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Sunday, October 17, 2010

एक अनुभव वैश्यालय का...

उन शातिर आँखों का मतलब समझते ही मैंने सौ-सौ के पांच नोट उसकी ओर बढा दिए और साथ ही अपनी 'पसंद' की ओर इशारा भी कर दिया था.
कुछ ही पलों में मैं अपने ख्वाबों की जन्नत में था. आज मैं अपने साथ के उन तमाम रईसजादों की बराबरी पर आ गया था, जिनके मुहँ से अक्सर मैं ऐसे किस्से नई-नई शब्द व्यंजनाओं के साथ सुना करता था. मेरे दिमाग में तमाम शब्द बन बिगड़ रहे थे; कल अपनी इस उपलब्धि की व्याख्या करने के लिए. हालांकि पहली बार होने के कारन मैं कहीं न कहीं थोडा असंयत सा अनुभव कर रहा था.
दरवाजे पर दस्तक होते ही जब मैंने नजरें उठाई तो अपलक निहारता ही रह गया. मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं अपनी सफलता के इतने निकट हूँ.
"फास्ट फ़ूड या मुगलई!?" अपने आप को सहज दिखाने का प्रयास करते हुए मैंने मजाकिया लहजे में कहा.
"नाम क्या है आपका?" सुस्पष्ट आवाज और सधे हुए वाक्य-विन्यास के साथ किये गए इस प्रश्न ने मुझे चौंका दिया.
"ज..जी..वो..सौरभ...सौरभ शुक्ला..."
"घबराइये मत, पहली बार आये हैं?"
"न....हाँ.."
"कहाँ रहते हैं?"
"यहीं......दिल्ली में."
"क्या करते हैं?"
"पढाई...इंजीनियरिंग...." मैं यंत्रवत सा उत्तर देता जा रहा था.
"परिवार ?"
"इलाहाबाद में, ....मम्मी-पापा."
"कितने पैसे दिए हैं बाहर?"
"पांच सौ..."
"कमाते हैं?"
"नहीं, ...पापा से लिए थे .....नोट्स के लिए..." मैंने अपराध स्वीकारोक्ति के लहजे में कहा.
अगले ही पल मेरे सामने पांच सौ का नोट रखा था. इस अप्रत्याशित घटनाक्रम से मैं स्तब्ध रह गया.
उन होंठों की जुम्बिश अभी भी जारी थी, "हम अपने ग्राहकों से ज्यादा बात नहीं करते, ना ही हमें उनकी निजी जिंदगी में कोई दिलचस्पी होती है, फिर भी आप से दुआ कर रहे हैं, बचे रहिये इस जगह से. हमारी तो मजबूरी है, हमारी तो दुनिया ही यहीं है. पर आपके सामने पूरी दुनिया है. परिवार है. परिवार के सपने हैं, उन्हें पूरा कीजिये..
वैसे हम सिर्फ कह सकते हैं....आगे आपकी मर्जी..जब तक आप यहाँ हैं, हम आपकी खरीदी हुई चीज़ हैं..आप जो चाहे कर सकते हैं.."
मैं चुपचाप नजरें नीचे किये चलने को हुआ.
"पैसे उठा लीजिये, हमें लगेगा हमारी नापाक कमाई किसी पाक काम में इस्तेमाल हो गयी. वैसे थोडी देर रुक कर जाइए, ताकि हमें बाहर जवाब ना देना पड़े..!"
मैं रुक गया और थोडी देर बाद पैसे लेकर बाहर आ गया, लेकिन अपनी नम आँखों से मैंने अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर दी थी. मेरे जीवन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आ चुका था. मुझे लगा शायद मैं ईश्वर से साक्षात्कार करके लौटा हूँ.
खैर जो भी था अच्छा था.
सच ही तो है, कहीं भी सब कुछ बुरा नहीं होता.

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद


7 comments:

  1. hmmm.............

    badhiya....

    achcha andaaj hai likhne ka ..........
    nice article

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  2. kya kahu..paathko ko jo chahiye isme wo sab kuch hai..chahe wo sansmaran ke taur par ho ya kahani ho...

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  3. . मुझे लगा शायद मैं ईश्वर से साक्षात्कार करके लौटा हूँ.

    सच्चा ज्ञान सदा ऐसे ही स्थान पर, ऐसी ही परिस्थितियों में क्यों प्राप्त होता है............

    ऐसी ही चीजें इश्वर के अस्तित्व, सत्य और झूंठ को सिद्ध करते हैं, जिसे हम सामान्य परिस्थितियों में जानबूझ कर नकारते रहते हैं.............

    सुन्दर लघु कथा.....

    हार्दिक बधाई.....

    चन्द्र मोहन गुप्त

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  4. वाह अमित वाह ,सारगर्भित रचना ,मन को उद्द्वेलित करने वाली,चिंतन,मनन को दिशा प्रदान करने वाली इस रचना के लिए बधाई स्वीकारो.........

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  5. क्‍या कहूं.... वाह कहूं तब भी कम ही होगा..

    उस अनापेक्षित और उपेक्षित दुनिया के दर्द और भावों को कम शब्‍दों में बहुत खूबसूरत तरीके से सामने रखा है।
    प्रसंशनीय....

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  6. @Mnsha ji - धन्‍यवाद।
    @Saket ji -साकेत जी, लगातार उत्‍साहवर्धन के लिए आपका आभार।
    @Chandra Mohan ji- चन्‍द्रमोहन जी, सत्‍य कहा आपने जीवन में सबसे गहरा ज्ञान सबसे उथले सतह पर मिल जाता है।
    @Archana ji- अर्चना जी आपका आभार।
    @Nidhi ji- धन्‍यवाद।
    सभी पाठको के स्‍नेह से ही यह प्रयास फलीभूत होता है।

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  7. बहुत अच्छी कहानी लिखी आपने अमित भाई। सीख देने वाली।

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