...........................

Tuesday, October 12, 2010

जीती जा सकती है जंग भूख से ..

जब भारत जैसे देश को चावल - चीनी का आयात करने की आवश्यकता पड़ जाये। जब एक कृषिप्रधान देश में आत्महत्या करने वाले किसानों का आंकड़ा बढ़कर लाखों में पहुँच जाये। जब एकओर बुंदेलखंड जैसे तमाम हिस्सों में भुखमरी का दौर चल रहा हो और दूसरी जगह कहा जाए कि यह हमारी सामयिक समस्यायें हैं जिन्हें सुलझा लिया जायेगा। क्या स्थिति इतनी ही सहज औरसरल है?
किसानों की आत्महत्या का क्रम बरकरार है। खेती किसान के लिए घाटे का सौदा बन रही है। वह खेती करता है, क्योंकि वह कुछ और नहीं कर सकता है। वह जिन्दा है, क्योंकि मरा नहीं है। किसान उत्पाद का वाज़िब दाम न मिलने के कारण बदहाल है और सामान्य निम्नवर्गीय जनसंख्या खाद्यान्नों के बढ़ते मूल्यों के चलते भुखमरी के कगार पर खड़ी है। खेती बिचौलियों के लिए लाभ का माध्यम बन गयी है। उच्चवर्ग तमाम प्रश्नों और समस्याओं से बेखबर। एक ओर सकल घरेलु उत्पाद में कृषि का कम होता योगदान और दूसरी ओर
भुखमरी की विकराल होती समस्या। हाल ही में आई अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत भुखमरी के मामले में 67वें स्‍थान पर है। आईएफपीआरआई और जर्मनी के कंसर्न वर्ल्डवाइड एंड वेल्टहंगरहिल्फे (सीडब्ल्यूडब्ल्यू) के संयुक्‍त तत्‍वावधान में जारी इस रिपोर्ट में 84 देशों की सूची है, जिनमें चीन 9वें, श्रीलंका 39वें और पाकिस्तान 52 वें स्थान पर हैं। इस सूची में देशों में शिशु मृत्यु दर, कुपोषण और भरपेट भोजन न पाने वालों की आबादी को आधार बनाया गया है।
समस्या सिर्फ भारत की नहीं है। भूख एक वैश्विक प्रश्न बन गया है। सयुंक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रम ने अपनी एक रिपोर्ट में वर्तमान वैश्विक खाद्य समस्या को भूख की एक शान्त सुनामी का नाम दिया है। रिपार्ट के अनुसार खाद्य समस्या के कारण लगभग 40 मीलियन लोगों को अपना भोजन कम करना पड़ रहा है तथा विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग छठवां हिस्सा भुखमरी की चपेट में है।
तीसरी दुनिया के तमाम देश भुखमरी की हृदय विदारक स्थिति में जीने के लिए अभिशप्त हैं।
जहां एक ओर दुनिया की लगभग 17 फीसदी आबादी भूखी है, वहीं दूसरी ओर पर्यावरण की समस्या-समाधान के नाम पर चीन आदि विकसित अर्थव्यवस्था वाले देश जैव ईधन का शिगूफा छेड़े हुए हैं। गरीब देशों की आबादी भूखी सोने के लिए विवश है और अमीर देशों की जमात अपने आराम के लिए जैव ईंधन के उत्पाद के लिए लाखों टन खाद्यान्न को जला डाल रही है। रोज लाखों टन मक्के का इस्तेमाल जैव ईंधन बनाने के लिए किया जा रहा है।
यह तस्वीर आखिर क्या बयान करती है। यही नहीं तस्वीर के और भी रुख हैं। भारत के प्रख्यात रिसर्चर और लेखक देवेन्द्र शर्मा ने एक बातचीत के दरम्यान स्थिति को स्पष्ट करते हुए तस्वीर के ऐसे ही एक रुख की ओर इशारा किया था। इस सत्य को स्वीकार किया जाना चाहिए कि विश्व में किसी भी प्रकार से अनाज की कमी नहीं है। एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व की कुल आबादी 6.7 अरब है, जबकि विश्व में कुल मिलाकर लगभग 11.5 अरब लोगों की जरूरत का अनाज पैदा हो रहा है। सच यह है कि विश्व का एक भाग अधिक खाद्यान्न का इस्तेमाल कर रहा है, यहां तक की खाद्यान्न का इस्तेमाल जैव ईंधन तक बनाने में कर रहा है, जबकि दूसरी ओर एक बड़ा हिस्सा खाद्यान्न की कमी से जूझ रहा है। कमी खाद्यान्न की नहीं है बल्कि वितरण प्रणाली में कमी है। खाद्यान्न का विश्व में सही वितरण नहीं है। वैश्विक भुखमरी की समस्या से लड़ रहे तमाम वैश्विक संगठनों को यह सत्य स्वीकार करना होगा। खाद्यान्न वितरण पर कारपोरेट जगत तथा उच्च वर्ग के नियंत्रण को कम कर करके यदि खाद्यान्नों का पूरे विश्व में सही वितरण किया जाये तो भूख से यह जंग जीती जा सकती है।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...