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Thursday, October 28, 2010

जबसे मेरा मीत वो मुझसे रूठ गया

जबसे मेरा मीत वो मुझसे रूठ गया,
सपनो का भी दामन जैसे छूट गया।
चाँद कहे कि मुझको अब आवाज ना दो,
तारों का भी जैसे कि दिल टूट गया।।

फूलों की रंगत भी जैसे खोयी है,
खुशबू अभी-अभी जी भरके रोई है।
पत्तों पर ओंस नहीं गगन के आंसू हैं,
आँखें जाने कब से ये बिन सोयी हैं।।

सूरज जिद पर बैठा है कि ढलना है,
पर्वत कहते हैं हमको अब गलना है।
परवाना होता तो जलकर मर जाता,
मैं शम्मा हूँ मुझको हर पल जलना है।।

तितली भी रोते-रोते अब हार गयी,
भँवरे को भी दर्द-ए-जुदाई मार गयी।
आवाज तो हमने कई बार दी है उनको,
'संघर्ष' मगर ये कोशिश भी बेकार गयी।।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद


Wednesday, October 27, 2010

श्रीमान जी, मैं यशवंत सिंह भड़ास4मीडिया का संपादक और सीईओ हूं!

सेवा में, मानवाधिकार आयोग, दिल्ली / लखनऊ। श्रीमान, मैं यशवंत सिंह पुत्र श्री लालजी सिंह निवासी ग्राम अलीपुर बनगांवा थाना नंदगंज, जनपद गाजीपुर, उत्तर प्रदेश (हाल पता- ए-1107, जीडी कालोनी, मयूर विहार फेज-3, दिल्ली-96) हूँ. मैं वर्तमान में दिल्ली स्थित एक वेब मीडिया कंपनी भड़ास4मीडिया में कार्यरत हूं. इस कंपनी के पोर्टल का वेब पता www.bhadas4media.com है. मैं इस पोर्टल में सीईओ & एडिटर के पद पर हूं. इससे पहले मैं दैनिक जागरण, अमर उजाला एवं अन्य अखबारों में कार्यरत रहा हूँ.
पिछले दिनों दिनांक 12-10-2010 को समय लगभग 10 बजे रात को मुझे गाजीपुर जिले के नंदगंज थाने के अपने गाँव अलीपुर बनगांवा से मेरे मोबाइल नंबर 9999330099 पर मेरे परिवार के कई लोगों के फोन आए. फोन पर बताया गया कि स्थानीय थाना नंदगंज की पुलिस ने मेरी मां श्रीमती यमुना सिंह, मेरी चाची श्रीमती रीता सिंह पत्नी श्री रामजी सिंह और मेरे चचेरे भाई की पत्नी श्रीमती सीमा सिंह पत्नी श्री रविकांत सिंह को घर से जबरन उठा लिया. मुझे बताई गयी सूचना के अनुसार यह बात लगभग साढ़े आठ से साढ़े नौ बजे रात की होगी. फ़ोन करने वाले ने यह भी बताया कि पूछने पर पुलिस वालों ने कहा कि ऐसा गाजीपुर के पुलिस अधीक्षक श्री रवि कुमार लोकू तथा पुलिस के अन्य उच्चाधिकारियों यथा बृजलाल आदि के निर्देश पर हो रहा है और गाँव में ही दिनांक 12-10-2010 को हुयी श्री शमशेर सिंह की हत्या में नामजद अभियुक्तों श्री राजेश दुबे उर्फ टुन्नू तथा रविकांत सिंह की गिरफ्तारी नहीं हो सकने के कारण इन्हीं महिलाओं को इस मामले में दवाब बनाने के लिए थाने ले जाना पड़ रहा है. फ़ोन करने वाले ने यह भी बताया कि ये लोग उनके साथ भी काफी बदतमीजी से पेश आये थे. उसके बाद नंदगंज की पुलिस ने रात भर इन तीनों महिलाओं को थाने में बंधक बनाए रखा. मैंने इस सम्बन्ध में तुरंत लखनऊ व गाजीपुर के मीडिया के अपने वरिष्ठ साथियों से संपर्क किया और उनसे अनुरोध किया कि वे थाने जा कर या किसी को भेजकर महिलाओं को थाने में बंधक बनाकर रखे जाने के प्रकरण का सुबूत के लिए वीडियो बना लें और फोटो भी खींच लें या खिंचवा लें ताकि इस मामले में कल के लिए सबूत रहे. उस रात तो नहीं, लेकिन अगले दिन दोपहर से पहले कुछ रिपोर्टरों ने नंदगंज थाने में जाकर बंधक बनाई गई महिलाओं से बातचीत करते हुए वीडयो टेप बना लिया और तस्वीरें भी ले लीं. उनमें से कुछ तस्वीरों व वीडियो को इस शिकायती पत्र के साथ संलग्न कर रहा हूं.

इसके बाद मैंने यथासंभव हर जगह संपर्क किया जिसमे इन लोगों ने निम्न अधिकारियों से वार्ता की-

1. गाजीपुर के पुलिस अधीक्षक रवि कुमार लोकू

2. वाराणसी परिक्षेत्र के आईजी आरबी सिंह या बीआर सिंह

3. नंदगंज थाने के थानेदार राय

लखनऊ के कुछ मित्रों ने लखनऊ में पदस्थ पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों, जो पूरे प्रदेश में कानून व्यवस्था व पुलिस महकमे का काम देखते हैं, से बातचीत की. सभी जगहों से एक ही जवाब मिला कि हत्या का मामला है, हत्यारोपी का सरेंडर कराओ, महिलाएं छोड़ दी जाएंगी वरना थाने में ही बंधक बनाकर रखी जाएंगी. गाजीपुर व वाराणसी परिक्षेत्र के पुलिस अधिकारियों ने यह भी कहा कि यह प्रकरण ऊपर से देखा जा रहा है, शासन का बहुत दवाब है और स्वयं पुलिस महानिदेशक कर्मवीर सिंह इस मामले को देख रहे हैं इसीलिए उनके स्तर से कोई भी मदद संभव नहीं है.
फिर मैंने अपने पुराने मित्र श्री शलभ मणि तिवारी, ब्यूरो प्रमुख, आईबीएन ७, लखनऊ से संपर्क किया और पूरा माजरा बताया. उन्होंने स्वयं श्री बृज लाल, जो इस समय अपर पुलिस महानिदेशक क़ानून और व्यवस्था, उत्तर प्रदेश हैं, से दिनांक 12-1-2010 को संपर्क किया किन्तु उन्होंने भी आपराधिक और गंभीर घटना बताने हुए और यह कहते हुए कि जब तक मुख्य मुलजिम गिरफ्तार नहीं हो जायेंगे, तब तक मदद संभव नहीं है, बात को वहीँ रहने दिया. अंत में दिनांक 13-10-2010 को दोपहर बाद करीब एक या 2 बजे मेरी माँ और बाकी दोनों महिलाओं को तभी छोड़ा गया जब मेरे चचेरे भाई श्री रविकांत सिंह ने अचानक थाने पहुंचकर सरेंडर कर दिया. यहां मैं साफ कर देना चाहता हूं कि मेरा व मेरे चाचा का परिवार पिछले कई दशक से अलग रहता है और सबके चूल्हा चौके व दरो-दीवार अलग-अलग हैं.
महिलाओं से संबंधित कानून साफ़-साफ़ यह बात कहते हैं कि महिलाओं को किसी भी कीमत में थाने पर अकारण नहीं लाया जा सकता है. उनकी गिरफ्तारी के समय और थाने में रहने के दौरान महिला पुलिसकर्मियों का रहना अनिवार्य है. दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के अनुसार उन्हें पूछताछ तक के लिए थाने नहीं ला सकते, बल्कि उनके घर पुलिस को जाना पड़ता है. इसी संहिता की धारा 50 के अनुसार यहाँ तक उन स्थानों के सर्च के लिए भी जहां महिलायें हो, महिला पुलिस का रहना अनिवार्य है. इन सबके बावजूद इन तीन महिलाओं को थाने में शाम से लेकर अगले दिन दोपहर तक बिठाये रखना न केवल शर्मनाक है बल्कि साफ़ तौर पर क़ानून का खुला उल्लंघन है. इसके साथ यह मामला माननीय उच्चतम न्यायालय की भी सीधी अवमानना है क्योंकि डीके बासु बनाम पश्चिम बंगाल सरकार के प्रकरण में माननीय न्यायालय ने जितने तमाम गिरफ्तारी सम्बन्धी निर्देश दिए हैं, उन सबों का साफ़ उल्लंघन किया गया है. वह भी तब जब कि माननीय सर्वोच्चा न्यायालय के आदेश पर डीके बासु का यह निर्णय हर थाने पर लगा होता है, नंदगंज में भी होगा. मैं इस सम्बन्ध में हर तरह के मौखिक और अभिलेखीय साक्ष्य भी प्रस्तुत कर सकता हूँ जिसके अनुसार नेरी मां व अन्य महिलाओं को थाने में बिठाए जाने के बाद थाने में बैठी महिलाओं की तस्वीरें व वीडियो मेरे पास सप्रमाण हैं. यह सब बंधक बनाए जाने के घटनाक्रम के सुबूत हैं. कुछ तस्वीरों व वीडियो को प्रमाण के रूप में यहां सलग्न कर रहा हूं.
साथ ही अगले दिन पुनः स्पेशल आपरेशन ग्रुप (एसओजी) के लोग बिना किसी नोटिस, चेतावनी और आग्रह के सादी वर्दी में सीधे मेरे गांव के पैतृक घर में घुसकर छोटे भाई के बेडरूम तक में चले गए और वहां से छोटे भाई की पत्नी से छीनाझपटी कर मोबाइल व अन्य सामान छीनने की कोशिश की. छोटे भाई व अन्य कई निर्दोष युवकों को थाने में देर रात तक रखा गया. इस सम्बन्ध में उत्तर प्रदेश के ही एक आईपीएस अधिकारी श्री अमिताभ ठाकुर से जब मैंने वार्ता की और उन्होंने उच्चाधिकारियों से वार्ता की तब जाकर रात में मेरे भाई भगवंत सिंह और अन्य लोगों को छोड़ा गया. इन सभी कारणों से मेरे परिवार के सभी सदस्यों को पुलिस से जानमाल का खतरा उत्पन्न हो गया है और जिस तरह की हरकत स्थानीय अधिकारी व पुलिस के लोग कर रहे हैं, उससे लग रहा है कि उनका लोकतंत्र व मानवीय मूल्यों में कोई भरोसा नहीं है.

मेरी जानकारी के अनुसार इस पूरे मामले में निम्न पुलिस वाले दोषी है और उनकी स्पष्ट संलिप्तता है- डीजीपी करमवीर, एडीजी बृजलाल, आईजी आरबी सिंह या आरपी सिंह, एसपी रवि कुमार लोकू, थानेदार राय. अतः इन समस्त तथ्यों के आधार पर आपसे अनुरोध है कि कृपया इस प्रकरण में समस्त दोषी व्यक्तियों के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर अग्रिम कार्यवाही करने का कष्ट करें. ऐसा नहीं होने की दशा में मैं न्याय हेतु अन्य संभव दरवाज़े खटखटाउंगा.
यहां यह भी बता दूं कि मैंने यूपी पुलिस के सभी बड़े अफसरों के यहां महिलाओं को बंधक बनाए जाने की घटना से संबंधित शिकायत व प्रमाण मेल के जरिए भेज दिए थे. उस पर बताया गया कि जांच के आदेश दिए गए हैं. जांच के लिए गाजीपुर में ही पदस्थ कुछ अधिकारी गांव गए व महिलाओं के बयान लिए. लेकिन अभी तक कोई नतीजा सामने नहीं आया है जिससे मैं मान सकूं कि दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई की गई है. इसी कारण मजबूर होकर मुझे मानवाधिकार आयोग की शरण में जाना पड़ रहा है. महिलाओं को बंधक बनाए जाने के तीन वीडियो यूट्यूब पर अपलोड कर दिए गए हैं जिसका यूआरएल / लिंक इस प्रकार है... इन लिंक पर क्लिक करने पर या इंटरनेट पर डालकर क्लिक करने पर वीडियो देखा जा सकता है....

http://www.youtube.com/watch?v=rQMYVV3Iq3M&feature=player_embedded

http://www.youtube.com/watch?v=ky_XFR9uLdE&feature=player_embedded

http://www.youtube.com/watch?v=7yXsEgpEXQw&feature=player_embedded

महिलाओं को बंधक बनाए जाने की एक तस्वीर इस मेल के साथ अटैच हैं, जिसे आप डाउनलोड कर सकते हैं. इसी तस्वीर का लिंक / यूआरएल दे रहे हैं, जिस पर क्लिक करने से वो तस्वीर सामने आ जाएगी...

http://www.bhadas4media.com/images/img/maathaana.jpg

इस प्रकरण से संबंधित सुबूतों के आधार पर कई अखबारों और न्यूज चैनलों ने यूपी पुलिस की हरकत के खिलाफ खबरें प्रकाशित प्रसारित कीं. इनमें से एक अखबार में प्रकाशित खबर की कटिंग को अटैच कर रहे हैं और एक न्यूज चैनल पर दिखाई गई खबर का लिंक यहां दे रहे हैं...

http://www.youtube.com/watch?v=CvmzdlDlLb8&feature=player_embedded




भवदीय,
यशवंत सिंह
पुत्र श्री लालजी सिंह,
निवासी
अलीपुर बनगांवा, थाना नंदगंज
जिला गाजीपुर, उत्तर प्रदेश
फ़ोन नंबर-09999330099



सा- visfot.com

Thursday, October 21, 2010

क्या होगा ?-(2)

मेरे किस्से (क्या होगा--(१)???) की पाकीजा अचानक एक सुबह मुझे टाऊन पार्क के बेंच पर बैठी मिल गयी. कुछ उदास सी लग रही थी. मैं पास गया तो उसने बिना पूछे ही मुझे बताना शुरू कर दिया कि जब चेहरा जलने और सुंदर ना रहने के बावजूद भी नज़रों ने उसका पीछा नहीं छोडा तो एक दिन उसने परेशां होकर अपनी इहलीला समाप्त कर ली.
मैंने कहा:-'तो ठीक है फिर अब उदास क्यों हो?'
वो बोली:-'मैं इसीलिए उदास हूँ कि आखिर मैंने ऐसा कदम क्यों उठा लिया, मरने जैसा? मैं नाराज़ हूँ अपने आप से कि आखिर इससे हुआ क्या?'
मैंने कहा:-'अरे भई, ठीक ही तो किया तुमने, एक अबला पाकीजा अपने पाक दामन को बचाए रखने के लिए मरने के सिवाय और कर भी क्या सकती है! और वो तुमने किया. तब फिर उदास होने या फिर खुद से नाराज़ होने वाली क्या बात है इसमें?'
मेरी बात सुनकर उसकी आवाज कुछ तेज़ हो गयी थी.
उसने कहना शुरू किया:-"आखिर क्यों? क्यों नहीं कर सकते हम और कुछ? कब तक हम ये कायराना कदम उठाते रहेंगे? आखिर मेरे मरने से भी किस्सा ख़त्म तो नहीं हुआ ना! आखिर आज भी तो पाकीजाओं के दामन उसी डर में जी रहे हैं, जिसमे जीते-जीते मैंने मरने जैसा कदम उठा लिया. क्या हो गया इससे?
अब पाकिजायें अबला नहीं बनी रह सकतीं. अब वो अपना चेहरा नहीं जलायेंगीं; बल्कि उन गन्दी नज़रों को देखने के काबिल ही नहीं छोडेंगी.
अब हमारे हाथ हमारे लिए फांसी का फंदा नहीं तैयार करेंगे बल्कि ये कारन बनेंगे उन् रावणों के संहार का जो सीता को महज सजावटी सामान समझकर उससे अपने महल की शोभा बढ़ाना चाहते हैं.
अब हम अबला नहीं बनी रह सकतीं."
कहते-कहते उसकी आँखें लाल हो आई थीं, मुझे लगा कि उसकी आँखों में कोई क्रांति जन्म ले रही है. उसकी बातों में एक दृढ़ता सी झलक रही थी और इस दृढ़ता से मुझे सुकून मिल रहा था.
तभी अचानक दरवाजे पर हुई किसी दस्तक से मेरी आँखें खुल गयीं, अख़बार वाला अख़बार दे गया था.
अखबार उठाते ही मेरी नज़र एक समाचार पर पड़ी -"लोकलाज के भय से एक बलात्कार पीडिता ने आत्महत्या की."
पाकीजा की सुखद बातों का भ्रम टूट चूका था.
मन यह सोचकर व्यथित है कि आखिर ये पाकीजायें कब तक अबला बनीं रहेंगी?
पाकीजाओं की इस कहानी का अंत क्या होगा???

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Tuesday, October 19, 2010

पर्दा-बेपर्दा नाटक

पर्दा नाटक 
दृश्य -1 
महाराज 12 वर्षों के बाद वन से लौटे हैं. हर तरफ प्रसन्नता का माहौल है. मंच पर हर ओर दिए जल रहे हैं. लेकिन ये क्या..!! रनिवास से रोने की आवाजें आ रही हैं. 
महाराज- 'रानी! तुमने हमारे साथ विश्वासघात किया है. यह बालक हमारा नहीं है. तुमने हमारे प्रेम का अपमान किया है. '
महारानी- 'नहीं महाराज! यह सत्य नहीं है. कुंवर आपका ही पुत्र है. हमने आपके साथ कोई विश्वासघात नहीं किया है.' 
महाराज- 'हम कैसे विश्वास कर लें इस झूठ पर!!! रानी तुम पुत्रविहीन ही रहती, लेकिन कम से कम पर-पुरुष का पुत्र तो ना जनतीं..'
महारानी विलाप कर रही हैं. 

दृश्य - 2 
महारानी कुलदेवता के मंदिर में विलाप कर रही हैं.
महारानी- 'हे कुलदेवता! यह कैसा लांछन हमारे चरित्र पर आपने लगा दिया है? मैंने महाराज की प्राप्ति की कामना की थी. पुत्र की इच्छा की थी.. लेकिन इस मूल्य पर तो नहीं!!!
अब तुम्हें ही मेरे सतीत्व को सिद्ध करना होगा. आज अगर तुमने स्वयं मुझ पर लगे इस आरोप को नहीं हटाया तो मैं यहीं आपके मंदिर में अपने प्राण त्याग दूंगी.'
इतना कहकर महारानी ने वही मंदिर के पाषाणों पर अपना सर पटकना प्रारंभ कर दिया.
अंततः कुलदेव को प्रकट होना ही पड़ता है. कुलदेव स्वयं महारानी को सौभाग्य का वर देते हैं.

दृश्य - 3 
महाराज ने कुलदेव के मंदिर में साक्षात कुलदेव को देखा. राजन को अपनी भूल का एहसास हुआ. पश्चाताप के मारे वो रानी के पैरों में गिर पड़े. 
कुलदेव ने राजन को ज्ञान दिया. सब ख़ुशी-ख़ुशी महल लौट आये.

दृश्य - 4 
पूरे साम्राज्य में ढोल-नगाड़े की आवाजें गूंज रही हैं. महाराज ने कुंवर को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. 
पूरे साम्राज्य में कुंवर की तस्वीर छपे सिक्के बांटे गए. हर ओर खुशहाली लौट आई.

पर्दा गिरता है. लोग तालियाँ बजाते हैं. हर दर्शक अपने-अपने विचारों के हिसाब से नाटक का विश्लेषण करता है. 

बेपर्दा नाटक 
दृश्य - 1 
साजिद पूरे दो साल बाद शहर से आया है. 
आते ही अपनी नन्ही औलाद को गोद में लेकर झुलाने की बजाय उसने रुबीना पर इल्जाम लगाना शुरू कर दिया. 
साजिद- 'कुलटा! तूने ये क्या किया? मेरे साथ धोखा किया तूने' 
रुबीना- 'नहीं साजिद ये सच नहीं है. ये राहिल तुम्हारी ही औलाद है. मेरा यकीन करो.'
साजिद- 'दूर हट बेहया.. अरे तू कुछ भी जनती, मगर पराये मर्द की औलाद तो ना जनती..'
कहकर साजिद ने उसे लात से पीछे धकेल दिया. रुबीना रोती रह गयी.

दृश्य - 2 
रुबीना अपने कमरे में अकेली रो रही है. उसके हाथों में उसका खुदा है, जिसे नासमझ लोग जहर कहते हैं. अब उसे इसी से उम्मीद है. उसे यकीन है कि उसका खुदा उसे धोखा नहीं देगा.
अगले ही पल उसने उस जहर को अपने ज़ेहन में उतार लिया. 

दृश्य - 3 
रुबीना का स्याह शरीर फर्श पर पड़ा है. उसके कदमो में भी कोई है. कौन? राहिल.. उसे नहीं पता कि उसकी माँ का शरीर इतना रंगीन क्यों हैं. उसे तो स्याह-सफ़ेद का फर्क भी नहीं पता. 

दृश्य - 4 
शहनाई की आवाज आ रही है. साजिद ने दूसरा निकाह कर लिया है. हर ओर ख़ुशी है. ढोल-नगाड़े बज रहे हैं. 
लेकिन कहीं दूर से एक और भी आवाज आ रही है. राहिल की, जो अपनी माँ के कब्र पर बैठा रो-रोकर उसे बुला रहा है. उसे नहीं पता कि वहां से कोई लौटकर नहीं आता.
शाम गहराती जा रही थी. इस ओर ख़ुशी के दिए जल रहे हैं. राहिल के रोने की आवाज लगातार जारी है. कुछ देर में कुछ जंगली जानवरों की आवाज भी आने लगती है. थोड़ी देर बाद राहिल की आवाज खामोश हो गयी. 
वो शायद खुदा के फ़रिश्ते हैं जो उस मासूम को इस बेरहम दुनिया में रोता नहीं देखना चाहते थे. उन्हें पता है कि अगर वो इस दुनिया में रहेगा भी तो नाजायज होने का दर्द उसका जीना हराम कर देगा. शायद यही सोचकर वो जंगली जानवर के भेष में आये फ़रिश्ते उसे उस दुनिया में ले गए जहाँ उसकी माँ है. 
खुदा के पास...

इस बार पर्दा नहीं गिरता है. क्यूंकि इस सच और हमारे बीच कोई पर्दा है ही नहीं. 
मैं अचंभित हूँ. कोई मेरी इस कहानी पर तालियाँ भी नहीं बजाता. कोई चर्चा भी नहीं कर रहा है इस किस्से की. 
शायद किसी के पास वक़्त ही नहीं है बेपरदे के इस किस्से को देखने का...
और फिर वैसे भी ये किसी राजा-रानी की कहानी थोड़े ही है....!! 


- अमित तिवारी
संचार संपादक
निर्माण संवाद

क्या होगा? -(1)

यूं ही अचानक बैठे-बैठे मन में एक प्रश्न उठ रहा है, क्या होगा?
प्रश्न जितना छोटा है, उतना ही बड़ा इसका आयाम है. इस प्रश्न में घर, समाज, देश, दुनिया सब समाहित हो जाता है.
किस्से की शुरुआत होती है 'पाकीजा' से, एक साधारण परिवार की सुन्दर लड़की. और कभी-कभी तो लगता है कि ये जो दो शब्द हैं, 'साधारण' और 'सुन्दर' यही उसके जीवन के सबसे बुरे शब्द हैं, क्यूंकि आज की दुनिया में 'साधारण' परिवार की लड़की का 'सुन्दर' होना ही सबसे बड़ा अभिशाप है. पाकीजा इस अभिशाप से भला कैसे बच सकती थी? इसी का कारण था कि पाकीजा जैसे ही अपने घर से बाहर निकलती, तमाम वहशी नज़रें उसका पीछा करना शुरू कर देतीं. फिर दूर-दूर तक, चेहरे बदलते, गर्दनें बदलतीं मगर नज़रें नहीं बदलतीं.! ये नज़रें तब तक उसका पीछा करती थी जब तक कि वो फिर से घूमकर वापस घर की चारदीवारी में आकर बंद ना हो जाती.
ये रोज का सिलसिला था. इस रोज-रोज के दौर से परेशां होकर एक दिन पाकीजा ने एक गंभीर कदम उठा ही लिया, उसने अपने ही हाथों तेजाब से अपना चेहरा जला लिया. उसने सोचा कि अब वो सुंदर नहीं रहेगी, तो नज़रें उसका पीछा भी नहीं करेंगी.
मगर अफ़सोस!!!  ऐसा कुछ नहीं हुआ, नज़रों ने उसका पीछा करना नहीं छोडा, क्यूंकि वो अभी भी एक लड़की है. हाँ एक नयी बात जरूर हो गयी है कि अब कुछ हाथ भी सहानुभूति के नाम पर उसकी ओर बढ़ने लगे.
अब मैं ये सोच रहा हूँ कि बचपन में नैतिक शिक्षा की किताब में पढाई जाने वाली बड़ी-बड़ी नैतिकता की बातों का क्या होगा?
मनुष्य और मानवता जैसी अवधारणाओं का क्या होगा?
और सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि 'पाकीजा' का अगला कदम क्या होगा?
क्या वो खुद को मार लेगी?
और क्या उसके मर जाने से किस्सा ख़त्म हो जायेगा?
कभी नहीं!!!
क्यूंकि ये किस्सा किसी एक 'पाकीजा' का नहीं है!! ये किस्सा उन तमाम पाकीजाओं का है जिनके पाक दामन पर हर रोज गन्दी नज़रों के छींटे पड़ते रहते हैं और हर रोज एक छोटा सा प्रश्न खडा करते हैं- "क्या होगा??"

जारी.....

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Sunday, October 17, 2010

एक अनुभव वैश्यालय का...

उन शातिर आँखों का मतलब समझते ही मैंने सौ-सौ के पांच नोट उसकी ओर बढा दिए और साथ ही अपनी 'पसंद' की ओर इशारा भी कर दिया था.
कुछ ही पलों में मैं अपने ख्वाबों की जन्नत में था. आज मैं अपने साथ के उन तमाम रईसजादों की बराबरी पर आ गया था, जिनके मुहँ से अक्सर मैं ऐसे किस्से नई-नई शब्द व्यंजनाओं के साथ सुना करता था. मेरे दिमाग में तमाम शब्द बन बिगड़ रहे थे; कल अपनी इस उपलब्धि की व्याख्या करने के लिए. हालांकि पहली बार होने के कारन मैं कहीं न कहीं थोडा असंयत सा अनुभव कर रहा था.
दरवाजे पर दस्तक होते ही जब मैंने नजरें उठाई तो अपलक निहारता ही रह गया. मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं अपनी सफलता के इतने निकट हूँ.
"फास्ट फ़ूड या मुगलई!?" अपने आप को सहज दिखाने का प्रयास करते हुए मैंने मजाकिया लहजे में कहा.
"नाम क्या है आपका?" सुस्पष्ट आवाज और सधे हुए वाक्य-विन्यास के साथ किये गए इस प्रश्न ने मुझे चौंका दिया.
"ज..जी..वो..सौरभ...सौरभ शुक्ला..."
"घबराइये मत, पहली बार आये हैं?"
"न....हाँ.."
"कहाँ रहते हैं?"
"यहीं......दिल्ली में."
"क्या करते हैं?"
"पढाई...इंजीनियरिंग...." मैं यंत्रवत सा उत्तर देता जा रहा था.
"परिवार ?"
"इलाहाबाद में, ....मम्मी-पापा."
"कितने पैसे दिए हैं बाहर?"
"पांच सौ..."
"कमाते हैं?"
"नहीं, ...पापा से लिए थे .....नोट्स के लिए..." मैंने अपराध स्वीकारोक्ति के लहजे में कहा.
अगले ही पल मेरे सामने पांच सौ का नोट रखा था. इस अप्रत्याशित घटनाक्रम से मैं स्तब्ध रह गया.
उन होंठों की जुम्बिश अभी भी जारी थी, "हम अपने ग्राहकों से ज्यादा बात नहीं करते, ना ही हमें उनकी निजी जिंदगी में कोई दिलचस्पी होती है, फिर भी आप से दुआ कर रहे हैं, बचे रहिये इस जगह से. हमारी तो मजबूरी है, हमारी तो दुनिया ही यहीं है. पर आपके सामने पूरी दुनिया है. परिवार है. परिवार के सपने हैं, उन्हें पूरा कीजिये..
वैसे हम सिर्फ कह सकते हैं....आगे आपकी मर्जी..जब तक आप यहाँ हैं, हम आपकी खरीदी हुई चीज़ हैं..आप जो चाहे कर सकते हैं.."
मैं चुपचाप नजरें नीचे किये चलने को हुआ.
"पैसे उठा लीजिये, हमें लगेगा हमारी नापाक कमाई किसी पाक काम में इस्तेमाल हो गयी. वैसे थोडी देर रुक कर जाइए, ताकि हमें बाहर जवाब ना देना पड़े..!"
मैं रुक गया और थोडी देर बाद पैसे लेकर बाहर आ गया, लेकिन अपनी नम आँखों से मैंने अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर दी थी. मेरे जीवन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आ चुका था. मुझे लगा शायद मैं ईश्वर से साक्षात्कार करके लौटा हूँ.
खैर जो भी था अच्छा था.
सच ही तो है, कहीं भी सब कुछ बुरा नहीं होता.

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद


Saturday, October 16, 2010

क्यूँ ???



क्यूँ बाजी हर बार मेरे
हाथों से फिसल जाती है।  
क्यूँ जीवन की हर खुशियाँ 
जीवन को छल जाती हैं।।
क्यूँ खोता हूँ हर पल 
मैं ही यकीन अपनों का।
क्यों कर जाता है हर कोई 
क़त्ल मेरे सपनो का।।
क्यों नहीं समझती है दुनिया 
मेरे दिल के जज्बातों को ।
क्यूँ तरसा देती है दुनिया 
प्यार भरी दो बातों को।।
क्या यही जिंदगी है और 
बस रोते रहना जीवन है।
क्या झूठी-सच्ची रस्मों में 
बहते रहना जीवन है।।
काश कोई तो जीवन को 
एक नई परिभाषा दे।
काश कोई तो जीवन को 
प्रीत भरी इक भाषा दे।।
काश सुनहरी धरती हो, 
हँसता नीला आकाश बने।
काश कहीं दिल के कोने में 
फिर से वो विश्वास बने।।

-अमित तिवारी 
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Friday, October 15, 2010

आज तीन दिन के बाद...



यहाँ का हर फूल गूंगा क्यूँ है?
मेरी अंगूठी में उदास मूंगा क्यूँ है?
वो पंछी क्यूँ रो रहा है?
उसके दिल में क्या हो रहा है?
दाना- लाना- चुगना- खाना
और फिर रात के होने का इंतजार
यह सब कुछ पहले कभी नहीं सोचा..
जो सोचा आज तीन दिन के बाद..

सांझ में इतनी उदासी क्यूँ है?
हर सुबह इतनी बासी क्यों है?
दिन ढलना, सांझ होना,
बेवजह हँसना, बेवजह रोना.
यह सब कुछ पहले कभी नहीं सोचा..
जो सोचा आज तीन दिन के बाद..

अहा! खारे पानी की वो मिठास
सख्त दाढ़ी की छुवन का वो एहसास
मैंने कभी समन्दर नहीं देखा..
कभी उस दिल को छूकर नहीं देखा
ये सब कुछ मैंने पहले तो कभी नहीं सोचा
जो सोचा है मैंने आज तीन दिन के बाद

हाँ मैंने सोचा है ये सब आज...
जब सुनी है पिता की आवाज
आज तीन दिन के बाद.......

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद


जाने क्यों सच कभी-कभी

जाने क्यों सच कभी-कभी 
कमजोर सा मालुम होता है।
मन मेरा भी कभी-कभी 
इक चोर सा मालुम होता है।।

शब्द शिकायत करते हैं,
कि अर्थ समझ से बाहर है।
कहते हैं जब लब कुछ तो, 
कुछ और सा मालुम होता है।।

जब बोलूं सावन- तो दिल 
सूखी लकड़ी सा लगता है।
पतझर में गम के फूलों 
में जोर सा मालुम होता है।।

जब चाहा बोलूं कुछ तो 
सब चुप-चुप सा लगता है।
जब चुप बैठूं तो दिल में 
इक शोर सा मालुम होता है।।

'संघर्ष' वफाएं करते रहे, 
रिश्तों से, रिश्ते छूट गए।
जब छोड़ चला रिश्ते, रिश्तों में 
भोर सा मालुम होता है।।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Wednesday, October 13, 2010

आज फिर कुछ लिखने की रुत आई है...


आज फिर कुछ लिखने की रुत आई है,
आज फिर से ख्वाबों में तन्हाई है।
रिश्तों के तार फिर ख़ामोशी से गुनगुनाये,
दर्द के पोरों से कुछ गम मुस्कुराए।
कुछ नए ज़ज्बात, कुछ पल हैं नए,
कुछ पुराने साज दिल ने फिर सजाये।।
फिर बजी वो यादों की शहनाई है,
आज फिर से ख्वाबों में तन्हाई है। 


फिर वही पल हैं सुनहरे याद आये,
फिर वही सपने हैं पलकों में सजाये।
फिर वही हँसना-मनाना-रूठ जाना,
फिर वही निष्काम चंचल सी अदाएं।।
आज फिर से दिल ने वही नज़्म गाई है,
आज फिर से ख्वाबों में तन्हाई है।

फिर वही हलचल पुरानी, पल नए हैं,
हैं पुराने आज, लेकिन कल नए हैं।
फिर कोई इतना क्यों दिल पे छाया-छाया,
फिर वही खुशबू, मगर संदल नए हैं।।
आज फिर साँसे गुलाबी रंग लाई हैं,
आज फिर से ख्वाबों में तन्हाई है।



-अमित तिवारी 
समाचार संपादक
निर्माण संवाद


Tuesday, October 12, 2010

यूज एंड थ्रो नहीं, सात जन्‍मों का सम्‍बन्‍ध

सभ्यता संकट में है. मानवीय सभ्यता ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण चराचर जगत ही खतरे में है. मानव के लिए मानव का मूल्य शून्य हो गया है. सभी 'वाद' पिट चुके हैं. बात चाहे 'मार्क्सवाद' की हो या 'पूंजीवाद' या 'साम्यवाद' की. किसी भी 'वाद' में जनाकर्षण नहीं शेष है. कोई भी 'वाद' समस्या का हल करता नहीं दिखता है.
कारण स्पष्ट है कि किसी  भी 'वाद' में 'जीवन-मूल्य' की चर्चा नहीं है. हर जगह 'जन-नायक'और 'लोक-नायक' की बात है. लेकिन यह मानवी सभ्यता किसी 'जन-नायक' या लोक-नायक' की नहीं वरन एक 'मित्र-नायक' की प्रतीक्षा में है. अब 'सुपर-पॉवर' नहीं 'सुपर पर्सन' की जरूरत है. वही 'मित्र-नायक' ही 'युग-नायक' बनेगा जिसके अन्दर विश्व से मैत्री और विश्वनाथ से प्रीति का भाव भरा होगा. विश्व भर में व्याप्त हिंसा का निवारण मैत्री और करुणा के भाव से ही हो सकता है. 'वसुधैव कुटुम्बकम' का ध्येय वाक्य हमें विश्व को बाज़ार नहीं वरन परिवार मानना सिखाता है.
हम बाज़ार नहीं बाजारवाद के विरोधी हैं. हमारी संस्कृति ने भी बाज़ार का समर्थन किया है. लाभ की बात हमने भी की है, लेकिन हमने 'शुभ-लाभ' की बात की है. हमारा लाभ भी शुभ से नियंत्रित है. 'लाभालाभ' की संस्कृति नहीं है हमारी. 'जो कमायेगा, वो खायेगा' की संस्कृति से विश्व का कल्याण संभव नहीं है. 'जो कमाएगा, वो खिलायेगा' की संस्कृति को जागृत करना होगा हर मन में. 'जियो और जीने दो' ही नहीं बल्कि 'जियो और जीने की प्रेरणा दो' सीखने की जरूरत है.
बढ़ते उपभोक्तावाद से उत्पन्न हुई समस्यायों का हल उपभोक्तावादी तरीकों से नहीं किया जा सकता है. पेड़ की पत्तियां छांटने की नहीं वरन समस्या को मूल से उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है. आतंकवादी को मारने से आतंकवाद नहीं मरता है. 'बुरा व्यक्ति' हो या बुरे व्यक्ति का विरोधी, दोनों के अस्तित्व के लिए बुराई जरूरी है. बात चाहे 'सीआईए' की हो या 'आई एस आई' की, आतंकवाद दोनों की जरूरत है.
विषमता और गैरबराबरी को मिटाए बिना समस्यायों से नहीं लड़ा जा सकता है. बिना किसी 'भागवत व्यक्तित्व' के किसी 'वैश्विक नेतृत्व' की कल्पना बेमानी है. 'बुद्ध' चाहे भारत में हों या अमेरिका में, ऐसा नेतृत्व जिसके भीतर मैत्री, प्रीति और करुणा का भाव भरा होगा, जो संपूर्ण चर-अचर से एकात्म स्थापित कर सकता है, वही इस विश्व को बचा सकेगा. ऐसे किसी भी व्यक्तित्व के लिए एक मात्र मार्ग 'सम्बन्धवाद' ही है. सम्बन्ध-धर्म ही तमाम प्रश्नों का उत्तर बन सकता है.
आज विश्व को 'यूज एंड थ्रो' की नहीं 'सात जन्मो के सम्बन्ध' की दरकार है. तभी यह खुबसूरत दुनिया जीने के लायक बनी रह पायेगी.

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे..



शायद कम ही लोग जानते 1990 के दशक में गढ़वाल विश्वविद्यालय में हरक सिंह रावत शिक्षक रहते ही राजनीति को अपना पेशा बना चुके थे। तब कवि और पत्रकार आज के  मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक व विपक्ष के नेता हरक सिंह रावत में घनिष्ट दोस्ती होने के कारण कभी -कभी तो यह बात भाजपा और कांग्रेस के भीतर खुसफुसाहट के रुप में कही जाती थी कि उनके और मुख्यमंत्री के बीच कोई गुप्त संधि तो नहीं हैं। राजनीति
 में पुरानी बातो को खूब उछाला जाता है।  हरक सिंह रावत स्कूटर के आगे और उनके पीछे की सीट पर आज के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक हुआ करते थे। लेकिन वक्त ने करवट बदली और उनके स्कूटरिया यार निशंक को भाजपा आलाकमान ने उत्तराखंड को चलाने का जिम्मा सौंप दिया। हरक सिंह के पास विधानसभा के भीतर कांग्रेस को चलाने का भार है। स्कूटर वाली दोस्ती कायम है। इसे कहते हैं सच्ची दोस्ती! सीटें बदल गईं पर दोस्ती नहीं बदली। प्रदेश हैरान है। पौड़ी विधानसभा क्षेत्र से राजनीति शुरु करने वाले हरक सिंह रावत राजनीति के उस्ताद माने जाते हैं। पहले मनोहर कांत ध्यानी फिर बीसी खंडूड़ी की उंगली थाम कर भाजपा की राजनीति में ऐसे जमे कि भाजपा के भीतर कईयों को उनसे खतरा महसूस होने लगा। बीजेपी की नई पीढ़ी के नेताओं में उन्होने सबको पीछे छोड़ दिया। उनकी महत्वाकांक्षाओं को भांप रहे नेताओं ने उन्हे भाजपा से बाहर करवा दिया।भाजपा से निकलकर उन्होने सतपाल महाराज की उंगली थामी और 1996 के लोकसभा चुनाव में उनकी सोशल इंजीनियरी और चुनावी तिकड़मों ने मिलकर भाजपा के जनरल को चित कर दिया। सतपाल महाराज को राजनीति में भी चेले चाहिए या फिर भक्त। वह खुद ही गढ़वाल में ठाकुर राजनीति के कर्णधार होना चाहते थे। हरक सिंह राजनीति में महाराज का संप्रदाय बनाने तो नहीं आए थे। वह गढ़वाल विवि की शिक्षक राजनीति के गुरुकुल में प्रशिक्षित थे। गुरु को गुड़ बनाए रखने व खुद शक्कर बन जाने की टेक्नोलॉजी में दक्ष हरक सिंह सतपाल के कंधे पर सवार होकर राजनीति में लंबी छलांग मारने को आतुर थे। लिहाजा ठाकुर क़ी यह हिट जोड़ी भी टूट गई। हरक सिंह बसपा में गए और वहां भी उन्होने अपना लोहा मनवाया। एक दशक से ज्यादा समय तक राजनीति में घुमक्कड़ की तरह इधर उधर आते जाते रहे हरक फिर कांग्रेस में पहुंचे तो वहां उन्होने डेरा जमा लिया।अदम्य महत्वाकांक्षा और दबंग राजनीति हरक की राजनीति की बुनियादी ताकत है। अपने समर्थकों के लिए किसी से भी भिड़ जाने की उनकी खासियत से ही उनके पास कुछ कर गुजरने वाले समर्थकों की पल्टन है। राजनीति की यह खासियत ही उनकी सीमा भी है।उनके विरोधी भी उतने ही कट्टर हैं जो किसी भी कीमत पर उन्हे आगे नहीं आने देना चाहते। इसीलिए विवादों से उनका पुराना नाता रहा है। पटवारी भर्ती कांड, जेनी कांड समेत कई विवादों से घिरे हरक अब भूमि घोटाले में घिर गए हैं। मुख्यमंत्री के सबसे तगड़े दावेदार माने जा रहे हरक सिंह रावत को दौड़ से बाहर करने के लिए इसे उछाला जा सकता है ।

-सुदर्शन सिंह रावत

जीती जा सकती है जंग भूख से ..

जब भारत जैसे देश को चावल - चीनी का आयात करने की आवश्यकता पड़ जाये। जब एक कृषिप्रधान देश में आत्महत्या करने वाले किसानों का आंकड़ा बढ़कर लाखों में पहुँच जाये। जब एकओर बुंदेलखंड जैसे तमाम हिस्सों में भुखमरी का दौर चल रहा हो और दूसरी जगह कहा जाए कि यह हमारी सामयिक समस्यायें हैं जिन्हें सुलझा लिया जायेगा। क्या स्थिति इतनी ही सहज औरसरल है?
किसानों की आत्महत्या का क्रम बरकरार है। खेती किसान के लिए घाटे का सौदा बन रही है। वह खेती करता है, क्योंकि वह कुछ और नहीं कर सकता है। वह जिन्दा है, क्योंकि मरा नहीं है। किसान उत्पाद का वाज़िब दाम न मिलने के कारण बदहाल है और सामान्य निम्नवर्गीय जनसंख्या खाद्यान्नों के बढ़ते मूल्यों के चलते भुखमरी के कगार पर खड़ी है। खेती बिचौलियों के लिए लाभ का माध्यम बन गयी है। उच्चवर्ग तमाम प्रश्नों और समस्याओं से बेखबर। एक ओर सकल घरेलु उत्पाद में कृषि का कम होता योगदान और दूसरी ओर
भुखमरी की विकराल होती समस्या। हाल ही में आई अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत भुखमरी के मामले में 67वें स्‍थान पर है। आईएफपीआरआई और जर्मनी के कंसर्न वर्ल्डवाइड एंड वेल्टहंगरहिल्फे (सीडब्ल्यूडब्ल्यू) के संयुक्‍त तत्‍वावधान में जारी इस रिपोर्ट में 84 देशों की सूची है, जिनमें चीन 9वें, श्रीलंका 39वें और पाकिस्तान 52 वें स्थान पर हैं। इस सूची में देशों में शिशु मृत्यु दर, कुपोषण और भरपेट भोजन न पाने वालों की आबादी को आधार बनाया गया है।
समस्या सिर्फ भारत की नहीं है। भूख एक वैश्विक प्रश्न बन गया है। सयुंक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रम ने अपनी एक रिपोर्ट में वर्तमान वैश्विक खाद्य समस्या को भूख की एक शान्त सुनामी का नाम दिया है। रिपार्ट के अनुसार खाद्य समस्या के कारण लगभग 40 मीलियन लोगों को अपना भोजन कम करना पड़ रहा है तथा विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग छठवां हिस्सा भुखमरी की चपेट में है।
तीसरी दुनिया के तमाम देश भुखमरी की हृदय विदारक स्थिति में जीने के लिए अभिशप्त हैं।
जहां एक ओर दुनिया की लगभग 17 फीसदी आबादी भूखी है, वहीं दूसरी ओर पर्यावरण की समस्या-समाधान के नाम पर चीन आदि विकसित अर्थव्यवस्था वाले देश जैव ईधन का शिगूफा छेड़े हुए हैं। गरीब देशों की आबादी भूखी सोने के लिए विवश है और अमीर देशों की जमात अपने आराम के लिए जैव ईंधन के उत्पाद के लिए लाखों टन खाद्यान्न को जला डाल रही है। रोज लाखों टन मक्के का इस्तेमाल जैव ईंधन बनाने के लिए किया जा रहा है।
यह तस्वीर आखिर क्या बयान करती है। यही नहीं तस्वीर के और भी रुख हैं। भारत के प्रख्यात रिसर्चर और लेखक देवेन्द्र शर्मा ने एक बातचीत के दरम्यान स्थिति को स्पष्ट करते हुए तस्वीर के ऐसे ही एक रुख की ओर इशारा किया था। इस सत्य को स्वीकार किया जाना चाहिए कि विश्व में किसी भी प्रकार से अनाज की कमी नहीं है। एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व की कुल आबादी 6.7 अरब है, जबकि विश्व में कुल मिलाकर लगभग 11.5 अरब लोगों की जरूरत का अनाज पैदा हो रहा है। सच यह है कि विश्व का एक भाग अधिक खाद्यान्न का इस्तेमाल कर रहा है, यहां तक की खाद्यान्न का इस्तेमाल जैव ईंधन तक बनाने में कर रहा है, जबकि दूसरी ओर एक बड़ा हिस्सा खाद्यान्न की कमी से जूझ रहा है। कमी खाद्यान्न की नहीं है बल्कि वितरण प्रणाली में कमी है। खाद्यान्न का विश्व में सही वितरण नहीं है। वैश्विक भुखमरी की समस्या से लड़ रहे तमाम वैश्विक संगठनों को यह सत्य स्वीकार करना होगा। खाद्यान्न वितरण पर कारपोरेट जगत तथा उच्च वर्ग के नियंत्रण को कम कर करके यदि खाद्यान्नों का पूरे विश्व में सही वितरण किया जाये तो भूख से यह जंग जीती जा सकती है।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

हमें आदत नहीं है ...


गुबारों-गर्द चलने की
हमें आदत नहीं है,
गेसुओं पर मचलने की
हमें आदत नहीं है।
हम पत्थर के बुत हैं,
ढल गए जैसा हमें ढाला,
वक़्त-बेवक्त ढलने की
हमें आदत नहीं है।
आगोश-ए-आइनों में ही
रहते हैं हम हर पल,
गाह-चेहरा बदलने की
हमें आदत नहीं है।
हम, गिर-गिर के जो संभले
नहीं उनमे से दुनिया,
गिरने लायक संभलने की
हमें आदत नहीं है।
थे जो हमदर्द, उनसे ही
बहुत से दर्द खाए हैं,
दर्द से दिल दहलने की
हमें आदत नहीं है।
नहीं 'संघर्ष' इस दुनिया
से कोई चाह हमको,
चाह में गम के जलने की
हमें आदत नहीं है।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Friday, October 8, 2010

आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी !

चियर्स कह देने से लोग खुश हो सकते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कि हैप्पी गांधी जयंती कह देने से गांधी जयंती भी हैप्पी हो जाती है. कामनवेल्थ खेलों की व्यवस्था में तमाम खामियों के बाद भी गांधी जयंती काफी हैप्पी हो गयी थी. क्यूंकि देर शाम खुद गृहमंत्री ने यह सुनिश्चित किया कि कामनवेल्थ खेलों के आयोजन की सुरक्षा में कोई कमी न रह जाए. पुलिस/पैरा मिलिट्री के लगभग एक लाख जवान और विशेष कमाण्डो इन खेलों की सुरक्षा में लगाये गए हैं. पूरी दिल्ली-एनसीआर को बंधक बना लिया गया. 'गणतंत्र' का वो 'गण' जो इस राजधानी के लिए किसी आतंकवादी खतरे से भी अधिक इसकी शानो शौकत पर धब्बा थे, उन्हें या तो शहर से निकाल दिया गया है या फिर कहीं छिपा दिया गया है. एक लाख रेहड़ी पटरीवालों को पखवारे भर के लिए गायब कर दिया गया है. दिल्ली के सभी सरकारी स्कूलों को भी पंद्रह दिन के लिए बंद कर दिया गया ताकि खेलों के आयोजन में बच्चे कहीं से बाधक न बने.
अब भला इससे बड़ी विडंबना और बेशर्मी क्या होगी कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र ब्रिटेन के गुलाम रहे दुनिया के 54 देशों के खेल का बढ़-चढ़ कर आयोजन करे. हमें ज्ञात होना चाहिए कि 1930 में ब्रिटेन के गुलाम नौ देशों के साथ शुरू हुआ ‘ब्रिटिश एंपायर गेम’, ‘ब्रिटिश एंपायर कॉमनवेल्थ गेम्स’ से होता हुआ आज ‘कॉमनवेल्थ गेम्स’ बन गया है. और आज भी गुलामी जिंदाबाद. होना तो ये चाहिए था कि लगभग 200 साल तक ब्रिटेन के गुलाम रहे ‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ भारत की राष्ट्रपति को इसके उदघाटन समारोह में ही इसका उल्लेख करना चाहिए था और ‘ कॉमनवेल्थ गेम्स’ के आयोजन को खत्म करने या अगले गेम से भारत को अलग करने की घोषणा करनी चाहिए थी.
लेकिन जैसा कि ना होना था ना हुआ, और खेल शुरू कर दिए गए. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और सच्चे देशप्रेमी लालबहादुर शास्त्री की पैदाइश के ठीक अगले दिन ब्रिटिश उपनिवेशवाद के गुलाम 54 देशों के कॉमनवेल्थ गेम्स का गांधी के ही देश के रहनुमाओं के द्वारा भव्यता से आयोजन करने पर हर सच्चे हिंदुस्तानियों को शर्म आई होगी.
क्या ऐसा नहीं लगता कि ब्रिटेन के गुलाम रहे हिंदुस्तान की सरजमीन पर कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन स्वाधीनता आंदोलन में शहीद हुए हजारों स्वाधीनता सेनानियों का अपमान है। क्या आजादी के महज छह दशक बाद ही हम अपने स्वाधीनता सेनानियों को भूल रहे हैं?
राष्ट्रीय शर्म को राष्ट्रीय गौरव के साथ जोड़ दिया गया. यही कारण था कि दिल्ली से दूर बैठे लोगों ने टेलीविजन चैनलों पर जब उदघाटन का रंगारंग कार्यक्रम देखा होगा तो उनका राष्ट्रीय स्वाभिमान निश्चित रूप से बल्लियों उछल गया होगा. लेकिन वो इस बात से बेखबर हैं कि जल्द ही ये बल्लियां दिल्ली में रहनेवाले लोगों के सिर पर डंडे बनकर बरसेंगी. अभी यह बात नहीं करते हैं कि जब खेलों का आयोजन खत्म हो जाएगा तो दिल्ली वालों को आनेवाले कितने दशकों तक इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी बल्कि तात्कालिक तौर पर भी वे कीमत चुका ही रहे हैं. दिल्ली में अत्यावश्यक पदार्थों की सप्लाई भी बाधित कर दी गयी है क्योंकि खाने, पीने और जीने के अधिकांश सामान ट्रकों में भरकर सड़कों के रास्ते दिल्ली पहुंचते हैं और दिल्ली सरकार को सड़कों पर ट्रकों की भीड़ नहीं चाहिए इसलिए उसने औद्योगिक गतिविधियों को तो ठप कर ही दिया है ट्रकों के प्रवेश पर भी अधिकांश रोक लगा दिया है. सब्जियों के भाव भी पचास साठ रूपये किलो है. दिल्लीवालों का दिल टटोलिए, सिवाय कोफ्त के और कुछ नहीं निकलेगा.
लोग कष्ट भुगतें तो भुगते. गलती उनकी है. सरकार के लाखों बार कहने के बाद भी आखिरकार शेष दिल्लीवालों ने खेलों में हिस्सेदारी क्यों नहीं की? दिल्ली पुलिस की सावधान करती चेतावनियां भी जारी हो रही हैं. इन सड़कों पर आधी रात तक न जाएं और इस सड़क को आधे दिन के लिए इस्तेमाल न करें. आधी रात और आधे दिन का भेद रख पाना हर ज्ञानी पुरुष के लिए शायद संभव नहीं होगा इसलिए वह पूरे दिन का ही बचाव करने में अपनी भलाई समझ रहा है.
इन सब के बीच सबसे बड़ा परिवर्तन मीडिया के चरित्र में देखने को मिला. जो खेल शुरू होने के दो दिन पहले तक बेड टूटने और सांप निकलने के किस्से बता रहे थे, रातों-रात उन्हें चमत्कार के दर्शन हो गए. अगले ही दिन से उन्होंने हमें बता दिया कि ऐसा खेलगांव तो कहीं बना ही नहीं है. सरकारी उत्साह भी चरम पर दिखा. चिदम्बरम ने लुंगी शर्ट छोड़ टी शर्ट और पैण्ट पहन लिया. शीला दीक्षित की सीटियां रूकने का नाम नहीं ले रहीं. मनमोहन सिंह आदत के अनुसार पूरे खेलों के दौरान मुस्कुराते ही रहेंगे.
यही नहीं इन्कम टैक्स विभाग ने भी पूरे उत्साह के साथ आधे आधे पेज का विज्ञापन देकर कामनवेल्थ खेलों को अपनी शुभकामनाएं दी. क्यों? आप भी सोचिए, दिल्ली वाले तो अगले दस बीस सालों तक इस शुभकामना की कीमत चुकाएंगे ही.
गुलामी की परंपरा निभाते हुए सब कुछ होता रहा. प्रिंस ऑफ वेल्स चा‌र्ल्स ने औपचारिक संदेश पढ़ा और राष्ट्रपति प्रतिभा देवी पाटिल ने कहा 'अब खेल शुरू हों.., और खेल शुरू हो गया. अब भले ही इन बातों को बेमानी कर दिया गया है कि "राष्ट्रों का ये मंडल" पूर्व गुलामों का संगठन है जो खेल के इस महा-उत्सव के जरिये महारानी को शुक्रिया अदा करते हैं। लेकिन एक जमाने में इस पर खूब बात होती थी। 1960 के आसपास हिंदी के श्रेष्ठ कवि नागार्जुन ने महारानी के आगमन को लेकर एक चर्चित कविता लिखी थी।
बाबा नागार्जुन की उस कविता की पंक्तियाँ भी आज हंस उठी हैं ये सब देखकर..

आओ रानी हम ढोएंगे पालकी
यही हुई है राय जवाहरलाल की
रफू करेंगे फटे-पुराने जाल की
यही हुई है राय जवाहरलाल की
आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी !

आओ शाही बैंड बजाएं,
आओ वंदनवार सजाएं,
खुशियों में डूबे उतराएं,
आओ तुमको सैर कराएं
उटकमंड की, शिमला-नैनीताल की
आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी

तुम मुस्कान लुटाती आओ,
तुम वरदान लुटाती जाओ,
आओ जी चांदी के पथ पर,
आओ जी कंचन के रथ पर,
नज़र बिछी है, एक-एक दिक्पाल की
छ्टा दिखाओ गति की लय की ताल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !

सैनिक तुम्हें सलामी देंगे,
लोग-बाग बलि-बलि जाएंगे,
दृग-दृग में खुशियां छलकेंगी
ओसों में दूबें झलकेंगी
प्रणति मिलेगी नये राष्ट्र की भाल की
आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी !

बेबस-बेसुध सूखे-रुखड़े,
हम ठहरे तिनकों के टुकड़े
टहनी हो तुम भारी भरकम डाल की
खोज खबर लो अपने भक्तों के खास महाल की !
लो कपूर की लपट
आरती लो सोने की थाल की
आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी !

भूखी भारत माता के सूखे हाथों को चूम लो
प्रेसिडेंट के लंच-डिनर में स्वाद बदल लो, झूम लो
पद्म भूषणों, भारत-रत्नों से उनके उदगार लो
पार्लमेंट के प्रतिनिधियों से आदर लो, सत्कार लो

मिनिस्टरों से शेक हैंड लो, जनता से जयकार लो
दायें-बायें खड़े हजारी आफिसरों से प्यार लो
होठों को कंपित कर लो, रह-रह के कनखी मार लो
बिजली की यह दीपमालिका फिर-फिर इसे निहार लो

यह तो नयी-नयी दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो
एक बात कह दूं मलका, थोड़ी सी लाज उधार लो
बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो

जय ब्रिटेन की, जय हो इस कलिकाल की !
आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी!
रफू करेंगे फटे-पुराने जाल की !
यही हुई है राय जवाहरलाल की !
आओ रानी हम ढोएंगे पालकी !

कुल जमा अगर जोड़ा जाए तो जब से मेजबानी मिली है तब से खेलगांव बनाने और दिल्ली को सजाने के नाम पर दिल्ली और देश ने करीब 80 हजार करोड़ रुपये खर्च कर दिये हैं. शायद इसलिए कि भारत का नया उभरता मध्यवर्ग और उनके नौनिहाल दुनिया के मानचित्र पर टहलें तो कह सकें कि सबसे आगे होते हैं हिन्दुस्तानी. लेकिन ये हिन्दुस्तानी किस कीमत पर आगे होने की कोशिश कर रहे हैं, इसकी विवेचना की इजाजत नहीं है हमें. वैसे भी शीला दीक्षित हमें बता ही चुकी हैं कि खेलों के आयोजन के बाद दिल्ली में जो सुविधाएं निर्मित की गयी है उसका उपयोग तो दिल्लीवाले ही करेंगे. इसलिए धैर्य रखें और खेलों को सफल बनाने में सहयोग करें.
बेहतर है कि दिल्ली वाले इस जूठन का शांति से इंतजार करें. सदिच्छा से इनके खेलों के सफल होने की दुआ करें. पिछले दो-तीन दिन से अखबार तो हर रोज आपको सोना और सोने पे सुहागा की खबरें दे ही रहे हैं. सोने की चमक से खुश रहिये. अभी अघोषित आपातकाल का दौर है. बीत जायेगा. खेलों में हिस्सा लेने वाले चले जायेंगे. अपना-अपना सोना-चांदी समेटे सब अपने ठिकाने होंगे. सब धीरे-धीरे और खेलों में जीतने-हरने के सिलसिले में लग जायेंगे. तब फिर वैसे भी दिल्ली वालों को अकेले ही याद करना होगा इन खेलों को.
भूल तो सकते नहीं. जब-जब 'महंगाई डायन' खाएगी, तब-तब इस 'गुलामी डायन' की याद आएगी. जिन घरों में इन दिनों में दोनों जून की रोटी नसीब नहीं हो पा रही होगी.. वो अगले कई महीनो तक हर रोटी के टुकड़े के साथ इस आपातकाल को याद करेंगे. जब-जब टेक्स की बढ़ी हुई दरें सामने आएँगी 'आयकर विभाग' का शुभकामना सन्देश याद आयेगा.
तब तक इस अघोषित आपातकाल की जय हो......

Wednesday, October 6, 2010

'चर्चा-घर' में चर्चा करें ...

सम्माननीय पाठकों 'पुनर्जन्म' ब्लॉग पर आज से 'चर्चा-घर' को जोड़ा गया है.
'चर्चा-घर'  'पुनर्जन्म' ब्लॉग पर आने वाले पाठकों के बीच बातचीत का एक माध्यम है.
इसके माध्यम से पाठक एक दूसरे से सीधे संवाद स्थापित कर सकेंगे. यह ब्लॉग पर छपे किसी भी विषय पर चर्चा करने के लिए एक आसान तरीका होगा.
लेकिन चर्चा-घर में Login करने को लेकर पाठकों को कुछ समस्या का सामना करना पड़ा है.
जैसा कि तस्वीर में दिख रहा है, sign in के नीचे chatroll , facebook , guest लिखा है. आप guest या facebook से login कर सकते हैं. कभी कभी guest पर क्लिक करने पर उसके नीचे लिखे site के लिंक पर क्लिक हो जाता है. इस असुविधा के लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं. थोडा सा ध्यान से क्लिक करने पर यह असुविधा नहीं होगी. और login के बाद आप चर्चा-घर में लिख सकते हैं.

facebook पर क्लिक करने पर आपको अपनी facebook id से login करना होगा. login करने के बाद जैसे ही popup विंडो बंद हो जाए, पुनः facebook पर क्लिक कर लीजिये. ऐसा करते ही आप चर्चा-घर में लिख सकेंगे. जो कि हर ऑनलाइन पाठक को दिखाई देगा.
'चर्चा-घर' में facebook से login करने पर एक recommend करने का विकल्प भी दिखाई देगा, कृपया उसे recommend करके, share this विकल्प का भी चयन कर लें.. ऐसा करने से 'चर्चा-घर' का लिंक आपके facebook wall पर भी दिखाई देगा.

पाठकों से अनुरोध है कि 'चर्चा-घर' के अतिरिक्त भी किसी post पर आपकी टिप्पणियां अवश्य प्रार्थनीय हैं.
आपकी टिप्पणियां हमारे उत्साह को बढाती हैं.

धन्यवाद...
-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद
('पुनर्जन्म' ब्लॉग मोडरेटर)

लहरों ने पुकारा...

मत छोड़ तू पतवार, लहरों ने पुकारा.
मत तीर पर रुक यार, लहरों ने पुकारा..


क्या कहें कि स्वप्न सब साकार हैं.!
टल गया सर से व्यथा का भार है.!
क्या कहें कि सूर्य पहुंचा हर तिमिर में.!
क्या कहें कि मिट गया अंधियार है.!
कर स्वप्न सब साकार, लहरों ने पुकारा... 
मत तीर पर रुक यार....


क्या फूल अब बेख़ौफ़ होकर बोलते हैं ?
क्या महक हर सांस में लब घोलते हैं ?
क्या कहीं कोई कली टूटी नहीं ?
क्या दर्द में अब भी सभी दिल डोलते हैं ?
है प्रश्न का अम्बार, लहरों ने पुकारा... 
मत तीर पर रुक यार.....


क्या कहीं कश्ती कोई डूबी नहीं है ?
आग में बस्ती कोई डूबी नहीं है ?
क्या कहीं कोई सिसकता शव नहीं है ?
ममता कहीं सस्ती कोई डूबी नहीं है ?
करनी है कश्ती पार, लहरों ने पुकारा...
मत तीर पर रुक यार...


क्या चिता सीता की ठंडी हो गयी है ?
कृष्ण की गीता भी शायद सो गयी है.!
आज हर मीरा लिए विष-प्याल बैठी,
बांसुरी क्यों श्याम की चुप हो गयी है ?
कर प्रश्न हर निस्तार, लहरों ने पुकारा...
मत तीर पर रुक यार....


द्रौपदी फिर दांव में खेली गयी है.!
हर गली हर गाँव में खेली गयी है.!
अब मुझे ही चीर उसका है बढ़ाना.!
यह शपथ उर में मेरे ले ली गयी है.!
कर चेतना संचार, लहरों ने पुकारा..
मत तीर पर रुक यार....


है लहू सब ओर, कैसे मैं अधर का पान कर लूं ?
है तिमिर घनघोर, कैसे प्रेमिका बांहों में भर लूं. ?
कैसे करूं मैं प्रेमलीला, छोड़कर कर्त्तव्य सारे.!
शबनमी बूंदों में कैसे मैं निखर लूं.?
लक्ष्य है मझधार लहरों ने पुकारा
मत तीर पर रुक यार....


-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद
(तस्वीर गूगल सर्च से साभार)

Tuesday, October 5, 2010

काली सुबह लिखूं... उजाली रात पर लिखूं...

हालात पर लिखूं या ज़ज्बात पर लिखूं
दुनिया के वाहियात खयालात पर लिखूं
या लिखूं मैं यार-तुम और जाम की बातें,
काली सुबह लिखूं, उजाली रात पर लिखूं


या लिखू कि देश घायल सा पड़ा है,
या कहूँ कि नौजवां है नींद में,
या कि कुछ पल फिर तकूँ मैं राह में
एक नए सूरज कि इक उम्मीद में...


हीर राँझा की नयी अठखेलियाँ
फिर सीरी-फरहद का रोमांस हो,
फिर कहानी का धरातल हो नया
फिर से लिखने का नया इक चांस हो..


देश दिल धड़कन ज़माना
सब है अपना, पन बेगाना..
प्यार दिल एहसास थकता..
हर घडी विश्वास थकता..


क्या किस्सा छोडूं, कौन सी बात पर लिखूं...
काली सुबह लिखूं उजाली रात पर लिखूं...


-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद
(तस्वीर गूगल सर्च से साभार)

राह कौन सी जाऊं मैं...!!

बातें करुँ देश की, या फिर
ताजमहल बनवाऊं मैं......
होंठ गुलाबी, नयन झील,
या गीत देश के गाऊँ मैं....
यौवन भटक गया देश....
का, जाने किन सपनों में..
प्रेम-राग, सीने में आग....
राह कौन सी जाऊं मैं...!!!!

दिल कहता है, हीर ढूंढ लूं,
जुल्फों में तकदीर ढूंढ लूं..
रांझा मुझको बना दे कोई
ऐसी इक तस्वीर ढूंढ लूं...
देखे नयन ख्वाब में उस-
को, गीत उसी के गाऊँ मैं,
प्रेम राग, सीने में आग......

लेकिन लहू उबल जाता है..
हर सपना, तब जल जाता है.
जब चिता में सीता जलती है,
इन्द्र किसी को छल जाता है..
पलकों की छांवों में झूमूँ.........
या ये आग बुझाऊं मैं........!!!
प्रेम राग, सीने में आग..........

मधुमय-मधुशाल बने जीवन,
ना सुने कान कोई क्रंदन,
घुंघरू की झनक कानों में हो,
हर दिन हर पल महके चन्दन,
क्या ऐसे ही सपनों में
अपनी चिता सजाऊं मैं,
प्रेम राग, सीने में आग..

सोता यौवन, खोता बचपन,
हंसती मृत्यु, रोता जीवन,
ना देश भान, ना स्वाभिमान,
ना जग बाकी, ना जग वंदन,,
कैसे भेद मिटाऊं सारे
कैसे अलख जगाऊं मैं..
प्रेम राग, सीने में आग....


-अमित तिवारी
समाचार संपादक 
निर्माण संवाद
(तस्वीर गूगल सर्च से साभार)

Sunday, October 3, 2010

मेट्रो में महिला कोच सुखदायी नहीं...

कल के अखबारों की खबर पढ़कर बड़ी मायूसी सी छा गई मन में। भला इस दौर में जब हर जगह नर-नारी समता, समानता के नारे लगाए जा रहे हों, उस वक्त ऐसा फैसला निराशा तो होती है जानकर।
जी! मैं बात कर रहा हूं मैट्रो में रिजर्व महिला बोगी की। मैट्रो दिल्ली की लाइफ लाइन कही जा रही है। ऐसे में इस लाइफ लाइन में लाइफ पार्टनर का साथ ही ना हो तो फिर भला लाइफ ही क्या ? पार्टनर नहीं भी होता है तो लाइन के ही सहारे लाइफ तो अच्छी चल ही रही थी। ऐसे में इस मैट्रो लाइफ में भी महिला आरक्षण का सवाल....  ठीक नहीं। कंधे से कंधा मिलाकर हो, या कंधा टकराकर महिलाएं आगे तो बढ़ ही रही थी। उस सब प्रक्रिया में कई कंधों को सहारा देने का सुअवसर मिल जाता था और कई सरों को सहारे का कंधा भी। लेकिन फिर अचानक से ये खबर पढ़ कर दिल बैठ गया। कहीं यह इस प्रतिस्पर्धा भरे समाज में लड़कियों को छुई-मुई बनाने का कोई षड़यंत्र तो नहीं रचा जा रहा है मैट्रो की तरफ से। आखिर मैट्रो की धक्का मुक्की का अलग ही आनंद है। फिर इसमें अभी मुबंई की लोकल जैसा हाल भी तो नही हो पाया कि यात्री ने कुछ करना ही ना पड़े, भीड़ खुद ही चढ़ाने उतारने का काम कर देती है।
अब सब बदल जाएगा...  मैट्रो का सफर भी अब उबाऊ और थकान भरा हो जाएगा। पहले देखते ताकते सफर बीत जाता था। कभी-कभी तो एक-दो स्टेशन आगे भी निकल जाते थे देखते-देखते। टोकन का पूरा पैसा वसूल हो जाता था। पता नहीं किस से यह सुख देखा नही गया। सही कहते हैं कि लोग अपने दुख से उतने दुखी नही हैं जितना दूसरे के सुख से। पता नहीं किन बहनों ने श्रीधरन को भड़का दिया। श्रीधरन जी करें भी क्या, उन्हें तो खुद कभी मैट्रो सफर का आंनद उठाने का सुअवसर मिला नही होगा, सो कर दिया किसी ने दिमाग ख़राब उनका। भला मेट्रो में भी अलग से महिला कोच। इतना ही अत्याचार होगा तो फिर ब्लूलाइन ही क्या बुरी है।
दिल सोचकर उदास है खबर के बाद से... होगी कोई मेट्रो-वेट्रो... मेट्रो में उस सहयात्रा के बहाने कितना कुछ सीखने को मिल जाता है... प्यारी बहने सब लगातार भाइयों को सिखाती रहती हैं कि जरा सही से खड़े रहो, सीधे हो जाओ, ऐसे मत रहो, वैसे मत करो.... कितना कुछ... अब ये सब कहाँ सीखने को मिलेगा..
मेट्रो के सफर के बहाने ‘सोरी’ और ‘एक्सक्यूज मी’ के दो महामंत्र भी हमारी जुबान का हिस्सा हो गए हैं. कई बार सहायता करने की इच्छा भी हो जाती है रस्ते में चलते चलते... हालाँकि अक्सर ही ‘नो थैंक्स’ सुनकर रह जाना पड़ता है. लेकिन अब भला ये ‘महामंत्र’ कहाँ काम आयेंगे....
अब सभ्यता का मूल मंत्र ही खो जायेगा तो भला और कुछ कैसे शेष रहेगा..
श्रीधरन जी पुनर्विचार कीजिये इस फैसले पर। भावावेश में ऐसे फैसले इस लाइफ लाइन से कई के लाइफ पार्टनर जुदा कर सकती है.. कुछ तो उनकी बद्दुआओं से डरिये.....


-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद


(तस्वीर गूगल सर्च से साभार)

'ये मंदिर भी ले लो, ये मस्जिद भी ले लो.'

अब हर बात से डर लगने लगा है. हर बात मजहबी होने लगी है. क्या क्या नहीं बाँट दिया हमने. 'इश्वर अल्ला तेरो नाम' की परंपरा में जीने वाले राष्ट्र में कब हर बात ईश्वर और अल्ला के बन्दों के बीच बाँट दी गयी, पता ही नहीं लग पाया. बस पता चला तो यही कि अब सब कुछ बंट चुका है. 
हर बात का मजहबी बंटवारा कर लिया. रंगों ने अपनी तासीर नहीं बदली लेकिन इंसानों से रंग बाँट लिया. हरा है तो मुस्लिम है, केसरिया है तो हिन्दू है. फूलों ने अपनी फितरत नहीं बदली लेकिन हमने फूल बाँट लिए. गुलाब किसी उर्दू शायर के हाथ लग गया तो कमल किसी मंदिर के पुजारी के हाथ. 
क्या-क्या नहीं बाँट लिया इस इन्सान ने. दिशायें बाँट ली. पहनावा बाँट लिया. ढंग बाँट लिया. रहन-सहन बाँट लिया. और फिर एक दिन धरती और आकाश भी बाँट लिया. 
एक लकीर ने दो भाइयों को इतना अलग कर दिया. 
आज किसी को ये नहीं सोचना पड़ रहा है कि यह सब कहने के पीछे मेरा प्रयोजन क्या है. क्योंकि हर किसी को कारण पता है. और दुःख भी यही है कि अब इन सब बातों को सकारण ही कहा जाता है. कोई उन्माद उठने की तैयारी हो रही हो तभी ये बातें भी याद आती हैं. 
आज जब आप ये पढ़ रहे होंगे तो मन में अदालत के फैसले की अपनी-अपनी कल्पना होगी. 
मंदिर-मस्जिद के नाम का शोर मचाया जा रहा है. पिछले कुछ दिनों से ऐसी तैयारी की जा रही है मानो कोई युद्ध होने को है. अथाह सुरक्षा बल झोंक दिए गए हैं. अखबार और चैनल लगातार यही दिखा रहे हैं. हर तरफ स्थिति कुछ ऐसी बन रही है, कि मानो अगर कोई बलवा नहीं हुआ तो आश्चर्य की बात हो जाएगी. कुछ ना कुछ होना अवश्यम्भावी है. 
आज 30 तारीख है. दो दिन बाद ही एक अहिंसा मूर्ति का जन्मदिवस भी है, लेकिन सब भूले हुए हैं. फुर्सत नहीं है कि कुछ देर सकारात्मक चर्चा भी कर लेते. हर व्यक्ति किसी ना किसी तरफ आग्रही होकर बोल रहा है. हर अख़बार चैनल अपने-अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर मुद्दे को तूल दे रहे हैं. जब मामला न्याय का है, न्यायपालिका का है, तब फिर उसे इतना ज्यादा तूल देने का क्या औचित्य. क्या यह न्याय और न्यायपालिका की गरिमा को कम करने जैसा नहीं है. 
कुछ देर में फैसला आ जाने की संभावना है. अपेक्षा यही है हर देश वासी से कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना... 
धर्म के नाम पर धंधा करने वालों की दुकान बंद कर देने का वक़्त आ गया है. आज भी उसी तरह से अपनी जीवन चर्या में लगे रहकर हमें जवाब देना होगा इन तमाम बातों का. हमें दिखा देना होगा कि देश में शांति युद्ध के सापेक्ष में नहीं है, बल्कि यह स्वतःस्फूर्त शांति है. 

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद
(यह लेख "स्वराज खबर" के 30 सितम्बर के अंक में प्रकाशित हुआ है)
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