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Wednesday, August 17, 2011

कब किले से मुक्त होगी स्वतंत्रता? (Independence day?)


‘‘सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं, दिल पे रखकर हाथ कहिये, देश क्या आज़ाद है।
कोठियों से मुल्क की ऊंचाइयां मत आंकिये, असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है।।’’

देश की तथाकथित आज़ादी की इस 65वीं वर्षगाँठ के मौके पर अदम गोंडवी की ये पंक्तियाँ सोचने पर मजबूर कर रही हैं।
मैं फुटपाथ पर आबाद हिंदुस्तान हूँ। मैं यह तो नहीं कह सकता कि मेरी आवाज सुनो, लेकिन नक्कारखाने में तूती की तरह ही सही मैं बोलना चाहता हूँ। बचपन से किस्से कहानियों में सुनता आ रहा हूँ कि किले में राजा-महाराजा सब रहा करते थे। धरती पर आने में थोड़ी देर कर दी इसलिए राजा-रानी के दर्शन नहीं कर पाया कभी। मेरे आने से पहले ही देश में लोकतंत्र (?) आ गया। लेकिन फिर भी टिकट कटाकर लालकिले जरूर गया हूँ। राजा-रानी तो नहीं लेकिन उनके कमरे, बाथरूम, बगीचे जरूर देखने को मिले। राजा के सैनिक तो नहीं लेकिन स्वतंत्रता की रक्षा में लगे सैनिक जरूर दिखाई दिए।
आज़ादी की सालगिरह के दिन स्वतंत्रता की देवी के दर्शन के लिए भी अजब मारामारी रहती है।
वैसे भी जहाँ रानी मुखर्जी को देखने के लिए होड़ लग जाती हो वहां स्वतंत्रता की इस रानी को देखने की इच्छा होना तो स्वाभाविक ही है।
स्वतंत्रता भी एक रानी है, देवी है, बला की खूबसूरत रानी। जहाँ खूबसूरती है वहां बला है, बलवा है, झगड़ा है, फसाद है। इस रानी की सुरक्षा बहुत जरूरी है।
और जो हालात दिख रहे हैं, उनमें ये स्पष्ट है कि इस लोकतंत्र (?) में ये स्वतंत्रता आम आदमी की पहुँच से जितनी दूर रहेगी, उतनी ही सुरक्षित रहेगी।
मुझ जैसे बहुत से लोग सालों से कोशिश में हैं कि स्वतंत्रता के दर्शन हो जाएँ, लेकिन वहां पुलिस के डंडों के आलावा कुछ नहीं मिल पाता है।
मैं सोच रहा हूँ कि आखिर स्वतंत्रता इस किले से कब मुक्त होगी? खेत-खलिहान, गाँव, कसबे में कब पहुंचेगी ये स्वतंत्रता? भारत के नागरिकों को मिली हुई इतनी महँगी और कीमती स्वतंत्रता मुझ जैसे गंवार को कब मुहाल होगी?
अन्ना की टीम एक और स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रही है, लेकिन पता नहीं वो भी इस किले में कैद स्वतंत्रता को स्वतंत्र कर पायेंगे या नहीं।
डर लग रहा है कि कहीं स्वतंत्रता की तीनरंगिया चुनरी की चमक फीकी तो नहीं पड़ गयी है। इसके केसरिया रंग में कैशोर्य बचा है या गायब हो गया?
सफेद रंग बदरंग तो नहीं हो गया है ना?
इसके हरे रंग की हरीतिमा शेष है या कहीं खो गयी है?
मुझे स्वतंत्रता से बहुत प्यार है, बेशक वह मुझे मिले या न मिले। वैसे भी इस किले के बाहर जो कुछ भी देखने को मिल रहा है, वह कुछ अच्छा संकेत नहीं कर रहा है। जिस तरह से लोकतंत्र (?) के नाम पर अभिव्यक्ति का गला घोंटने का प्रयास हो रहा है। जिस तरह से आम जन से इस स्वतंत्रता को दूर रखा गया है। जिस तरह से कुछ लोग पूरी स्वतंत्रता से भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। जिस तरह से सरकार के खिलाफ उठने वाली आवाज को कुचलने का हर रोज प्रयास हो रहा है, उसे देखकर लगता है कि किले के भीतर की स्वतंत्रता भी सुरक्षित नहीं होगी। वो भी सिसक रही होगी। नासूर बनते भ्रष्टाचार और अत्याचारों से आहत हो रही होगी। आखिर प्राण तो इसका भी इस जन-गण के मन में बसता है ना। अफसोस तो इस आज़ादी को भी होगा ही खुद पर कि यह उसकी नहीं हो पायी जो इसके लिए जीता-मरता रहा है।
ऐसा कहना तो गलत होगा कि यह जीवन उस गुलामी के दौर के जीवन से बदतर है, लेकिन दिल ये भी नहीं मानता कि हालात बहुत ज्यादा बदल गए हैं। फुटपाथ पर बसे हुए जिस हिंदुस्तान की बात मैं कहना चाहता हूँ, उसके लिए तो तस्वीर अभी भी लगभग वैसी ही है। उसके लिए परेशानियों की सिर्फ शक्ल बदली है, परेशानियाँ वही हैं। उसके लिए सिर्फ शासक के रूप रंग में परिवर्तन हुआ है, लेकिन उसके शोषण का हाल आज भी वैसा ही है।
इस सत्तर फीसदी हिन्दुस्तान की ओर से मैं यही कहा चाहूंगा कि हे स्वतंत्रता! तुम बिलकुल परेशान मत होना, जल्द ही तुम्हें इस किले की कैद से मुक्त करने के लिए एक मुकम्मल लड़ाई होने वाली है। -0-

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
अचीवर्स एक्सप्रेस
(हिंदी साप्ताहिक)

Wednesday, August 10, 2011

'रंग दे बसंती चोला' से 'चोली के पीछे क्या है' तक...(Independence Day)



स्वतंत्रता दिवस की जयंती आने वाली है! जयंती इसलिए कह रहा हूँ ताकि इसके जीवित रहने का भान बना रहे. बचपन से ही बड़ा उत्साह सा रहा है इसके प्रति. सुबह-सुबह नहा-धोकर स्कूल के लिए निकल पड़ना..उस दिन स्कूल ज्यादा आनंद दायक लगता था, क्योंकि उस दिन बस्ता ले जाने की पाबन्दी नहीं होती थी, ना ही पढने की और ज्यादा प्रतीक्षित तो वो लड्डू थे जो झंडा फहराने के बाद मिलते थे. थोडा बड़ा होते-होते भाषण देने की लत भी लग गयी थी, इसलिए ऐसे अवसरों का और भी बेसब्री से इंतजार रहने लगा था.
उन दिनों भाषण की तैयारी के बहाने ही सही, बड़े-बड़े देशभक्तों की कहानियां ध्यान से पढ़ा करता था. आश्चर्य होता था भगत सिंह, राजगुरु जैसे दीवानों के किस्से पढ़कर. और गांधीजी के 'सत्य के प्रयोग' ने तो मन ही मोह लिया था. मन में वही क्रांतिकारी तेवर करवट लिया करते थे और 15 अगस्त, 26 जनवरी के आसपास कुछ ज्यादा ही.
बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है ये सब, यही कोई आठ-दस साल ही तो हुए हैं उस देशभक्त बचपन को बीते हुए. शनै-शनै अन्दर का देशभक्त खोने लग गया था, भाषण की आदत तो नहीं छूटी थी, मगर अब भाषण में मेरी आत्मा ना होकर एक लोकेशना का मोह ज्यादा रहने लगा था. धीरे-धीरे भाषण का मंच भी खो गया और मोह भी.
लेकिन आज अचानक सड़क पर पुलिस की बढ़ी हुई चहलकदमी देखकर याद आया कि 'दिवस' आने वाला है. एक अजीब सा तुलनात्मक भाव आ रहा है मन में.
खुद की तुलना खुद से करते हुए भी एक अंतर लग रहा है. आज में रह कर देखता हूँ तो वह देशभक्त सा बचपन स्वप्न लगता है और उस बचपन में जाकर देखता हूँ तो आज का सच वहशी लगता है.
और जब ये तुलना बाहर समाज में निकलती है तो दृश्य और भी भयावह हो जाता है. याद आ रही है वो 'मेरा रंग दे बसंती चोला' वाली किताबों में पढ़ी हुई पीढी. विश्वास नहीं होता कि कैसे हमारी ही उम्र के वो नौजवान इतना कष्ट झेल लेते थे देश के लिए?
जाने कैसे देश के लिए जान देने जैसी तत्परता थी उनके भीतर?
उतावलापन सा रहता था उनके मन में देश की स्थिति पर चिंतन करने और उसे सुधारने के लिए.
बेचैन रहते हर वक़्त आम मानुष के लिए. गाते तो देश, नाचते तो देश. खाते-पीते, सोते-जागते सिर्फ देश की बात......बचपन में उनकी कहानी पढ़ते-पढ़ते जोश में आकर गाया करता था 'मेरा रंग दे बसंती चोला,ओ माये रंग दे बसंती चोला....' और फिर मुझ जैसे कई देशभक्त गाने लगते थे अपनी-अपनी आवाज में.

अपनी देशभक्ति के अवसान काल में भी 

 "LOC kargil" फिल्म 

देखने का जज्बा सा जाग पड़ा. हाल पहुँच कर बड़ा सुकून मिला था. अच्छी खासी भीड़ थी देखने वालों की. लगा कि चलो देश मरा नहीं है. दर्शकों में ज्यादातर युवा ही थे, मेरी ही उम्र के आसपास के.
फिल्म चल पड़ी थी, मेरा उत्साह जोर मार रहा था. लेकिन युवा साथी कुछ शांत से लग रहे थे, लड़ाई का सीन शुरू होते ही सबकी चेतना वापस आने लगी थी. लेकिन अचानक हुए शोर से (हूटिंग कहते हैं) मैं थोडा सा चौंक गया था, कारण समझ नहीं आया था शोर का. फिर थोडी देर में पता लगा कि शोर कही गयी बातों पर नहीं हो रहा था, बल्कि तालियाँ तो उन शब्दों पर बज रही थीं जिन्हें "बीप-बीप" की आवाज में डायरेक्टर ने छुपा दिया था, शायद सेंसर के चलते. मगर मैं सोच रहा था कि अब सेंसर कहाँ गया..ना कहते हुए भी कह देने का तरीका भी तो है.
शोध कहते हैं कि सोशल नेट्वर्किंग साइट्स का इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर युवा इनके जरिये ऐसे ही नए चलन में आये हुए स्टाइलिश शब्दों का आदान प्रदान करते हैं. "डेल्ही बेली" और "देव डी" की तारीफ इनकी जबान पर है.
बातें तो LOC की भी होती थी, लेकिन "बीप-बीप" की चर्चा ज्यादा थी.
ऐसे ही एक शोध के मुताबिक इन्टरनेट का इस्तेमाल कर रही पीढी का एक बड़ा हिस्सा अश्लील साइट्स के सर्च को प्राथमिकता में रखता है. अछूता मैं खुद भी नहीं रहा इस से. मगर इस सच ने अचानक झकझोर दिया है. मैं सोच रहा हूँ कि हम सब किस ओर बढ़ रहे हैं?
यह युवा पीढी, जिसके कन्धों पर आगे देश की बागडोर होगी, वह कहाँ खोयी हुई है?
पिछले सालों में और भी ऐसा ही बवाल मचा हुआ था 'सच का सामना', स्वयंवर और बिग बॉस जैसे धारावाहिकों को लेकर. 

जितनी निर्लज्जता के साथ निर्देशकों ने इन्हें पेश किया था, प्रतिभागी हिस्सा ले रहे थे, उतनी ही निर्लज्जता के साथ कुछ बुद्धिजीवी इसके समर्थन का राग भी अलाप रहे थे. तर्क दिया जा रहा था कि आखिर अमेरिका में भी तो यह धारावाहिक चलता है.

भैया अमेरिका में तो शादी की पाँचवीं सालगिरह मनाने की नौबत ही नहीं आती, लेकिन भारत में सात जन्मों का साथ निभता है.
तासीर का फर्क तो समझो अमेरिका और भारत की. वहां "माँ सिर्फ पिता की पत्नी होती है."

इया साल भी कहीं कुछ नया नहीं दिख रहा है. आज भी 'डेल्ही बेली' जैसी फिल्मो के समर्थन में ऐसे ही बेहूदा तर्क दिए जा रहे हैं. 
आश्चर्य है अब देश की चर्चा, मूलभूत समस्यायों की चर्चा करने के लिए किसी के पास समय ही नहीं बचा है.
हर साल की तरह फिर एक बार स्वतंत्रता दिवस आने वाला है. उत्साह हर रोज घटता जा रहा है. अब भगत सिंह पैदा तो होना चाहिए लेकिन हमारे घर में नहीं पडोसी के घर में.

'सरदार भगत सिंह के आखिरी उदगारपढ़ रहा था, यकीन ही नहीं होता कि जिस उम्र में साला हम एक खरोंच से डर जाते हैं, उसी उम्र का वो बन्दा कितनी बेफिक्री से अपने मरने के तरीके सुझा रहा था ब्रिटिश सल्तनत को. हमें बेकार की लफ्फाजियों से फुर्सत नहीं और भगत सिंह पूरी दुनिया को अर्थशास्त्र सिखा रहे थे.
जब सारा देश महात्मा गाँधी का पूजा की हद तक सम्मान कर रहा था तब कैसी बेबाकी और साफगोई से सुखदेव ने उन्हें पत्र लिखकर अपना और क्रांतिकारियों का पक्ष रखा और अपने लिए माफ़ी की बात खारिज कर दी..
पता नहीं किस मिटटी के बने थे वो? या शायद इस पीढी की मिट्टी ख़राब हो गयी है. !!
मंहगाई, भूख, बेरोजगारी, लूट, बलात्कार सब कुछ तो है, बस अगर कुछ नहीं है तो वो है इन बातों पर चिंतन करने और इन्हें ख़त्म करने वाली जमात. 'डेल्ही बेली' पर तो बहस है लेकिन इन जमीनी मुद्दों पर कहीं चूं भी नहीं है.
सब खोजने में लगे हुए हैं चोली के पीछे के राज को..
'रंग दे बसंती चोला' से 'चोली के पीछे क्या है' तक के इस सफ़र में देश कहाँ चला गया और कब चला गया, पता ही नहीं चला.
कब मेरे भीतर का भारत मर गया, मैं सोचकर अनुत्तरित हूँ.
कैसे "वन्दे मातरम" की सेज बनने वाले होंठ "गालियों का गलीचा" बन गए?
कैसे चोले को उस रंग में रंगने की जिद में अड़ा हुआ मन चोली के पीछे का सच खोजने निकल पड़ा?
स्वतंत्रता दिवस कैसे पर्व से जयंती बन गया?


कौन जिम्मेदार है इस वैचारिक और नैतिक पतन का?
है कोई जवाब आपके पास मेरी इस उलझन का?
हो तो जरूर बताइयेगा.....
पड़ताल अभी जारी है..

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
अचीवर्स एक्सप्रेस 

Thursday, August 4, 2011

'कविता' ऐसे बनती है (Making of KAVITA)


किसी को याद करके रोने की 
फुर्सत तो कभी मिली ही नहीं

वो जो किसी के होने से खिलती है, 
वो कली खिली ही नहीं.
हाँ मगर दुनिया की दुनियादारी में 
खुद से मिलना भी तो मुश्किल हो जाता है
और बस ऐसे ही जब कभी 
खुद से मिले हुए अरसा गुजर जाता  है...
तो फिर अपनी याद में ही कुछ आंसू आ जाते हैं...
और फिर वही आंसू 
कागज पर गिरकर 'कविता' बन जाते हैं
कभी अधरों पर मुस्कान लिए,
कभी हृदय में दर्द लिए....

- अमित तिवारी
समाचार संपादक
अचीवर्स एक्सप्रेस 
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