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Tuesday, November 30, 2010

'स्‍त्री-सम्‍मान और मैं' - मेरा अन्‍तर्मन (My Conscience)


अकारण ही... आज अकारण ही मन अपने अन्‍दर के खालीपन को स्‍वीकारना चाह रहा है। शब्‍द - अर्थ और फिर अर्थ्‍ा के भीतर के अर्थ। कितना ही छल भरा है मन में।
सच को स्‍वीकारने का साहस होता ही कब है। कब स्‍वीकार पाया हूँ अपने अर्थों के भीतर के अर्थ को। कई मर्तबा स्‍वीकार भी किया, तो ऐसी व्‍यंजना के साथ, कि सुनने वालों ने उस स्‍वीकारोक्ति को भी मेरी महानता मानकर मेरे भीतर के उस सत्‍य को धूल की तरह झाड़ दिया।
ऐसा ही एक सत्‍य है, 'स्‍त्री-सम्‍मान और मैं'। स्‍त्री होना ही पूर्णता है। स्‍त्री स्‍वयं में शक्ति का रूप है। स्‍त्री - शक्ति का सम्‍मान करना ही नैतिकता है। स्‍त्री का अपमान करना, निष्‍कृष्‍टतम् पाप है।
इन बातों का ऐसा प्रभाव हुआ, कि मैं भी स्‍त्री-शक्ति को विशेष रूप से खोजकर, उनका सम्‍मान करने लगा। अक्‍सर सड़क किनारे से गुजरते हुये ये ख्‍याल आ जाता था कि काश कोई सुन्‍दर स्‍त्री-शक्ति लड़खड़ाये, और मैं दौड़कर उसकी सहायता और सम्‍मान कर सकूं। काश यह मुझ अकेले की बात होती. 
सोच रहा हूँ कि आखिर स्‍त्री-सम्‍मान के लिये इतनी बातों और इतने प्रयासों की आवश्‍यकता ही क्‍यूँ आन पड़ी ?और फिर इनका अपेक्षित परिणाम क्‍यूँ नहीं मिला ? क्‍यूँ स्‍त्री - सम्‍मान की सहज भावना नहीं पैदा हो पाई इस मन में ? क्यों सहायता से पहले सूरत देखने की इच्छा आ जाती है? क्‍यूँ मुझ जैसे अधिकतर युवाओं में 'सुन्‍दरतम् स्‍त्री-शक्ति का अधिकतम् सम्‍मान' की भावना बनी रही ?
क्‍यूँ शक्तिहीन और सौन्‍दर्यविहिन के प्रति सहज सम्‍मान-भाव नहीं जागृत हो सका मन में ?
इन प्रश्‍नों का उत्‍तर अभी भी अज्ञेय ही है।
भीतर के इस सत्‍य का कारण, समाज से चाहता हूँ।
उत्‍तर अभी प्रतिक्षित है।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

(तस्वीर गूगल सर्च से साभार)

3 comments:

  1. उत्‍तर की प्रतीक्षा हमें भी है.

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  2. जी संजीव जी.. उत्तर तो प्रतीक्षित है... लेकिन दुःख भी यही है कि इसका उत्तर देने का नैतिक साहस अब समाज में शेष ही नहीं रह गया है..
    काश कि यह समाज अपने भीतर से इस सड़ी-गली मानसिकता को बाहर निकाल सके..
    काश कि चिंतन को स्त्री-देह से परे ले जाया जा सके..
    @madhav - धन्‍यवाद

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  3. well bahut gahrai se to nahi par jitna kuch abhi samaj aur manushyke bare m jana hai yahi lagta hai ki jeevan ishwar ki anantim abhivyanjana hai aur defintly sabse sundartam bhi,fir jeevan ka astitva hi jab beuty se driven hota hai to hamara man kyu nahi saundarya ke prati asakt ho ,ab wo chahe koi bhi kshetra ho,aur apne baat ki sundartam stri ke prati samman ki bhavna ki to ye b natural instinct hai bas kahi iska pratishat bahut jyada hota hai aur kahin kam.but hame lagta hai ki agar aap aisi sonch rakhte hain to shayad ab tak apne apni vichardharam naya badlav dekha hoga,....lemme stop it othrwise .............

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