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Sunday, October 3, 2010

मेट्रो में महिला कोच सुखदायी नहीं...

कल के अखबारों की खबर पढ़कर बड़ी मायूसी सी छा गई मन में। भला इस दौर में जब हर जगह नर-नारी समता, समानता के नारे लगाए जा रहे हों, उस वक्त ऐसा फैसला निराशा तो होती है जानकर।
जी! मैं बात कर रहा हूं मैट्रो में रिजर्व महिला बोगी की। मैट्रो दिल्ली की लाइफ लाइन कही जा रही है। ऐसे में इस लाइफ लाइन में लाइफ पार्टनर का साथ ही ना हो तो फिर भला लाइफ ही क्या ? पार्टनर नहीं भी होता है तो लाइन के ही सहारे लाइफ तो अच्छी चल ही रही थी। ऐसे में इस मैट्रो लाइफ में भी महिला आरक्षण का सवाल....  ठीक नहीं। कंधे से कंधा मिलाकर हो, या कंधा टकराकर महिलाएं आगे तो बढ़ ही रही थी। उस सब प्रक्रिया में कई कंधों को सहारा देने का सुअवसर मिल जाता था और कई सरों को सहारे का कंधा भी। लेकिन फिर अचानक से ये खबर पढ़ कर दिल बैठ गया। कहीं यह इस प्रतिस्पर्धा भरे समाज में लड़कियों को छुई-मुई बनाने का कोई षड़यंत्र तो नहीं रचा जा रहा है मैट्रो की तरफ से। आखिर मैट्रो की धक्का मुक्की का अलग ही आनंद है। फिर इसमें अभी मुबंई की लोकल जैसा हाल भी तो नही हो पाया कि यात्री ने कुछ करना ही ना पड़े, भीड़ खुद ही चढ़ाने उतारने का काम कर देती है।
अब सब बदल जाएगा...  मैट्रो का सफर भी अब उबाऊ और थकान भरा हो जाएगा। पहले देखते ताकते सफर बीत जाता था। कभी-कभी तो एक-दो स्टेशन आगे भी निकल जाते थे देखते-देखते। टोकन का पूरा पैसा वसूल हो जाता था। पता नहीं किस से यह सुख देखा नही गया। सही कहते हैं कि लोग अपने दुख से उतने दुखी नही हैं जितना दूसरे के सुख से। पता नहीं किन बहनों ने श्रीधरन को भड़का दिया। श्रीधरन जी करें भी क्या, उन्हें तो खुद कभी मैट्रो सफर का आंनद उठाने का सुअवसर मिला नही होगा, सो कर दिया किसी ने दिमाग ख़राब उनका। भला मेट्रो में भी अलग से महिला कोच। इतना ही अत्याचार होगा तो फिर ब्लूलाइन ही क्या बुरी है।
दिल सोचकर उदास है खबर के बाद से... होगी कोई मेट्रो-वेट्रो... मेट्रो में उस सहयात्रा के बहाने कितना कुछ सीखने को मिल जाता है... प्यारी बहने सब लगातार भाइयों को सिखाती रहती हैं कि जरा सही से खड़े रहो, सीधे हो जाओ, ऐसे मत रहो, वैसे मत करो.... कितना कुछ... अब ये सब कहाँ सीखने को मिलेगा..
मेट्रो के सफर के बहाने ‘सोरी’ और ‘एक्सक्यूज मी’ के दो महामंत्र भी हमारी जुबान का हिस्सा हो गए हैं. कई बार सहायता करने की इच्छा भी हो जाती है रस्ते में चलते चलते... हालाँकि अक्सर ही ‘नो थैंक्स’ सुनकर रह जाना पड़ता है. लेकिन अब भला ये ‘महामंत्र’ कहाँ काम आयेंगे....
अब सभ्यता का मूल मंत्र ही खो जायेगा तो भला और कुछ कैसे शेष रहेगा..
श्रीधरन जी पुनर्विचार कीजिये इस फैसले पर। भावावेश में ऐसे फैसले इस लाइफ लाइन से कई के लाइफ पार्टनर जुदा कर सकती है.. कुछ तो उनकी बद्दुआओं से डरिये.....


-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद


(तस्वीर गूगल सर्च से साभार)

6 comments:

  1. waah..
    majedaar....
    manoranjak vishleshan kiya hai..
    shridharan ji ko sochna to chahiye ..
    :)
    bahut rochak...
    lage rahiye..

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  2. अरे भइया महिलाओं को तो पहले से ही आरक्षण मिलते आया है। ।।
    लेकिन ये जरुर सोचने वाली बात है कि अब भइया उन पुरुषों का क्या होगा जिन्होंने महिलाओं के चक्कर में मेट्रो में भीड़ बढ़ा रखी थी।

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  3. hmm ..........amit ji baat to aap bilkul sahi hi keh rahe hain..........pehle pehal to jor ka jhatka jor se hi lagega hum sab ko...par fir dheere dheere aadat ho hi jayegi.........par agar sridharan ji ye lekh padh lete to shayad ek baar sochte jaroor........
    :-)

    waise rachna sahi me majedaar hi hai

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  4. hmmm..
    badhiya..
    'sabhyata ka moolmantra hi kho jayega to aur kuchh kaise shesh rahega...'
    khone mat dijiye iss moolmantra ko..

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  5. Bahut majedar.... kya andaz hai likhne ka..

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  6. Bahut khub likha hai amit ji apne...
    i just like it...

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