हैं, लेकिन उसे पता होता है कि ऐश्वर्या अपनी सुन्दरता के लिए खाने में क्या परहेज करती है. उसे नहीं पता कि उसके मुंह में निवाला पहुंचाने के लिए किसान कितनी  मेहनत करता है, लेकिन उसे पता है कि अपने शरीर-सौष्ठव को बनाए रखने के लिए ऋतिक रोशन कितने घंटे व्यायामशाला में रहता है. 
आज युवाओं के अंतर्मन से घटती नैतिकता, विचारों में बढती पाशविकता बहुत गहरा प्रश्न खड़ा करती है कि 'क्या युवा दिशाहीन हो गया है ?' 
कदापि नहीं!! युवा दिशाविहीन नहीं है, अपितु उसने एक गलत दिशा अख्तियार कर ली है. यदि कोई चौराहे पर खड़ा दिशाविहीन सा ये सोच रहा हो कि किस मार्ग पर जाना चाहिए तो उसे समझाकर सही दिशा दिखाई जा सकती है, परन्तु यदि कोई गलत मार्ग पर आगे बढ़ गया हो तो उसे सही रस्ते पर लाना दुष्कर होता है और आज युवा गलत मार्ग पर बहुत आगे बढ़ गया है.
आज युवाओं का बड़ा वर्ग दैहिक सुख, समृद्धि तथा मन के पाशविक विचारों की उत्तेजना में कुछ भी कर जाने को तत्पर है. जिसका साक्ष्य हर रोज समाचार पत्रों की सुर्खियाँ हैं जिनमे चोरी, लूट-पाट, मार-पीट, हत्या और बलात्कार जैसे समाचार वर्तमान निष्‍कृष्‍टता की निम्नतम हद को स्पष्ट करते हैं, जिनमे लिप्त एक बड़ा वर्ग युवाओं का ही है.
वर्तमान में नशाखोरी भी युवाओं में पसंदीदा शगल बन चुका है. सिगरेट के लम्बे कश में धुएं के छल्ले बनाकर राह चलती बालाओं पर फब्ती कसना, नशे में डूबकर देर रात पार्टियाँ करना आज के युवा की शान है. ऐसे में यदि इन सब महान उपलब्धियों के बाद हिंदुस्तान भ्रष्ट राष्ट्रों में शुमार है, तो क्या गलत है?
परन्तु यह सबकुछ लिखने का उद्देश्य मात्र लिखना ही नहीं है, बल्कि यह लिखना भी तभी सार्थक है कि यदि पढ़कर हम यह सोच सकें कि इन सबका कारण क्या है? क्यों है? और फिर उस कारण को दूर करने का प्रयास करें. 
जो भी हो इन सबके लिए दोषी हम स्वयं ही हैं. ये सब कुछ पढने-देखने वाले हम सब इसी युवा-पीढ़ी का हिस्सा हैं. हम सब या तो गलत हैं या फिर गलत के मूक-दर्शक. यदि हम अपने स्तर पर प्रयास करें तो परिवर्तन भी संभव है. यदि हम समाधान का हिस्सा नहीं हैं तो फिर हम खुद ही एक समस्या हैं.

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Monday, November 15, 2010

मैं भी रोता हूं ...

हँसते हुए चेहरे के पीछे गम भी होता है।
सूखी नज़रों के पीछे दिल नम भी होता है।।
मैं अगर नहीं रोता, तो क्या 
मेरे अन्दर कोई जज्बात नहीं।
मेरी नज़रों में अगर चमक है, तो क्या 
मेरी ज़िन्दगी में कहीं काली रात नहीं।।
सूरज के पीछे भी अँधेरा हो सकता है।
हंसने वाला भी छिप के रो सकता है।।
मैं तो चाहता हूँ कि सबके गम पी लूं।
सबकी काली रातें अकेले जी लूं।।
मैं जल जाता हूँ औरों की गरमी के लिए,
मैं गल जाता हूँ औरों की नरमी के लिए ।
मैं ढल जाता हूँ नए सूरज के लिए,
मेरी राख है किसी काजल की जरूरत के लिए।।
मगर, दुनिया कहती है 
मैं बेशरम हँसता हुआ पत्थर हूँ।
आंसुओं के सूखने से बने
रेत का समन्दर हूँ।।
उन्हें लगता है इस बेशरम पत्थर पर
उनके वार का जख्म शायद कुछ कम ही होता है।
मगर सच ये है दुनिया वालों, कि
ये 'पत्थर' भी हर रात अपने 
दामन में छिप-छिप के रोता है।।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

सीख नहीं पाया..

मैं रिश्तों को शायद कुछ 
ज्यादा गहरा जीता हूँ..
इसीलिए शायद रिश्तों को 
जीना सीख नहीं पाया।।
मैं जख्मों को शायद कुछ 
ज्यादा गहरा सीता हूँ..
इसीलिए जख्मों को शायद
सीना सीख नहीं पाया।।

जख्म हुए ज्यादा गहरे 
जब जख्मो को सीना चाहा
रिश्ते ज्यादा दूर हुए 
जब रिश्तों को जीना चाहा।।
भावशून्य लगता हूँ 
जब भावों में बहता हूँ
अश्क नज़र आये ज्यादा 
जब अश्कों को पीना चाहा।।

लेकिन रिश्ते घाव नहीं 
कि ऊपर-ऊपर से सी डालूँ
कैसे भावशून्य होकर भी
हर रिश्ता मैं जी डालूँ।।
क्या जग जैसा जीना सीखूं, 
स्वांग रचूं मरने का
क्या क्रम मैं भी छोड़ चलूँ 
आँखों में मोती भरने का।।

जो जितना उथला होता है, 
उतनी जल्दी भरता है
जितनी जल्दी भर जाए, 
वो झोली उतनी अच्छी है।।
पैमाने अब बदल गए हैं 
रिश्तों की गहराई के..
उथली सी नज़र, आँखें भरकर, 
प्रीत यही अब सच्ची है।।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद


Monday, November 1, 2010

शब्दों का श्रृंगार जरूरी है....




भावना पर शब्दों का श्रृंगार जरूरी है. 
दिल से दिल तक इक झीना सा तार जरूरी है.

कुछ रिश्तों में सब कुछ होना
दिल ना चाहे जब कुछ खोना
उन यादों में जीना मरना
बिन उनके क्या हँसना रोना
जीवन में ऐसा भी कोई प्यार जरूरी है
दिल से दिल तक....

चुप रहना भी शब्दों का श्रृंगार हुआ करता है
ख़ामोशी की धड़कन से दिल जो दुआ करता है
लब हिलते हैं चुप हो जाते हैं, जब
कोई ख़ामोशी से दिल को छुआ करता है
शब्दों के धड़कन पर ऐसा वार जरूरी है
दिल से दिल तक....

क्यों जीवन में इतना कोई ख़ास भी होता है
क्यों धड़कन के इतना कोई पास भी होता है
चुप रहना-कहना मुश्किल कर दे
क्यूँ कोई हर पल का एहसास भी होता है
कुछ प्रश्नों का हो जाना निस्तार जरूरी है..
दिल से दिल तक ....


-अमित तिवारी 
समाचार संपादक 
निर्माण संवाद

तस्वीर साभार- http://www.pencilsketch.co.uk/ 

Thursday, October 28, 2010

जबसे मेरा मीत वो मुझसे रूठ गया

जबसे मेरा मीत वो मुझसे रूठ गया,
सपनो का भी दामन जैसे छूट गया।
चाँद कहे कि मुझको अब आवाज ना दो,
तारों का भी जैसे कि दिल टूट गया।।

फूलों की रंगत भी जैसे खोयी है,
खुशबू अभी-अभी जी भरके रोई है।
पत्तों पर ओंस नहीं गगन के आंसू हैं,
आँखें जाने कब से ये बिन सोयी हैं।।

सूरज जिद पर बैठा है कि ढलना है,
पर्वत कहते हैं हमको अब गलना है।
परवाना होता तो जलकर मर जाता,
मैं शम्मा हूँ मुझको हर पल जलना है।।

तितली भी रोते-रोते अब हार गयी,
भँवरे को भी दर्द-ए-जुदाई मार गयी।
आवाज तो हमने कई बार दी है उनको,
'संघर्ष' मगर ये कोशिश भी बेकार गयी।।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद


Wednesday, October 27, 2010

श्रीमान जी, मैं यशवंत सिंह भड़ास4मीडिया का संपादक और सीईओ हूं!

सेवा में, मानवाधिकार आयोग, दिल्ली / लखनऊ। श्रीमान, मैं यशवंत सिंह पुत्र श्री लालजी सिंह निवासी ग्राम अलीपुर बनगांवा थाना नंदगंज, जनपद गाजीपुर, उत्तर प्रदेश (हाल पता- ए-1107, जीडी कालोनी, मयूर विहार फेज-3, दिल्ली-96) हूँ. मैं वर्तमान में दिल्ली स्थित एक वेब मीडिया कंपनी भड़ास4मीडिया में कार्यरत हूं. इस कंपनी के पोर्टल का वेब पता www.bhadas4media.com है. मैं इस पोर्टल में सीईओ & एडिटर के पद पर हूं. इससे पहले मैं दैनिक जागरण, अमर उजाला एवं अन्य अखबारों में कार्यरत रहा हूँ.
पिछले दिनों दिनांक 12-10-2010 को समय लगभग 10 बजे रात को मुझे गाजीपुर जिले के नंदगंज थाने के अपने गाँव अलीपुर बनगांवा से मेरे मोबाइल नंबर 9999330099 पर मेरे परिवार के कई लोगों के फोन आए. फोन पर बताया गया कि स्थानीय थाना नंदगंज की पुलिस ने मेरी मां श्रीमती यमुना सिंह, मेरी चाची श्रीमती रीता सिंह पत्नी श्री रामजी सिंह और मेरे चचेरे भाई की पत्नी श्रीमती सीमा सिंह पत्नी श्री रविकांत सिंह को घर से जबरन उठा लिया. मुझे बताई गयी सूचना के अनुसार यह बात लगभग साढ़े आठ से साढ़े नौ बजे रात की होगी. फ़ोन करने वाले ने यह भी बताया कि पूछने पर पुलिस वालों ने कहा कि ऐसा गाजीपुर के पुलिस अधीक्षक श्री रवि कुमार लोकू तथा पुलिस के अन्य उच्चाधिकारियों यथा बृजलाल आदि के निर्देश पर हो रहा है और गाँव में ही दिनांक 12-10-2010 को हुयी श्री शमशेर सिंह की हत्या में नामजद अभियुक्तों श्री राजेश दुबे उर्फ टुन्नू तथा रविकांत सिंह की गिरफ्तारी नहीं हो सकने के कारण इन्हीं महिलाओं को इस मामले में दवाब बनाने के लिए थाने ले जाना पड़ रहा है. फ़ोन करने वाले ने यह भी बताया कि ये लोग उनके साथ भी काफी बदतमीजी से पेश आये थे. उसके बाद नंदगंज की पुलिस ने रात भर इन तीनों महिलाओं को थाने में बंधक बनाए रखा. मैंने इस सम्बन्ध में तुरंत लखनऊ व गाजीपुर के मीडिया के अपने वरिष्ठ साथियों से संपर्क किया और उनसे अनुरोध किया कि वे थाने जा कर या किसी को भेजकर महिलाओं को थाने में बंधक बनाकर रखे जाने के प्रकरण का सुबूत के लिए वीडियो बना लें और फोटो भी खींच लें या खिंचवा लें ताकि इस मामले में कल के लिए सबूत रहे. उस रात तो नहीं, लेकिन अगले दिन दोपहर से पहले कुछ रिपोर्टरों ने नंदगंज थाने में जाकर बंधक बनाई गई महिलाओं से बातचीत करते हुए वीडयो टेप बना लिया और तस्वीरें भी ले लीं. उनमें से कुछ तस्वीरों व वीडियो को इस शिकायती पत्र के साथ संलग्न कर रहा हूं.

इसके बाद मैंने यथासंभव हर जगह संपर्क किया जिसमे इन लोगों ने निम्न अधिकारियों से वार्ता की-

1. गाजीपुर के पुलिस अधीक्षक रवि कुमार लोकू

2. वाराणसी परिक्षेत्र के आईजी आरबी सिंह या बीआर सिंह

3. नंदगंज थाने के थानेदार राय

लखनऊ के कुछ मित्रों ने लखनऊ में पदस्थ पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों, जो पूरे प्रदेश में कानून व्यवस्था व पुलिस महकमे का काम देखते हैं, से बातचीत की. सभी जगहों से एक ही जवाब मिला कि हत्या का मामला है, हत्यारोपी का सरेंडर कराओ, महिलाएं छोड़ दी जाएंगी वरना थाने में ही बंधक बनाकर रखी जाएंगी. गाजीपुर व वाराणसी परिक्षेत्र के पुलिस अधिकारियों ने यह भी कहा कि यह प्रकरण ऊपर से देखा जा रहा है, शासन का बहुत दवाब है और स्वयं पुलिस महानिदेशक कर्मवीर सिंह इस मामले को देख रहे हैं इसीलिए उनके स्तर से कोई भी मदद संभव नहीं है.
फिर मैंने अपने पुराने मित्र श्री शलभ मणि तिवारी, ब्यूरो प्रमुख, आईबीएन ७, लखनऊ से संपर्क किया और पूरा माजरा बताया. उन्होंने स्वयं श्री बृज लाल, जो इस समय अपर पुलिस महानिदेशक क़ानून और व्यवस्था, उत्तर प्रदेश हैं, से दिनांक 12-1-2010 को संपर्क किया किन्तु उन्होंने भी आपराधिक और गंभीर घटना बताने हुए और यह कहते हुए कि जब तक मुख्य मुलजिम गिरफ्तार नहीं हो जायेंगे, तब तक मदद संभव नहीं है, बात को वहीँ रहने दिया. अंत में दिनांक 13-10-2010 को दोपहर बाद करीब एक या 2 बजे मेरी माँ और बाकी दोनों महिलाओं को तभी छोड़ा गया जब मेरे चचेरे भाई श्री रविकांत सिंह ने अचानक थाने पहुंचकर सरेंडर कर दिया. यहां मैं साफ कर देना चाहता हूं कि मेरा व मेरे चाचा का परिवार पिछले कई दशक से अलग रहता है और सबके चूल्हा चौके व दरो-दीवार अलग-अलग हैं.
महिलाओं से संबंधित कानून साफ़-साफ़ यह बात कहते हैं कि महिलाओं को किसी भी कीमत में थाने पर अकारण नहीं लाया जा सकता है. उनकी गिरफ्तारी के समय और थाने में रहने के दौरान महिला पुलिसकर्मियों का रहना अनिवार्य है. दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के अनुसार उन्हें पूछताछ तक के लिए थाने नहीं ला सकते, बल्कि उनके घर पुलिस को जाना पड़ता है. इसी संहिता की धारा 50 के अनुसार यहाँ तक उन स्थानों के सर्च के लिए भी जहां महिलायें हो, महिला पुलिस का रहना अनिवार्य है. इन सबके बावजूद इन तीन महिलाओं को थाने में शाम से लेकर अगले दिन दोपहर तक बिठाये रखना न केवल शर्मनाक है बल्कि साफ़ तौर पर क़ानून का खुला उल्लंघन है. इसके साथ यह मामला माननीय उच्चतम न्यायालय की भी सीधी अवमानना है क्योंकि डीके बासु बनाम पश्चिम बंगाल सरकार के प्रकरण में माननीय न्यायालय ने जितने तमाम गिरफ्तारी सम्बन्धी निर्देश दिए हैं, उन सबों का साफ़ उल्लंघन किया गया है. वह भी तब जब कि माननीय सर्वोच्चा न्यायालय के आदेश पर डीके बासु का यह निर्णय हर थाने पर लगा होता है, नंदगंज में भी होगा. मैं इस सम्बन्ध में हर तरह के मौखिक और अभिलेखीय साक्ष्य भी प्रस्तुत कर सकता हूँ जिसके अनुसार नेरी मां व अन्य महिलाओं को थाने में बिठाए जाने के बाद थाने में बैठी महिलाओं की तस्वीरें व वीडियो मेरे पास सप्रमाण हैं. यह सब बंधक बनाए जाने के घटनाक्रम के सुबूत हैं. कुछ तस्वीरों व वीडियो को प्रमाण के रूप में यहां सलग्न कर रहा हूं.
साथ ही अगले दिन पुनः स्पेशल आपरेशन ग्रुप (एसओजी) के लोग बिना किसी नोटिस, चेतावनी और आग्रह के सादी वर्दी में सीधे मेरे गांव के पैतृक घर में घुसकर छोटे भाई के बेडरूम तक में चले गए और वहां से छोटे भाई की पत्नी से छीनाझपटी कर मोबाइल व अन्य सामान छीनने की कोशिश की. छोटे भाई व अन्य कई निर्दोष युवकों को थाने में देर रात तक रखा गया. इस सम्बन्ध में उत्तर प्रदेश के ही एक आईपीएस अधिकारी श्री अमिताभ ठाकुर से जब मैंने वार्ता की और उन्होंने उच्चाधिकारियों से वार्ता की तब जाकर रात में मेरे भाई भगवंत सिंह और अन्य लोगों को छोड़ा गया. इन सभी कारणों से मेरे परिवार के सभी सदस्यों को पुलिस से जानमाल का खतरा उत्पन्न हो गया है और जिस तरह की हरकत स्थानीय अधिकारी व पुलिस के लोग कर रहे हैं, उससे लग रहा है कि उनका लोकतंत्र व मानवीय मूल्यों में कोई भरोसा नहीं है.

मेरी जानकारी के अनुसार इस पूरे मामले में निम्न पुलिस वाले दोषी है और उनकी स्पष्ट संलिप्तता है- डीजीपी करमवीर, एडीजी बृजलाल, आईजी आरबी सिंह या आरपी सिंह, एसपी रवि कुमार लोकू, थानेदार राय. अतः इन समस्त तथ्यों के आधार पर आपसे अनुरोध है कि कृपया इस प्रकरण में समस्त दोषी व्यक्तियों के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर अग्रिम कार्यवाही करने का कष्ट करें. ऐसा नहीं होने की दशा में मैं न्याय हेतु अन्य संभव दरवाज़े खटखटाउंगा.
यहां यह भी बता दूं कि मैंने यूपी पुलिस के सभी बड़े अफसरों के यहां महिलाओं को बंधक बनाए जाने की घटना से संबंधित शिकायत व प्रमाण मेल के जरिए भेज दिए थे. उस पर बताया गया कि जांच के आदेश दिए गए हैं. जांच के लिए गाजीपुर में ही पदस्थ कुछ अधिकारी गांव गए व महिलाओं के बयान लिए. लेकिन अभी तक कोई नतीजा सामने नहीं आया है जिससे मैं मान सकूं कि दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई की गई है. इसी कारण मजबूर होकर मुझे मानवाधिकार आयोग की शरण में जाना पड़ रहा है. महिलाओं को बंधक बनाए जाने के तीन वीडियो यूट्यूब पर अपलोड कर दिए गए हैं जिसका यूआरएल / लिंक इस प्रकार है... इन लिंक पर क्लिक करने पर या इंटरनेट पर डालकर क्लिक करने पर वीडियो देखा जा सकता है....

http://www.youtube.com/watch?v=rQMYVV3Iq3M&feature=player_embedded

http://www.youtube.com/watch?v=ky_XFR9uLdE&feature=player_embedded

http://www.youtube.com/watch?v=7yXsEgpEXQw&feature=player_embedded

महिलाओं को बंधक बनाए जाने की एक तस्वीर इस मेल के साथ अटैच हैं, जिसे आप डाउनलोड कर सकते हैं. इसी तस्वीर का लिंक / यूआरएल दे रहे हैं, जिस पर क्लिक करने से वो तस्वीर सामने आ जाएगी...

http://www.bhadas4media.com/images/img/maathaana.jpg

इस प्रकरण से संबंधित सुबूतों के आधार पर कई अखबारों और न्यूज चैनलों ने यूपी पुलिस की हरकत के खिलाफ खबरें प्रकाशित प्रसारित कीं. इनमें से एक अखबार में प्रकाशित खबर की कटिंग को अटैच कर रहे हैं और एक न्यूज चैनल पर दिखाई गई खबर का लिंक यहां दे रहे हैं...

http://www.youtube.com/watch?v=CvmzdlDlLb8&feature=player_embedded




भवदीय,
यशवंत सिंह
पुत्र श्री लालजी सिंह,
निवासी
अलीपुर बनगांवा, थाना नंदगंज
जिला गाजीपुर, उत्तर प्रदेश
फ़ोन नंबर-09999330099



सा- visfot.com

Thursday, October 21, 2010

क्या होगा ?-(2)

मेरे किस्से (क्या होगा--(१)???) की पाकीजा अचानक एक सुबह मुझे टाऊन पार्क के बेंच पर बैठी मिल गयी. कुछ उदास सी लग रही थी. मैं पास गया तो उसने बिना पूछे ही मुझे बताना शुरू कर दिया कि जब चेहरा जलने और सुंदर ना रहने के बावजूद भी नज़रों ने उसका पीछा नहीं छोडा तो एक दिन उसने परेशां होकर अपनी इहलीला समाप्त कर ली.
मैंने कहा:-'तो ठीक है फिर अब उदास क्यों हो?'
वो बोली:-'मैं इसीलिए उदास हूँ कि आखिर मैंने ऐसा कदम क्यों उठा लिया, मरने जैसा? मैं नाराज़ हूँ अपने आप से कि आखिर इससे हुआ क्या?'
मैंने कहा:-'अरे भई, ठीक ही तो किया तुमने, एक अबला पाकीजा अपने पाक दामन को बचाए रखने के लिए मरने के सिवाय और कर भी क्या सकती है! और वो तुमने किया. तब फिर उदास होने या फिर खुद से नाराज़ होने वाली क्या बात है इसमें?'
मेरी बात सुनकर उसकी आवाज कुछ तेज़ हो गयी थी.
उसने कहना शुरू किया:-"आखिर क्यों? क्यों नहीं कर सकते हम और कुछ? कब तक हम ये कायराना कदम उठाते रहेंगे? आखिर मेरे मरने से भी किस्सा ख़त्म तो नहीं हुआ ना! आखिर आज भी तो पाकीजाओं के दामन उसी डर में जी रहे हैं, जिसमे जीते-जीते मैंने मरने जैसा कदम उठा लिया. क्या हो गया इससे?
अब पाकिजायें अबला नहीं बनी रह सकतीं. अब वो अपना चेहरा नहीं जलायेंगीं; बल्कि उन गन्दी नज़रों को देखने के काबिल ही नहीं छोडेंगी.
अब हमारे हाथ हमारे लिए फांसी का फंदा नहीं तैयार करेंगे बल्कि ये कारन बनेंगे उन् रावणों के संहार का जो सीता को महज सजावटी सामान समझकर उससे अपने महल की शोभा बढ़ाना चाहते हैं.
अब हम अबला नहीं बनी रह सकतीं."
कहते-कहते उसकी आँखें लाल हो आई थीं, मुझे लगा कि उसकी आँखों में कोई क्रांति जन्म ले रही है. उसकी बातों में एक दृढ़ता सी झलक रही थी और इस दृढ़ता से मुझे सुकून मिल रहा था.
तभी अचानक दरवाजे पर हुई किसी दस्तक से मेरी आँखें खुल गयीं, अख़बार वाला अख़बार दे गया था.
अखबार उठाते ही मेरी नज़र एक समाचार पर पड़ी -"लोकलाज के भय से एक बलात्कार पीडिता ने आत्महत्या की."
पाकीजा की सुखद बातों का भ्रम टूट चूका था.
मन यह सोचकर व्यथित है कि आखिर ये पाकीजायें कब तक अबला बनीं रहेंगी?
पाकीजाओं की इस कहानी का अंत क्या होगा???

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Tuesday, October 19, 2010

पर्दा-बेपर्दा नाटक

पर्दा नाटक 
दृश्य -1 
महाराज 12 वर्षों के बाद वन से लौटे हैं. हर तरफ प्रसन्नता का माहौल है. मंच पर हर ओर दिए जल रहे हैं. लेकिन ये क्या..!! रनिवास से रोने की आवाजें आ रही हैं. 
महाराज- 'रानी! तुमने हमारे साथ विश्वासघात किया है. यह बालक हमारा नहीं है. तुमने हमारे प्रेम का अपमान किया है. '
महारानी- 'नहीं महाराज! यह सत्य नहीं है. कुंवर आपका ही पुत्र है. हमने आपके साथ कोई विश्वासघात नहीं किया है.' 
महाराज- 'हम कैसे विश्वास कर लें इस झूठ पर!!! रानी तुम पुत्रविहीन ही रहती, लेकिन कम से कम पर-पुरुष का पुत्र तो ना जनतीं..'
महारानी विलाप कर रही हैं. 

दृश्य - 2 
महारानी कुलदेवता के मंदिर में विलाप कर रही हैं.
महारानी- 'हे कुलदेवता! यह कैसा लांछन हमारे चरित्र पर आपने लगा दिया है? मैंने महाराज की प्राप्ति की कामना की थी. पुत्र की इच्छा की थी.. लेकिन इस मूल्य पर तो नहीं!!!
अब तुम्हें ही मेरे सतीत्व को सिद्ध करना होगा. आज अगर तुमने स्वयं मुझ पर लगे इस आरोप को नहीं हटाया तो मैं यहीं आपके मंदिर में अपने प्राण त्याग दूंगी.'
इतना कहकर महारानी ने वही मंदिर के पाषाणों पर अपना सर पटकना प्रारंभ कर दिया.
अंततः कुलदेव को प्रकट होना ही पड़ता है. कुलदेव स्वयं महारानी को सौभाग्य का वर देते हैं.

दृश्य - 3 
महाराज ने कुलदेव के मंदिर में साक्षात कुलदेव को देखा. राजन को अपनी भूल का एहसास हुआ. पश्चाताप के मारे वो रानी के पैरों में गिर पड़े. 
कुलदेव ने राजन को ज्ञान दिया. सब ख़ुशी-ख़ुशी महल लौट आये.

दृश्य - 4 
पूरे साम्राज्य में ढोल-नगाड़े की आवाजें गूंज रही हैं. महाराज ने कुंवर को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. 
पूरे साम्राज्य में कुंवर की तस्वीर छपे सिक्के बांटे गए. हर ओर खुशहाली लौट आई.

पर्दा गिरता है. लोग तालियाँ बजाते हैं. हर दर्शक अपने-अपने विचारों के हिसाब से नाटक का विश्लेषण करता है. 

बेपर्दा नाटक 
दृश्य - 1 
साजिद पूरे दो साल बाद शहर से आया है. 
आते ही अपनी नन्ही औलाद को गोद में लेकर झुलाने की बजाय उसने रुबीना पर इल्जाम लगाना शुरू कर दिया. 
साजिद- 'कुलटा! तूने ये क्या किया? मेरे साथ धोखा किया तूने' 
रुबीना- 'नहीं साजिद ये सच नहीं है. ये राहिल तुम्हारी ही औलाद है. मेरा यकीन करो.'
साजिद- 'दूर हट बेहया.. अरे तू कुछ भी जनती, मगर पराये मर्द की औलाद तो ना जनती..'
कहकर साजिद ने उसे लात से पीछे धकेल दिया. रुबीना रोती रह गयी.

दृश्य - 2 
रुबीना अपने कमरे में अकेली रो रही है. उसके हाथों में उसका खुदा है, जिसे नासमझ लोग जहर कहते हैं. अब उसे इसी से उम्मीद है. उसे यकीन है कि उसका खुदा उसे धोखा नहीं देगा.
अगले ही पल उसने उस जहर को अपने ज़ेहन में उतार लिया. 

दृश्य - 3 
रुबीना का स्याह शरीर फर्श पर पड़ा है. उसके कदमो में भी कोई है. कौन? राहिल.. उसे नहीं पता कि उसकी माँ का शरीर इतना रंगीन क्यों हैं. उसे तो स्याह-सफ़ेद का फर्क भी नहीं पता. 

दृश्य - 4 
शहनाई की आवाज आ रही है. साजिद ने दूसरा निकाह कर लिया है. हर ओर ख़ुशी है. ढोल-नगाड़े बज रहे हैं. 
लेकिन कहीं दूर से एक और भी आवाज आ रही है. राहिल की, जो अपनी माँ के कब्र पर बैठा रो-रोकर उसे बुला रहा है. उसे नहीं पता कि वहां से कोई लौटकर नहीं आता.
शाम गहराती जा रही थी. इस ओर ख़ुशी के दिए जल रहे हैं. राहिल के रोने की आवाज लगातार जारी है. कुछ देर में कुछ जंगली जानवरों की आवाज भी आने लगती है. थोड़ी देर बाद राहिल की आवाज खामोश हो गयी. 
वो शायद खुदा के फ़रिश्ते हैं जो उस मासूम को इस बेरहम दुनिया में रोता नहीं देखना चाहते थे. उन्हें पता है कि अगर वो इस दुनिया में रहेगा भी तो नाजायज होने का दर्द उसका जीना हराम कर देगा. शायद यही सोचकर वो जंगली जानवर के भेष में आये फ़रिश्ते उसे उस दुनिया में ले गए जहाँ उसकी माँ है. 
खुदा के पास...

इस बार पर्दा नहीं गिरता है. क्यूंकि इस सच और हमारे बीच कोई पर्दा है ही नहीं. 
मैं अचंभित हूँ. कोई मेरी इस कहानी पर तालियाँ भी नहीं बजाता. कोई चर्चा भी नहीं कर रहा है इस किस्से की. 
शायद किसी के पास वक़्त ही नहीं है बेपरदे के इस किस्से को देखने का...
और फिर वैसे भी ये किसी राजा-रानी की कहानी थोड़े ही है....!! 


- अमित तिवारी
संचार संपादक
निर्माण संवाद

क्या होगा? -(1)

यूं ही अचानक बैठे-बैठे मन में एक प्रश्न उठ रहा है, क्या होगा?
प्रश्न जितना छोटा है, उतना ही बड़ा इसका आयाम है. इस प्रश्न में घर, समाज, देश, दुनिया सब समाहित हो जाता है.
किस्से की शुरुआत होती है 'पाकीजा' से, एक साधारण परिवार की सुन्दर लड़की. और कभी-कभी तो लगता है कि ये जो दो शब्द हैं, 'साधारण' और 'सुन्दर' यही उसके जीवन के सबसे बुरे शब्द हैं, क्यूंकि आज की दुनिया में 'साधारण' परिवार की लड़की का 'सुन्दर' होना ही सबसे बड़ा अभिशाप है. पाकीजा इस अभिशाप से भला कैसे बच सकती थी? इसी का कारण था कि पाकीजा जैसे ही अपने घर से बाहर निकलती, तमाम वहशी नज़रें उसका पीछा करना शुरू कर देतीं. फिर दूर-दूर तक, चेहरे बदलते, गर्दनें बदलतीं मगर नज़रें नहीं बदलतीं.! ये नज़रें तब तक उसका पीछा करती थी जब तक कि वो फिर से घूमकर वापस घर की चारदीवारी में आकर बंद ना हो जाती.
ये रोज का सिलसिला था. इस रोज-रोज के दौर से परेशां होकर एक दिन पाकीजा ने एक गंभीर कदम उठा ही लिया, उसने अपने ही हाथों तेजाब से अपना चेहरा जला लिया. उसने सोचा कि अब वो सुंदर नहीं रहेगी, तो नज़रें उसका पीछा भी नहीं करेंगी.
मगर अफ़सोस!!!  ऐसा कुछ नहीं हुआ, नज़रों ने उसका पीछा करना नहीं छोडा, क्यूंकि वो अभी भी एक लड़की है. हाँ एक नयी बात जरूर हो गयी है कि अब कुछ हाथ भी सहानुभूति के नाम पर उसकी ओर बढ़ने लगे.
अब मैं ये सोच रहा हूँ कि बचपन में नैतिक शिक्षा की किताब में पढाई जाने वाली बड़ी-बड़ी नैतिकता की बातों का क्या होगा?
मनुष्य और मानवता जैसी अवधारणाओं का क्या होगा?
और सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि 'पाकीजा' का अगला कदम क्या होगा?
क्या वो खुद को मार लेगी?
और क्या उसके मर जाने से किस्सा ख़त्म हो जायेगा?
कभी नहीं!!!
क्यूंकि ये किस्सा किसी एक 'पाकीजा' का नहीं है!! ये किस्सा उन तमाम पाकीजाओं का है जिनके पाक दामन पर हर रोज गन्दी नज़रों के छींटे पड़ते रहते हैं और हर रोज एक छोटा सा प्रश्न खडा करते हैं- "क्या होगा??"

जारी.....

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Sunday, October 17, 2010

एक अनुभव वैश्यालय का...

उन शातिर आँखों का मतलब समझते ही मैंने सौ-सौ के पांच नोट उसकी ओर बढा दिए और साथ ही अपनी 'पसंद' की ओर इशारा भी कर दिया था.
कुछ ही पलों में मैं अपने ख्वाबों की जन्नत में था. आज मैं अपने साथ के उन तमाम रईसजादों की बराबरी पर आ गया था, जिनके मुहँ से अक्सर मैं ऐसे किस्से नई-नई शब्द व्यंजनाओं के साथ सुना करता था. मेरे दिमाग में तमाम शब्द बन बिगड़ रहे थे; कल अपनी इस उपलब्धि की व्याख्या करने के लिए. हालांकि पहली बार होने के कारन मैं कहीं न कहीं थोडा असंयत सा अनुभव कर रहा था.
दरवाजे पर दस्तक होते ही जब मैंने नजरें उठाई तो अपलक निहारता ही रह गया. मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं अपनी सफलता के इतने निकट हूँ.
"फास्ट फ़ूड या मुगलई!?" अपने आप को सहज दिखाने का प्रयास करते हुए मैंने मजाकिया लहजे में कहा.
"नाम क्या है आपका?" सुस्पष्ट आवाज और सधे हुए वाक्य-विन्यास के साथ किये गए इस प्रश्न ने मुझे चौंका दिया.
"ज..जी..वो..सौरभ...सौरभ शुक्ला..."
"घबराइये मत, पहली बार आये हैं?"
"न....हाँ.."
"कहाँ रहते हैं?"
"यहीं......दिल्ली में."
"क्या करते हैं?"
"पढाई...इंजीनियरिंग...." मैं यंत्रवत सा उत्तर देता जा रहा था.
"परिवार ?"
"इलाहाबाद में, ....मम्मी-पापा."
"कितने पैसे दिए हैं बाहर?"
"पांच सौ..."
"कमाते हैं?"
"नहीं, ...पापा से लिए थे .....नोट्स के लिए..." मैंने अपराध स्वीकारोक्ति के लहजे में कहा.
अगले ही पल मेरे सामने पांच सौ का नोट रखा था. इस अप्रत्याशित घटनाक्रम से मैं स्तब्ध रह गया.
उन होंठों की जुम्बिश अभी भी जारी थी, "हम अपने ग्राहकों से ज्यादा बात नहीं करते, ना ही हमें उनकी निजी जिंदगी में कोई दिलचस्पी होती है, फिर भी आप से दुआ कर रहे हैं, बचे रहिये इस जगह से. हमारी तो मजबूरी है, हमारी तो दुनिया ही यहीं है. पर आपके सामने पूरी दुनिया है. परिवार है. परिवार के सपने हैं, उन्हें पूरा कीजिये..
वैसे हम सिर्फ कह सकते हैं....आगे आपकी मर्जी..जब तक आप यहाँ हैं, हम आपकी खरीदी हुई चीज़ हैं..आप जो चाहे कर सकते हैं.."
मैं चुपचाप नजरें नीचे किये चलने को हुआ.
"पैसे उठा लीजिये, हमें लगेगा हमारी नापाक कमाई किसी पाक काम में इस्तेमाल हो गयी. वैसे थोडी देर रुक कर जाइए, ताकि हमें बाहर जवाब ना देना पड़े..!"
मैं रुक गया और थोडी देर बाद पैसे लेकर बाहर आ गया, लेकिन अपनी नम आँखों से मैंने अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर दी थी. मेरे जीवन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आ चुका था. मुझे लगा शायद मैं ईश्वर से साक्षात्कार करके लौटा हूँ.
खैर जो भी था अच्छा था.
सच ही तो है, कहीं भी सब कुछ बुरा नहीं होता.

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद


Saturday, October 16, 2010

क्यूँ ???



क्यूँ बाजी हर बार मेरे
हाथों से फिसल जाती है।  
क्यूँ जीवन की हर खुशियाँ 
जीवन को छल जाती हैं।।
क्यूँ खोता हूँ हर पल 
मैं ही यकीन अपनों का।
क्यों कर जाता है हर कोई 
क़त्ल मेरे सपनो का।।
क्यों नहीं समझती है दुनिया 
मेरे दिल के जज्बातों को ।
क्यूँ तरसा देती है दुनिया 
प्यार भरी दो बातों को।।
क्या यही जिंदगी है और 
बस रोते रहना जीवन है।
क्या झूठी-सच्ची रस्मों में 
बहते रहना जीवन है।।
काश कोई तो जीवन को 
एक नई परिभाषा दे।
काश कोई तो जीवन को 
प्रीत भरी इक भाषा दे।।
काश सुनहरी धरती हो, 
हँसता नीला आकाश बने।
काश कहीं दिल के कोने में 
फिर से वो विश्वास बने।।

-अमित तिवारी 
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Friday, October 15, 2010

आज तीन दिन के बाद...



यहाँ का हर फूल गूंगा क्यूँ है?
मेरी अंगूठी में उदास मूंगा क्यूँ है?
वो पंछी क्यूँ रो रहा है?
उसके दिल में क्या हो रहा है?
दाना- लाना- चुगना- खाना
और फिर रात के होने का इंतजार
यह सब कुछ पहले कभी नहीं सोचा..
जो सोचा आज तीन दिन के बाद..

सांझ में इतनी उदासी क्यूँ है?
हर सुबह इतनी बासी क्यों है?
दिन ढलना, सांझ होना,
बेवजह हँसना, बेवजह रोना.
यह सब कुछ पहले कभी नहीं सोचा..
जो सोचा आज तीन दिन के बाद..

अहा! खारे पानी की वो मिठास
सख्त दाढ़ी की छुवन का वो एहसास
मैंने कभी समन्दर नहीं देखा..
कभी उस दिल को छूकर नहीं देखा
ये सब कुछ मैंने पहले तो कभी नहीं सोचा
जो सोचा है मैंने आज तीन दिन के बाद

हाँ मैंने सोचा है ये सब आज...
जब सुनी है पिता की आवाज
आज तीन दिन के बाद.......

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद


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