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Tuesday, October 19, 2010

क्या होगा? -(1)

यूं ही अचानक बैठे-बैठे मन में एक प्रश्न उठ रहा है, क्या होगा?
प्रश्न जितना छोटा है, उतना ही बड़ा इसका आयाम है. इस प्रश्न में घर, समाज, देश, दुनिया सब समाहित हो जाता है.
किस्से की शुरुआत होती है 'पाकीजा' से, एक साधारण परिवार की सुन्दर लड़की. और कभी-कभी तो लगता है कि ये जो दो शब्द हैं, 'साधारण' और 'सुन्दर' यही उसके जीवन के सबसे बुरे शब्द हैं, क्यूंकि आज की दुनिया में 'साधारण' परिवार की लड़की का 'सुन्दर' होना ही सबसे बड़ा अभिशाप है. पाकीजा इस अभिशाप से भला कैसे बच सकती थी? इसी का कारण था कि पाकीजा जैसे ही अपने घर से बाहर निकलती, तमाम वहशी नज़रें उसका पीछा करना शुरू कर देतीं. फिर दूर-दूर तक, चेहरे बदलते, गर्दनें बदलतीं मगर नज़रें नहीं बदलतीं.! ये नज़रें तब तक उसका पीछा करती थी जब तक कि वो फिर से घूमकर वापस घर की चारदीवारी में आकर बंद ना हो जाती.
ये रोज का सिलसिला था. इस रोज-रोज के दौर से परेशां होकर एक दिन पाकीजा ने एक गंभीर कदम उठा ही लिया, उसने अपने ही हाथों तेजाब से अपना चेहरा जला लिया. उसने सोचा कि अब वो सुंदर नहीं रहेगी, तो नज़रें उसका पीछा भी नहीं करेंगी.
मगर अफ़सोस!!!  ऐसा कुछ नहीं हुआ, नज़रों ने उसका पीछा करना नहीं छोडा, क्यूंकि वो अभी भी एक लड़की है. हाँ एक नयी बात जरूर हो गयी है कि अब कुछ हाथ भी सहानुभूति के नाम पर उसकी ओर बढ़ने लगे.
अब मैं ये सोच रहा हूँ कि बचपन में नैतिक शिक्षा की किताब में पढाई जाने वाली बड़ी-बड़ी नैतिकता की बातों का क्या होगा?
मनुष्य और मानवता जैसी अवधारणाओं का क्या होगा?
और सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि 'पाकीजा' का अगला कदम क्या होगा?
क्या वो खुद को मार लेगी?
और क्या उसके मर जाने से किस्सा ख़त्म हो जायेगा?
कभी नहीं!!!
क्यूंकि ये किस्सा किसी एक 'पाकीजा' का नहीं है!! ये किस्सा उन तमाम पाकीजाओं का है जिनके पाक दामन पर हर रोज गन्दी नज़रों के छींटे पड़ते रहते हैं और हर रोज एक छोटा सा प्रश्न खडा करते हैं- "क्या होगा??"

जारी.....

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

4 comments:

  1. क्या होगा?
    प्रश्न जितना छोटा है, उतना ही बड़ा इसका आयाम है. इस प्रश्न में घर, समाज, देश, दुनिया सब समाहित हो जाता है.

    सच..
    छोटा लेकिन गंभीर प्रश्‍न।
    वैसे आगे की कहानी का इन्‍तजार है।
    पाकीजा ने किया क्‍या ?

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  2. amit jee pakija ko itne sansanikhej aur gande tarike se likhne ki kya jarurat thi. Aap se is tarah ki umeed nahi thi...

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  3. @Bhor- जी... अगर आपको सही नहीं लगा तो निश्चय ही हम क्षमाप्रार्थी हैं...
    लेकिन थोडा सा और गंभीरता से सोचिये..
    अगर हम पाकीज़ा की जगह उसका नाम अनीता-सुनीता या रुबीना-सुबीना भी रखते तो भी किस्से में कोई बदलाव नहीं आता. ..
    यह आज से 5 वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के एक गाँव में हुई सत्य घटना को आधार बनाकर लिखी गयी लघुकथा है...
    कथा के दृष्टिकोण से नाम और घटनाक्रम में कुछ परिवर्तन है..
    सवाल उस घटना का भी नहीं है. आये दिन ना जाने कितनी ही घटनाएं होती हैं, जहाँ आत्महत्या की बात आम है.
    और फिर पाकीज़ा को किसी व्यक्तिवाचक संज्ञा की तरह प्रयोग नहीं किया गया है... पाकीज़ा का अर्थ है 'पाक दामन' और हम मानते हैं कि हर लड़की एक 'पाकीज़ा' ही तो है और उसके पाक दामन पर नजरों के ये गंदे छींटे भी हर रोज पड़ते ही हैं.. उनमे से कुछ पाकिजायें हारकर इस से भी वीभत्स कदम उठा लेती हैं...
    हम ऐसे किसी कदम का समर्थन नहीं कर रहे हैं बल्कि सवाल उठा रहे हैं समाज पर कि आखिर किसी पाकीज़ा को इन परिस्थितियों से गुजरना ही क्यों पड़ता है... और क्‍या किसी भी पाकिजा को ऐसा कदम उठाना चाहिए... आप किस्से का दूसरा हिस्सा पढ़िए.. जिसे हम जल्दी ही पोस्ट करेंगे...
    आशा है कि तब आपकी शिकायत कुछ कम जरूर हो जाएगी...
    वैसे अच्छा लगा कि आपने अपनी शिकायत को सामने रखा जिस से हमें स्पष्ट करने का अवसर मिला...
    हमारे लिखे को लेकर कोई भी संदेह हो तो आप हमें निश्चित ही बताइए.. हम आपके आभारी होंगे..
    क्योंकि 'वादे-वादे जायते सत्यबोधः...'

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  4. www.moicakadian.blogspot.comOctober 29, 2010 at 7:11 PM

    Commendable piece.. Great.

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