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Monday, November 20, 2017

मैं प्यास हूं, तुम तृप्ति हो (You make me)




मैं प्यास हूं, तुम तृप्ति हो 
मैं दीप हूं, तुम दीप्ति हो।
मैं दिवस और भोर तुम 
हो मेरे चित की चोर तुम।
मैं अग्नि हूं, तुम तपन हो 
मैं नींद हूं, तुम स्वप्न हो। 
मैं इमारत, नींव तुम 
मैं आत्म हूं और जीव तुम। 
मैं नेत्र हूं, तुम दृष्टि हो 
मैं मेघ हूं, तुम वृष्टि हो।
मैं साधु हूं, तुम साधना
मैं भक्ति, तुम आराधना..
मैं समंदर, तुम नदी हो
मैं हूं पल छिन, तुम सदी हो
मैं ब्रह्म हूं, तुम सृष्टि हो
मैं प्यास हूं, तुम तृप्ति हो..

-अमित तिवारी 
दैनिक जागरण

(चित्र गूगल से साभार)

Monday, November 6, 2017

सागर, तुम हो कौन? (Who Are you?)



'सागर, तुम हो कौन?' बड़ी-बड़ी छलकती आंखों से नदी ने कहा। 
'मैं कौन हूं! ये क्या सवाल है? एक तुम ही तो हाे, जो अच्छे से जानती हो कि मैं कौन हूं।' 
'मैं जान ही तो नहीं पाई कि तुम हो कौन? हर रोज चेहरा बदल लेते हो तुम। जब-जब मुझे लगता है कि अब समझ गई हूं कि तुम कौन हो, तब तुम्हारा कोई और रूप आ जाता है मेरे सामने।' 
'नदी... तुम इतना सोचती क्यों हो? तुम सोचती हो, इसीलिए तो समझती नहीं हो। सोचना छाेड़ दोगी, तो समझ जाओगी। इतना आसान सा तो हूं मैं। जैसी नदी, वैसा सागर। आखिर नदी से ही तो बना हूं। तुम पता नहीं कहां उलझ जाती हो? नदी से सागर तक के रास्ते में उलझन की गुंजाइश कहां होती है?' 
'उफ... बस तुम्हारी यही बात... यही बात मुझे उलझा देती है। तुम मुझे जानते ही कितना हो। और जब जानते ही नहीं तो कैसे हो गई मैं तुम्हारी नदी? मुझे चिढ़ होती है तुम्हारी इसी बात से। तुम इतना मत सोचो मेरे बारे में। बिलकुल मत सोचो।' नदी एक सांस में बोलती चली गई। 
'सागर को नदी के बारे में जानने की जरूरत ही क्या है? और फिर सागर थोड़े ना चुनता है अपने लिए नदी। वो तो होता ही नदी के होने से है।' शांत सा सागर यही सोचता रहा।

-अमित तिवारी
दैनिक जागरण
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