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Tuesday, November 16, 2010

दर्द बहुत गहरा तो नहीं था..






दर्द बहुत गहरा तो नहीं था..
शायद था..।
मैं रिश्तों में ठहरा तो नहीं था..
शायद था।।
मैंने ये तो नहीं सोचा था रिश्ता कैसे जीना है
हंसके वक़्त कटेगा सारा या कि आंसू पीना है।
जाने कब किसने क्या दिया मालूम नहीं..
कैसे कह दूं जिसने दिया, उसने ही सब छीना है।।
सपनो पर पहरा तो नहीं था..
शायद था।
मैं रिश्तों में ठहरा तो नहीं था..
शायद था।।

रोया भी तो नहीं था.. रोने का अधिकार नहीं
खोया भी तो नहीं था.. खोने को संसार नहीं .।
क्यों आखिर रोना.. धोना..सुनकर उसको
उसने तो इतना ही कहा.. वो बचपना था प्यार नहीं।।
अश्कों का कोई सहरा तो नहीं था..
शायद था ।
मैं रिश्तों में ठहरा तो नहीं था..
शायद था।।

पागल हूँ, पागल ही सही.. इसमें उसका अपराध भी क्या.
आँखें चुप और दिल रोये.. इस से अच्छा संवाद भी क्या।
उस से पहले भी तो अपना,
जीना-मरना एक ही था
इस जीने में रखा है,
आखिर उसके बाद भी क्या ।।
हर चेहरा वो चेहरा तो नहीं था..
शायद था..

मैं रिश्तों में ठहरा तो नहीं था..
शायद था।।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

4 comments:

  1. hmmmmmmmmm...........hamesha ki tarah iss baar bhi achchi kavita hai...
    nice lines

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  2. waah... kai din baad posting shuru ki hai aapne dobara.... lekin lajawab...

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  3. जीना-मरना एक ही था
    इस जीने में रखा है,
    आखिर उसके बाद भी क्या ।।
    हर चेहरा वो चेहरा तो नहीं था..
    शायद था..
    पंक्तियों ने बेहद प्रभावित किया.........सुन्दर एवं भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकार करें !!

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