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Tuesday, November 30, 2010

.. और वह चिरनिद्रा में सो गई (And she Passed away)




जैसे ही उसे चिंकी की खट्टी-मीठी गोलियों का राज़ और उस तथाकथित पुजारी के सच का पता चला, उसने मन ही मन अपना फैसला कर लिया, और मौका मिलते ही पत्थरों के जरिये अपना न्याय कर दिया. लेकिन अपने न्याय के कारणों को बताने के लिए उसके पास शब्द नहीं थे, इसीलिए उस रात उसे पिता के दो-चार थप्पडों के साथ ही भूखा ही सोना पड़ा.
ऐसी बहुत सी घटनाएं शशि के साथ अक्सर होती रहती थीं. गलत और अन्यायपूर्ण कृत्य देखना उसे पसंद नहीं था.
और सही?! सही तो शायद कहीं होता ही नहीं! कहानियों में अक्सर सुनती थी कि कहीं स्वर्ग है, जहाँ सब कुछ सही होता है, वहां सिर्फ अच्छे लोग होते हैं....! और अक्सर वो उस स्वर्ग कि कल्पना में खो जाया करती थी.
जब कहीं नारी समता की बातें पढ़ती तो उसे अपना गाँव मानो नरक लगने लगता था. बहुत जिद के बाद उसे शहर में आगे पढ़ने की इजाजत मिल पायी थी. मगर ये क्या!!! यहाँ भी तो उसका गाँव ही दिखाई दे रहा था चारो तरफ...थोडा रंग-बिरंगे शालीन कपडों में. यहाँ भी समता की वो ऊँची-ऊँची बातें सिर्फ बातों में ही थी, व्यवहार में नहीं. बड़ी मुश्किल से सामंजस्य बिठा पा रही थी वो. कभी-कभी सोचती थी कि या तो ये दुनिया गलत है या फिर वो गलत दुनिया में आ गयी है!!
बड़ी दीदी की शादी में उसने विरोध करने की कोशिश की भी, लड़का शराबी था, अनपढ़ और गंवार भी.
"लड़की हो लड़की की तरह जीना सीख लो, उतना ही बोलो जितना पूछा जाये."पिता ने सख्त लहजे में कहा. वो चुप हो गयी.
इस बार छुट्टियों में घर पहुंची तो बड़ी दीदी को आया देखा, रो रहीं थीं, माँ ने समझाते हुए दीदी को कहा था:-"बेटी कुछ भी हो जाए, ससुराल से लड़की की अर्थी ही उठती है. कैसे भी करके वहीँ रह लेना, नहीं रह पाओ तो आग लगा कर जल जाना, मगर मायके की ओर मत देखना." दीदी चली गयी.
मगर वो पूरी रात नहीं सो पायी, उसे लगा कि वो शायद सच में इस दुनिया के लायक नहीं है. फिर वो चिरनिद्रा में सो गयी,. अब वो स्वर्ग में है..जहाँ सब कुछ अच्छा है. वो शायद उसी दुनिया के लिए बनी थी, क्योंकि इस दुनिया में तो हमने उसे कभी चैन से सोने ही नहीं दिया, जब तक वो सो नहीं गयी.
आखिर हम कब जागेंगे? अभी और कितनी 'शशियाँ' चिरनिद्रा में सोने के लिए मजबूर की जाती रहेंगी?

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

'स्‍त्री-सम्‍मान और मैं' - मेरा अन्‍तर्मन (My Conscience)


अकारण ही... आज अकारण ही मन अपने अन्‍दर के खालीपन को स्‍वीकारना चाह रहा है। शब्‍द - अर्थ और फिर अर्थ्‍ा के भीतर के अर्थ। कितना ही छल भरा है मन में।
सच को स्‍वीकारने का साहस होता ही कब है। कब स्‍वीकार पाया हूँ अपने अर्थों के भीतर के अर्थ को। कई मर्तबा स्‍वीकार भी किया, तो ऐसी व्‍यंजना के साथ, कि सुनने वालों ने उस स्‍वीकारोक्ति को भी मेरी महानता मानकर मेरे भीतर के उस सत्‍य को धूल की तरह झाड़ दिया।
ऐसा ही एक सत्‍य है, 'स्‍त्री-सम्‍मान और मैं'। स्‍त्री होना ही पूर्णता है। स्‍त्री स्‍वयं में शक्ति का रूप है। स्‍त्री - शक्ति का सम्‍मान करना ही नैतिकता है। स्‍त्री का अपमान करना, निष्‍कृष्‍टतम् पाप है।
इन बातों का ऐसा प्रभाव हुआ, कि मैं भी स्‍त्री-शक्ति को विशेष रूप से खोजकर, उनका सम्‍मान करने लगा। अक्‍सर सड़क किनारे से गुजरते हुये ये ख्‍याल आ जाता था कि काश कोई सुन्‍दर स्‍त्री-शक्ति लड़खड़ाये, और मैं दौड़कर उसकी सहायता और सम्‍मान कर सकूं। काश यह मुझ अकेले की बात होती. 
सोच रहा हूँ कि आखिर स्‍त्री-सम्‍मान के लिये इतनी बातों और इतने प्रयासों की आवश्‍यकता ही क्‍यूँ आन पड़ी ?और फिर इनका अपेक्षित परिणाम क्‍यूँ नहीं मिला ? क्‍यूँ स्‍त्री - सम्‍मान की सहज भावना नहीं पैदा हो पाई इस मन में ? क्यों सहायता से पहले सूरत देखने की इच्छा आ जाती है? क्‍यूँ मुझ जैसे अधिकतर युवाओं में 'सुन्‍दरतम् स्‍त्री-शक्ति का अधिकतम् सम्‍मान' की भावना बनी रही ?
क्‍यूँ शक्तिहीन और सौन्‍दर्यविहिन के प्रति सहज सम्‍मान-भाव नहीं जागृत हो सका मन में ?
इन प्रश्‍नों का उत्‍तर अभी भी अज्ञेय ही है।
भीतर के इस सत्‍य का कारण, समाज से चाहता हूँ।
उत्‍तर अभी प्रतिक्षित है।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

(तस्वीर गूगल सर्च से साभार)

दोधारी तलवार: कैसे बचेगी पूजा??(Double-edged sword)




पूजा, हरीश की पत्नी. एक सुन्दर-सुशीला गृहिणी. पिछले कुछ दिनों से पड़ोस में रहने वाले लड़के, विनय के आचरण से थोडा परेशान सी थी. जब विनय की हरकतें बढ़ने लगी, तो एक दिन पूजा ने परेशान होकर अपने पति हरीश को सारी बात से अवगत कराया.
पति-पत्नी इस बात को लेकर परेशान थे. फिर उन्होंने अपने पहचान के एक विश्वसनीय व्यक्ति रामबाबु से इस बात को लेकर विमर्श किया. रामबाबु ने पूजा से कहा,"अरे, ये भी कोई बात है...? ये बताओ, जब उसने तुम्हे पहली बार परेशान किया, तब तुमने उसे डांटा था?"
"जी..नहीं तो....मैंने सोचा शायद खुद ही मान जाए..लेकिन जब नहीं माना, तो फिर मैंने इनको बता दिया.." पूजा ने मासूमियत से जवाब दिया..
"यही तो...तुम सब भी ना...अरे तुमने उसे ढंग से डांटा तो होता..उसकी क्या मजाल, दुबारा तुम्हे कुछ बोल देता..बिना मतलब हरीश को परेशान कर दिया...ये कोई हरीश को बताने वाली बात थी!!? इस से तो तुम खुद भी निबट सकती थीं..." रामबाबू ने पूजा को समझाते हुए कहा.
यद्यपि फ़िलहाल जो समस्या बन गयी है, उसका कोई हल नहीं है उनके पास....

(2)
पूजा, हरीश की पत्नी. एक सुन्दर-सुशीला गृहिणी. पिछले कुछ दिनों से पड़ोस में रहने वाले एक लड़के, विनय के आचरण से कुछ परेशान थी. पूजा ने एक दो बार उसे डांटा भी. फिर जब एक दिन उसकी हरकत ज्यादा बढ़ गयी, तो पूजा ने गुस्से में आकर उसे थप्पड़ मार दिया. विनय हतप्रभ सा वहां से चला तो गया, लेकिन उस थप्पड़ के लिए बदले की भावना उसके मन में आ गयी थी. उसने मोहल्ले के कुछ असामाजिक तत्वों के माध्यम से पूजा के दामन पर कीचड उछालने का प्रयास किया. बात बढ़ने लगी तो पूजा ने हरीश को सभी बातों से अवगत कराया. पति-पत्नी दोनों परेशान थे. फिर उन्होंने अपने एक पहचान के विश्वसनीय व्यक्ति रामबाबू के साथ बैठकर इस बात पर विमर्श किया.
"हम्म..क्या कर दिया तुमने...? ये बताओ जब उसने पहली बार तुम्हे परेशान किया था, तब तुमने हरीश को बताया था..?" रामबाबू ने पूजा से पूछा.
"जी नहीं तो..मैंने ही डांट दिया था उसे.. मैंने सोचा मान जायेगा.. फिर उस दिन जब हरकत ज्यादा हो गयी, तो गुस्से में मैंने थप्पड़ मार दिया...मुझे क्या पता था कि. ..." पूजा ने सफाई देते हुए कहा.
"यही तो...तुम सब भी ना...बोलो, हरीश को क्यों नहीं बताया...? दो चार फिल्में देखकर तुम लोगों को हिरोइन बनने का शौक लग जाता है...तुम्हे क्या लगता है, ये आजकल के बच्चे तुम्हारे थप्पडों से डर जायेंगे क्या?? हरीश को बताया होता शुरुआत में ही, तो ये दिन तो ना देखना पड़ता..अब बोलो...क्या होगा?" रामबाबू ने पूजा को समझाते हुए कहा.
यद्यपि जो समस्या सामने आ गयी है, उसका कोई हल नहीं है उनके पास..

अब मैं ये सोच रहा हूँ, कि पूजा को करना क्या चाहिए?
उसका तो कोई भी कदम समाज के हिसाब से ठीक नहीं है..
इस दोधारी तलवार से बचने के लिए पूजा क्या करे??
आखिर कब तक पूजा को ही हर बात का दोषी ठहराया जाता रहेगा?
है कोई जवाब इस समाज के पास?

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Monday, November 29, 2010

राहुल अब सीट नहीं दुल्‍हन तलाशेंगे (What next for Rahul)






बिहार के चुनाव परिणाम अपने अन्दर कई निहितार्थ लिए हुए हैं. हर कोई इसके अर्थ तलाश रहा है. बिहार में यह बदलाव सभी के लिए बहुत कुछ अप्रत्याशित रहा है. लालू-पासवान को शायद अब समझ लेना चाहिए कि पार्टी को प्रा.लि. कंपनी की तरह नहीं चलाया जाना चाहिए. हालाँकि इस बात की उम्मीद कम ही है कि वो ऐसा कोई विश्लेषण कर पाएंगे.
लालू तो अभी भी जीत में रहस्य खोजने में लगे हैं. और पासवान के पास तो है ही क्या? वैसे हुआ तो दोनों ही लोगों के साथ बहुत बुरा. चिराग ने झोपडी जला दी और तेजस्वी का तेज ऐसा कि लालटेन ही बुझ गयी. लालू-पासवान को शर्म तो नहीं ही आई थी उस वक्त भी जब कि जिंदगी भर इनके पीछे-पीछे जिंदाबाद का नारा लगाने वाले तमाम दूसरी पंक्ति के लोगों को नकार कर ये लोग अपने बेटों को लेकर आ गए थे. जे. पी. और लोहिया के आदर्शों की बात करने वाले लोगों का ऐसा हश्र... लालू.. जिनसे कि गाँव-देश की राजनीति को एक नयी दिशा मिल सकती थी, उन्हें नेता के नाम पर अपनी पत्नी और बेटे के अलावा कोई दिखाई ही नहीं देता.
खैर लालू-पासवान से तो कोई और बेहतर अपेक्षा अब रही भी नही है.
लेकिन इस चुनाव में सबसे बड़ा झटका कांग्रेस प्रा. लि. कंपनी के राजा-बेटा राहुल को लगा है. प्रधानमंत्राी के तुल्य बनाये जा रहे राजा-बेटा को मिला परिणाम अप्रत्याशित रूप से निराशाजनक रहा. यह सम्भावना तो नहीं व्यक्त की जा सकती है कि कांग्रेस का राहुल से मोहभंग हो सकता है, क्यूंकि वहां इस बात का भी विकल्प नहीं शेष है. जैसा कि किसी भी प्राइवेट कंपनी में ऐसा विकल्प नहीं हो सकता है. कम्पनी के मालिक के बेटे की तमाम असफलताओं के बाद भी उसके लिए कुछ न कुछ तर्क तैयार कर ही लिए जाते हैं.
राहुल जैसे राजा-बेटा को इस मीडिया ने ही मार डाला. लोकतंत्रा में किसी को युवराज की तरह से पेश करने को आखिर भूख और बदहाली से जूझती जनता कब तक चुपचाप देखती सुनती रहे. बेरोजगारी और बेबसी से बजबजाती जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त हो गया बिहार भला क्लीन शेव्ड युवराज का करता ही क्या? मीडिया को इनके किसी भाषण से ज्यादा राहुल के लिए बहु की चिंता बनी रहती है. मीडिया कभी इस बात को लेकर परेशान नहीं दिखता कि राहुल ने आजतक कभी कुछ कहा भी है देश में चीखते सवालों को लेकर? कोई रास्ता, कोई हल, कोई एजेंडा... दिखाया राहुल ने कभी?
और फिर इसमें भी तुर्रा यह कि इनके स्क्रिप्ट राइटर भी शायद या तो अनभिज्ञ थे या फिर जानबूझ के राहुल की राजनीति को मारने की इच्छा में थे, जो अनर्गल बातें लिख कर दे देते थे माँ-बेटे को..!
केंद्र की सत्ता में काबिज सबसे शक्तिशाली महिला और उनका स्वयमेव शक्तिशाली पुत्रा जब यहाँ-वहां ये कहते फिरेंगे कि सचमुच भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया है.. तो जनता क्या समझेगी? अरे भई जब तुम ही खुद हो सत्ता में, और आज से नहीं साठ साल से तो फिर भला इस भ्रष्टाचार को ख़त्म कौन करने आयेगा? सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार हुआ तो इसी दल में है.
इतना ही नहीं जब वो एक अनपढ़ की तरह केंद्र द्वारा किसी राज्य को दिए गए धन को लेकर तेरा-मेरा करेंगे तो भला जनता को क्या सन्देश जायेगा. ??
जब सर्वशक्तिमान युवराज दो-दो बाहुबलियों की पत्नियों (रंजित रंजन/लवली आनंद) के साथ सभाएं करते फिरेंगे तो जनता क्या अर्थ निकालेगी?
राहुल शुरुआत से ही दिशाहीन राजनीति कर रहे हैं. और मीडिया है कि कभी भी राहुल की निरर्थक बातों और राजनीति को लेकर कुछ नहीं बोलता. उसे बस युवराज के लिए दुल्हनिया की तलाश रहती है.
हालाँकि यह हार स्वयं में राहुल के लिए एक सकारात्मक बात है. इस हार के बाद पहली बार मीडिया में राहुल को प्यारा बच्चा की जगह हार्डकोर तरीके से विश्लेषित किया गया. और राहुल के लिए बहुत बेहतर होगा कि अगर वो अब अपने नौसिखियेपन और अपनी नासमझी को समझ जाएँ. देश में बेरोजगारी से जूझ रहे युवा को क्लीन शेव्ड राहुल से कोई अपेक्षा कैसे हो सकती है जबकि राहुल अपने लगभग घुमाते-फिराते 6 -7 सालों में एक भी बात उन युवाओं के लिए नहीं कर सके. जब राहुल को किसी भव्य से महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में चमचमाते युवाओं के अलावा कोई युवा दिखाई ही नहीं देगा तो फिर भला राहुल को ही क्यों देखें लोग?
जब युवा का अर्थ सिंधिया, जिंदल और पायलट के परिवार से होना ही होगा, तो फिर बाकी देश के युवाओं को उम्मीद ही क्या हो?
राहुल को उनकी राजनितिक हैसियत का अंदाजा जनता ने पहले भी कराया था लेकिन राहुल कुछ भी सीखने को तैयार नहीं दिखे. और यही कारण रहा कि बिहार ने राहुल को फिर से वहीँ पटक दिया, जहाँ से वो चाहे तो अपने लिए दुल्हनियां खोजकर हनीमून पर निकल जाएँ या फिर देश की असली तासीर को समझने की समझ पैदा करें. वैसे भी कांग्रेस का ये प्यारा बच्चा अगर अभी नहीं संभला तो फिर कुछ सालों के बाद उम्र युवा की श्रेणी से भी बाहर कर देगी.

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Saturday, November 27, 2010

बौखलाया विपक्ष कहीं बिहार को बीहड़ ना बना दे (Mandate-less opposition also may be harmful for Bihar)






बिहार के चुनाव परिणाम कई मायने में अलग रहे हैं. पहली बार विकास के नाम परिणाम आया लगता है. भाजपा, जिसमे एक मुर्दनी सी छाई थी पिछले काफी अरसे से, उसमे नयी जान आ गयी, तो वहीँ बाकी दलों में मुर्दनी छा गयी.
कांग्रेस के जनाजे को उठाने के लिए तो चार कंधे मिल गए हैं, लेकिन दुःख तो मुझे पासवान के बारे में सोचकर हो रहा है. लोजपा की अर्थी उठाने के लिए तो चार कंधे भी नहीं मिल पाए. लोजपा का तो जनाजा भी तीन कंधो पे उठता दिख रहा है. लालू की लालटेन बिना तेल की हो गयी है. सूखी बत्ती जल रही है, कब बुझ जाए कुछ पता नही.
लेकिन फिलहाल बिहार एक गहरे संवैधानिक संकट में भी फंस गया है. किसी भी दल के पास विपक्षी दल बनने कि योग्यता नहीं बची है. नीतीश को इतनी अच्छी तरह भी नहीं जीतना चाहिए था. अब विपक्ष विहीन विधानसभा से बिहार किस दिशा में जायेगा?
नीतीश की इस भारी जीत ने स्वयं नीतीश के लिए संकट खड़े कर दिए हैं. यह जनादेश नीतीश से बहुत अधिक अपेक्षा को दर्शा रहा है. लालू या पासवान से किसी को उम्मीद थी भी नहीं. लालू जब सत्ता में थे तब भी उनसे बहुत अधिक उम्मीद नहीं थी किसी को. उनकी असफलता से किसी प्रकार से भी राजनीति की परिभाषा में कोई बदलाव नही आने वाला था, ना आया. कारण स्पष्ट है कि लालू का कद किसी परिभाषा को बनाने या बिगाड़ने के लायक था ही नही. लालू की असफलता भी उनकी नीजी असफलता ही बन कर रह गयी. लेकिन नीतीश के मामले में ऐसा नहीं है. नीतीश ने जनता से कहा था कि वो बिहार बना रहे हैं, और अगर जनता चाहती है कि ये काम चलता रहे तो उन्हें फिर से मौका मिलना चाहिए. जनता ने उनमे अपना भरोसा भी दिखा दिया है. और अब इस भरोसे में किसी भी तरह की चूक सिर्फ नीतीश ही नहीं पूरे बिहार और साथ साथ लोकतान्त्रिाक प्रक्रिया की असफलता के रूप में गिना जायेगा. अभी तक नीतीश ने जो भी विकास बिहार में किया था वह सब पूरी तरह से बाजार के हित में होने वाले विकास थे. निर्माण कार्यों को वास्तविक विकास नहीं कहा जा सकता है. यह विकास की प्रक्रिया का एक आवश्यक अंग आज के समय में भले ही है, लेकिन फिर भी सड़क और पुल निर्माण को वास्तविक विकास नहीं माना जा सकता है. नीतीश की इस दूसरी पारी में जनता को उनसे वास्तविक विकास की उम्मीद रहेगी. अब नीतीश से जिस विकास की अपेक्षा है वह बाजारोंमुख विकास नही है. बल्कि अब जिस विकास की उम्मीद उनसे है उसके होने से बाजार को कोई सीधा लाभ नहीं होगा. ऐसे में नीतीश के लिए यह एक गंभीर चुनौती हो जाएगी कि अगर बाजार उनके वास्तविक विकास में उनके साथ नही खड़ा हुआ तो वो क्या करेंगे. अब नीतीश को ऐसी किसी भी स्थिति से निपटने के लिए भी तैयार रहना होगा.
विपक्षविहीन सदन भी एक छुपा हुआ खतरा दिखा रहा है. अब विपक्ष बुरी तरह से बौखलाया हुआ है. और सबसे बुरी बात ये है कि उसके पास सदन में जगह नहीं है अपने विरोध को जाहिर करने के लिए. अब बहुत संभावना है कि यह बौखलाया हुआ विपक्ष अपने विरोध को सड़कों तक लेकर चला आये. और यह बात तो हर सामान्यजन जानता है कि जैसे ही घर की बातें घर की दीवारों को पार करके बाहर निकलती हैं, घोर अराजकता का जन्म होता है. बिहार की राजनीति में भी यही खतरा दिखाई दे रहा है. कहीं यह घबराया और लुटा-पिटा विपक्ष सदन के पटल पर रखे जाने वाले विरोध को सड़क पर ना ले आये. किसी भी सत्तापक्ष के लिए यह सबसे कठिन पल होता है. सदन और सड़क के विरोध के अंतर को समझना होगा.
इस बार के परिणाम में कुछ और भी बातें सोचने की हैं. इस बार के चुनाव में पहली बार बिहार में सभी वामपंथी दल एकजुट होकर लड़े थे और आश्चर्यजनक रूप से एक सीट पर सिमट गए. वामपंथी दलों की यह हार बहुत से प्रश्न खड़ा करती है. क्या नक्सल का खतरा समाप्त हो गया है? या फिर अब बौखलाए हुए नक्सली और भी उत्पात मचाएंगे? या कि नक्सल समर्थकों ने भी इस बार मिलकर इन सरकारी लाल झंडे वालों को सबक सिखाने के लिए नीतीश का समर्थन किया है.
और फिर यह भी सोचने का विषय है कि बिहार की यह बयार अगर बंगाल तक पहुंची तो बुद्धदेव भट्टाचार्य के लिए कैसा संकट खड़ा होने वाला है?
यह अप्रत्याशित जनादेश देखने में जितना सुखद और प्रिय लग रहा है, इसमें उतना ही गंभीर संकट छुपा है.
नीतीश को संसद से लेकर सड़क तक समस्याओं से जूझते हुए विकास की डगर को तय करना है. और जब कि सदन विपक्ष विहीन हो गया है, ऐसे में मीडिया की जिम्मेदारी भी कई गुना बढ़ जाती है. मीडिया को भी अब नीतीश-पुराण बंद करके एक स्वस्थ विपक्ष की तरह से भूमिकाएं बनानी होंगी. जब तक मीडिया एक स्वस्थ आलोचक की भूमिका में नहीं आ जाता है तब तक बिहार के लिए संकट बना रहेगा.
और फिर मीडिया के चरित्रा को लेकर अब गंभीर चुनौती होगी जब कि नीतीश बिहार में उस वास्तविक विकास की नींव रखेंगे जिसकी चर्चा हमने शुरू में की है कि वो विकास बजारोंमुख नही होगा, तब क्या मीडिया बिहार की जनता के पक्ष में खड़ा हो पायेगा या फिर बाजार की शक्तियों के सामने घुटने टेक देगा. ‘रहा न कुल कोई रोवनहारा’ जैसे विपक्ष को लेकर नीतीश कितने संतुलन के साथ विकास कर पाएंगे यह उनके स्वयं के सामने एक बहुत बड़ा प्रश्न है. पूरे राष्ट्र को यह आशा करनी चाहिए कि बिहार अब निर्माण कार्यों से आगे बढ़कर वास्तविक विकास की यात्रा पर बढ़ सके. अब नीतीश की असफलता बिहार को कई दशक पीछे कर देगी.

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Monday, November 22, 2010

प्रेम के नए सृजनात्‍मक तौर तरीके (Creative techniques of Love)


एक वक़्त हुआ करता था कि जब हर जगह फर्स्ट हैण्ड का बोलबाला और मांग हुआ करती थी. उस वक़्त में प्रेमी-प्रेमिका भी फर्स्ट हैण्ड ही खोजे जाते थे. प्रेम में कोई विशेष रासायनिक-भौतिक शर्ते नहीं हुआ करती थीं. उस वक़्त में लड़कियां अपनी सहेलियों को बताया करती थीं कि मेरा प्रेमी तो किसी लड़की की तरफ आँख उठाकर देखता भी नहीं. मुझसे पहले उसने किसी लड़की के बारे में सोचा भी नहीं. लड़के भी कुछ इसी तरह अपनी प्रेमिका की तारीफ करते थे.. 
उस वक़्त में लड़कों को किसी लड़की से प्रेम सम्बन्ध शुरू करने के लिए कुछ ख़ास मशक्कत नहीं करनी होती थी. लड़की के सामने कुछ साधू जैसे बनके रहो. उसकी सहेलियों की तरफ भी नज़र उठाकर नहीं देखना. ये सब कुछ अच्छे लड़कों की पहचान होती थी. किसी तरह उस लड़की से दोस्ती के बाद जब बात धीरे धीरे प्रेम के इजहार तक पहुंचती थी तो बस कुछ गिने-चुने ही संवाद हुआ करते थे. वो बिल्कुल शराफत से कहा करता था कि -'प्रिये तुम मेरी जिंदगी की पहली और आखिरी लड़की हो, मैंने तो कभी तुम्हरे सिवा किसी दूसरी लड़की कि तरफ आँख उठाकर देखा भी नहीं कभी. तुम्ही मेरा पहला और आखिरी प्रेम हो.' हर लड़के को ये संवाद याद हुआ करते थे. 
कई बार तो हम में से कई लड़के हर बार यही संवाद बोल कर काम चला लेते थे. बीसवीं बार भी हम यही कहते थे. हम जब भी करते पहला और सच्चा प्रेम ही करते. हमारी गिनती कभी भी पहले से आगे नहीं बढती थी. ना ही कभी हमारे प्रेम की सच्चाई कम होती थी. हमेशा उतना ही सच्चा प्रेम करते थे. 
हमारी बीसवीं प्रेमिका भी हमें इतना ही पहला और सच्चा मानती थी जितना कि हमारी पहली प्रेमिका ने माना था. 
सब कुछ ठीक ठाक ही चल रहा था. सबके पास पहले और सच्चे प्रेमी प्रेमिका हुआ करते थे. लेकिन फिर अचानक से ग्लोबलाइजेशन (वैश्वीकरण) के कारण बाज़ार ने अपनी तस्वीर बदल ली. सेकंड पार्टी और थर्ड पार्टी का चलन बढ़ने लगा. अब लोगों को लगने लगा कि नयी 'मारुती -800 ' लेने से बढ़िया है कि अगर उसी रेट में कहीं से बढ़िया सेकंड हैण्ड एस-कोडा या होंडा सिटी मिल जाए तो क्या बुराई है. जैसे जैसे बाज़ार ने अपनी रंगत बदली तो हर जगह की रंगत बदलने लगी. बल्कि अब तो बाज़ार की हालत तो ये गयी कि कोई नयी कार भी ले तो लोगों को लगता है कि झूठ बोल रहा है. 
अब प्रेमी भी कुछ ऐसे ही खोजे जाने लगे. अब धीरे धीरे ये हालत हो गयी कि अगर कोई लड़का कहता कि मैंने तुम्हारे सिवा किसी की ओर नज़र उठा के देखा ही नहीं, तो लड़की उसकी आँखें टेस्ट करवाने निकल पड़ती कि कहीं नज़रें कमजोर तो नहीं हैं. जैसे ही कोई बंदा ऐसा साधू जैसा दिखता है तो लड़की सोचती है कि या तो फरेब कर रहा है, नहीं तो कोई रासायनिक-भौतिक कमी होगी. कॉलेज में पहुँच चुका लड़का किसी भी लड़की के फेर में ना पड़ा हो, ऐसा तो सोचकर भी आश्चर्य होने लगा. अब तो कोई लड़का बेचारा सही का भी साधू हो तो भी शक की ही नज़र से देखा जाने लगा. लड़कों के सामने भयानक मंदी का दौर छा गया. 
बाज़ार की मांग के हिसाब से नयी रणनीतियां जरूरी हो गयी थीं. अब तो पहली और आखिरी कहना जैसे कोई गुनाह सा हो गया था. 
अंततः नयी रणनीतियां भी सामने आ ही गयीं. अब लड़कों ने पहली-आखिरी कहना छोड़ दिया. अब वो खुद ही अपने पहले प्रेम के किस्से सुनाने लगे. इसके लिए बाकायदा प्लाट तैयार किया जाने लगा. 
पहले लड़की से दोस्ती करो. उसकी सहेलियों वगैरा से भी कोई खास डरने की जरूरत नहीं रही. सबसे खुल के बोलो बात करो. फिर एक दिन यु ही अचानक से किसी बात के बीच में गंभीर हो जाना. बस इतना कहना- "... तुम जब ऐसे कहती हो ना.. तो.. अक्चुअली (दरअसल) ... खैर छोड़ो... " बस इतना कहकर चुप हो जाना. अब लड़की भला ऐसे कैसे छोड़ दे?? एक दोस्त होने के नाते पूछना तो पड़ेगा ही. वो भी उत्सुकता के वशीभूत होकर जिद करती है-"बताओ तो क्या बात है. अपने दोस्त को भी नहीं बताओगे?" एक दो बार टालकर फिर लड़का अपनी कहानी बता देता है, बात के बीच में एक दो बार आँख पर रुमाल या हाथ जरूर फेर लेता है.  और फिर उस दिन वो बिना कोई और बात किये कुछ उदासी के साथ विदा लेके चल देता है. 
इस सब में दो-तीन तरह के सेन्ट्रल आईडिया की कहानी होती है. या तो पहले वाली कहानी की लड़की दुनिया से गुज़र गयी, या फिर किसी दूसरे शहर चली गयी,  या उसकी शादी हो गयी या फिर आखिर विकल्प ये कि बेवफाई कर गयी. लड़के के ही किसी दोस्त के साथ वफ़ा निभाने लगी. लड़का बेचारा एक दम दूध का धुला हुआ उसकी बेवफाई में तड़प रहा होता है. उसे सहानुभूति की सख्त जरूरत होती है. हालाँकि वो सहानुभूति से भी इंकार करता है. वो कहता है कि उसने उसके बाद किसी दूसरी लड़की की तरफ देखा ही नहीं. दिल या मन जो भी हो.. वो करता ही नहीं .. 
अब तो किसी और लड़की के बारे में सोचता भी नहीं है. ऐसा ही और भी कुछ-कुछ. इस सब में एक बात पक्की है कि पहली कहानी वाली लड़की किसी भी हालत में उस शहर में नहीं होती है जिस शहर की लड़की को कहानी बताई जा रही होती है. 
हालाँकि सुनने वाली लड़की इतना दिमाग नहीं लगाती है. वो भावनाओं में बह रही होती है. उसे दो बातें समझ में आ जाती हैं, एक तो ये कि लड़के में कोई कमी नहीं है, वो प्रेमी बनने की काबिलियत रखता है. दूसरा ये कि लड़का बहुत सही भी है. ईमानदार है, जो कि उसने अपनी पिछली बात खुद ही बता दी. कुछ भी नहीं छिपाया. विश्वास के काबिल है. दिल का मारा है. किसी लड़की ने बेवफाई की है. और फिर इस तरह से सहानुभूति के रूप में नए प्रेम का सृजन होता है. कभी कभी लड़का पहली कहानी में खुद को भी दूध का धुला नहीं साबित करता है. बल्कि वो कहता है कि वो गलत था, लेकिन अब उसे अपनी गलती का एहसास है और वो प्रायश्चित की आग में जल रहा है. उसकी तो हंसी भी गम को छुपाने का तरीका है. इस सब में बड़े-बड़े शायरों की मेहनत भी बहुत काम आ जाती है. कुल मिलाकर इस तरह से एक नए प्रेम का सृजन होता है.
यही नहीं...
नए प्रेम के सृजन का एक और भी बहुत तेजी से उभरता हुआ और कामयाब तरीका भी आ गया है. ये वो तरीका है जो कि हमने यहाँ इस्तेमाल किया है. 
अब ये भी एक सफल तरीका है कि लड़की के सामने खुद ही लड़कों की बुराई कर दो. सामने वाले की चादर को इतना गन्दा साबित कर दो कि तुम्हारी चादर खुद चमकदार लगने लगे. क्यूंकि ऐसा हुआ है. कभी कभार इस तरह की बात करने के बाद लड़की उल्टा हमसे ही प्रेम करने की इच्छुक हो बैठी. तो हमसे भी सावधान रहिये. 
हालाँकि यह सब पूर्ण सत्य नहीं है. लेकिन पूर्ण असत्य भी नहीं है. बस कहने का प्रयास यही है कि किसी पर भी विश्वास कीजिये.. लेकिन अन्धविश्वास नहीं.. 
FAITH IS GOOD... BUT BLIND FAITH IS HARMFUL..

अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Tuesday, November 16, 2010

दर्द बहुत गहरा तो नहीं था..






दर्द बहुत गहरा तो नहीं था..
शायद था..।
मैं रिश्तों में ठहरा तो नहीं था..
शायद था।।
मैंने ये तो नहीं सोचा था रिश्ता कैसे जीना है
हंसके वक़्त कटेगा सारा या कि आंसू पीना है।
जाने कब किसने क्या दिया मालूम नहीं..
कैसे कह दूं जिसने दिया, उसने ही सब छीना है।।
सपनो पर पहरा तो नहीं था..
शायद था।
मैं रिश्तों में ठहरा तो नहीं था..
शायद था।।

रोया भी तो नहीं था.. रोने का अधिकार नहीं
खोया भी तो नहीं था.. खोने को संसार नहीं .।
क्यों आखिर रोना.. धोना..सुनकर उसको
उसने तो इतना ही कहा.. वो बचपना था प्यार नहीं।।
अश्कों का कोई सहरा तो नहीं था..
शायद था ।
मैं रिश्तों में ठहरा तो नहीं था..
शायद था।।

पागल हूँ, पागल ही सही.. इसमें उसका अपराध भी क्या.
आँखें चुप और दिल रोये.. इस से अच्छा संवाद भी क्या।
उस से पहले भी तो अपना,
जीना-मरना एक ही था
इस जीने में रखा है,
आखिर उसके बाद भी क्या ।।
हर चेहरा वो चेहरा तो नहीं था..
शायद था..

मैं रिश्तों में ठहरा तो नहीं था..
शायद था।।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

युवा : अंतहीन भटकाव की ओर ..


"युवा-शक्ति राष्ट्र की क्षमता का पैमाना होती है"
यह उक्ति स्वतः ही किसी राष्ट्र के युवाओं की महत्ता को व्यक्त करती है. युवा-शक्ति राष्ट्र की शक्ति का प्रतीक मानी जाती है. राष्ट्र के समृद्धि का द्योतक मानी जाती है. ऐसे में यदि किसी राष्ट्र की कुल जनसँख्या की पचास प्रतिशत से अधिक युवा-शक्ति हो, तो उस राष्ट्र का विश्व के समृद्ध और अग्रणी राष्ट्रों में सम्मिलित ना होना, लगातार कई दशकों से विकासशील राष्ट्र कहा जाते रहना, निश्चय ही उस राष्ट्र की युवा-शक्ति तथा उसकी क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगाता है. ऐसा ही एक अनुत्तरित प्रश्न लग गया है अपने राष्ट्र हिंदुस्तान के युवाओं पर भी. 
पचास प्रतिशत से अधिक युवाओं का भारत देश आज भ्रष्ट राष्ट्रों की सूची में गिना जाता है. भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी जैसी ना जाने कितनी लिप्साओं में हमारा राष्ट्र अग्रणी माना जाता है. आज युवाओं का एक बड़ा वर्ग बड़ी शान से कहता है - "सौ में नब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान" और फिर इस मसखरी पर खीसें-निपोरने वाले मसखरों की एक लम्बी फेहरिस्त है. इन सबके बीच राष्ट्र भाव कहाँ लुप्त हो जाता है, इस बात का किसी को भान ही नहीं रहता. 
आज का युवा वर्ग राष्ट्र की अवधारणा से शून्य हो चुका है. आज युवा नैतिकता शब्द का अर्थ जानने-समझने की इच्छा नहीं रखता. उसे इस बात से सरोकार नहीं है कि राष्ट्र की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर क्या है, लेकिन उसे भली-भांति पता है कि बॉलीवुड में इस वर्ष किस श्रेणी की कितनी फिल्में बन रही हैं. 
उसे नहीं पता कि इस वर्ष सरकार ने गन्ने के लिए कितना मानक मूल्य निर्धारित किया है, लेकिन उसे बड़े-बड़े मल्टीप्लेक्स में टिकट की कीमत पता है. उसे इस बात से मतलब नहीं होता कि हर रोज कितने गरीब भूख से बेहाल होकर दम तोड़ देते हैं, लेकिन उसे पता होता है कि ऐश्वर्या अपनी सुन्दरता के लिए खाने में क्या परहेज करती है. उसे नहीं पता कि उसके मुंह में निवाला पहुंचाने के लिए किसान कितनी  मेहनत करता है, लेकिन उसे पता है कि अपने शरीर-सौष्ठव को बनाए रखने के लिए ऋतिक रोशन कितने घंटे व्यायामशाला में रहता है. 
आज युवाओं के अंतर्मन से घटती नैतिकता, विचारों में बढती पाशविकता बहुत गहरा प्रश्न खड़ा करती है कि 'क्या युवा दिशाहीन हो गया है ?' 
कदापि नहीं!! युवा दिशाविहीन नहीं है, अपितु उसने एक गलत दिशा अख्तियार कर ली है. यदि कोई चौराहे पर खड़ा दिशाविहीन सा ये सोच रहा हो कि किस मार्ग पर जाना चाहिए तो उसे समझाकर सही दिशा दिखाई जा सकती है, परन्तु यदि कोई गलत मार्ग पर आगे बढ़ गया हो तो उसे सही रस्ते पर लाना दुष्कर होता है और आज युवा गलत मार्ग पर बहुत आगे बढ़ गया है.
आज युवाओं का बड़ा वर्ग दैहिक सुख, समृद्धि तथा मन के पाशविक विचारों की उत्तेजना में कुछ भी कर जाने को तत्पर है. जिसका साक्ष्य हर रोज समाचार पत्रों की सुर्खियाँ हैं जिनमे चोरी, लूट-पाट, मार-पीट, हत्या और बलात्कार जैसे समाचार वर्तमान निष्‍कृष्‍टता की निम्नतम हद को स्पष्ट करते हैं, जिनमे लिप्त एक बड़ा वर्ग युवाओं का ही है.
वर्तमान में नशाखोरी भी युवाओं में पसंदीदा शगल बन चुका है. सिगरेट के लम्बे कश में धुएं के छल्ले बनाकर राह चलती बालाओं पर फब्ती कसना, नशे में डूबकर देर रात पार्टियाँ करना आज के युवा की शान है. ऐसे में यदि इन सब महान उपलब्धियों के बाद हिंदुस्तान भ्रष्ट राष्ट्रों में शुमार है, तो क्या गलत है?
परन्तु यह सबकुछ लिखने का उद्देश्य मात्र लिखना ही नहीं है, बल्कि यह लिखना भी तभी सार्थक है कि यदि पढ़कर हम यह सोच सकें कि इन सबका कारण क्या है? क्यों है? और फिर उस कारण को दूर करने का प्रयास करें. 
जो भी हो इन सबके लिए दोषी हम स्वयं ही हैं. ये सब कुछ पढने-देखने वाले हम सब इसी युवा-पीढ़ी का हिस्सा हैं. हम सब या तो गलत हैं या फिर गलत के मूक-दर्शक. यदि हम अपने स्तर पर प्रयास करें तो परिवर्तन भी संभव है. यदि हम समाधान का हिस्सा नहीं हैं तो फिर हम खुद ही एक समस्या हैं.

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Monday, November 15, 2010

मैं भी रोता हूं ...

हँसते हुए चेहरे के पीछे गम भी होता है।
सूखी नज़रों के पीछे दिल नम भी होता है।।
मैं अगर नहीं रोता, तो क्या 
मेरे अन्दर कोई जज्बात नहीं।
मेरी नज़रों में अगर चमक है, तो क्या 
मेरी ज़िन्दगी में कहीं काली रात नहीं।।
सूरज के पीछे भी अँधेरा हो सकता है।
हंसने वाला भी छिप के रो सकता है।।
मैं तो चाहता हूँ कि सबके गम पी लूं।
सबकी काली रातें अकेले जी लूं।।
मैं जल जाता हूँ औरों की गरमी के लिए,
मैं गल जाता हूँ औरों की नरमी के लिए ।
मैं ढल जाता हूँ नए सूरज के लिए,
मेरी राख है किसी काजल की जरूरत के लिए।।
मगर, दुनिया कहती है 
मैं बेशरम हँसता हुआ पत्थर हूँ।
आंसुओं के सूखने से बने
रेत का समन्दर हूँ।।
उन्हें लगता है इस बेशरम पत्थर पर
उनके वार का जख्म शायद कुछ कम ही होता है।
मगर सच ये है दुनिया वालों, कि
ये 'पत्थर' भी हर रात अपने 
दामन में छिप-छिप के रोता है।।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

सीख नहीं पाया..

मैं रिश्तों को शायद कुछ 
ज्यादा गहरा जीता हूँ..
इसीलिए शायद रिश्तों को 
जीना सीख नहीं पाया।।
मैं जख्मों को शायद कुछ 
ज्यादा गहरा सीता हूँ..
इसीलिए जख्मों को शायद
सीना सीख नहीं पाया।।

जख्म हुए ज्यादा गहरे 
जब जख्मो को सीना चाहा
रिश्ते ज्यादा दूर हुए 
जब रिश्तों को जीना चाहा।।
भावशून्य लगता हूँ 
जब भावों में बहता हूँ
अश्क नज़र आये ज्यादा 
जब अश्कों को पीना चाहा।।

लेकिन रिश्ते घाव नहीं 
कि ऊपर-ऊपर से सी डालूँ
कैसे भावशून्य होकर भी
हर रिश्ता मैं जी डालूँ।।
क्या जग जैसा जीना सीखूं, 
स्वांग रचूं मरने का
क्या क्रम मैं भी छोड़ चलूँ 
आँखों में मोती भरने का।।

जो जितना उथला होता है, 
उतनी जल्दी भरता है
जितनी जल्दी भर जाए, 
वो झोली उतनी अच्छी है।।
पैमाने अब बदल गए हैं 
रिश्तों की गहराई के..
उथली सी नज़र, आँखें भरकर, 
प्रीत यही अब सच्ची है।।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद


Monday, November 1, 2010

शब्दों का श्रृंगार जरूरी है....




भावना पर शब्दों का श्रृंगार जरूरी है. 
दिल से दिल तक इक झीना सा तार जरूरी है.

कुछ रिश्तों में सब कुछ होना
दिल ना चाहे जब कुछ खोना
उन यादों में जीना मरना
बिन उनके क्या हँसना रोना
जीवन में ऐसा भी कोई प्यार जरूरी है
दिल से दिल तक....

चुप रहना भी शब्दों का श्रृंगार हुआ करता है
ख़ामोशी की धड़कन से दिल जो दुआ करता है
लब हिलते हैं चुप हो जाते हैं, जब
कोई ख़ामोशी से दिल को छुआ करता है
शब्दों के धड़कन पर ऐसा वार जरूरी है
दिल से दिल तक....

क्यों जीवन में इतना कोई ख़ास भी होता है
क्यों धड़कन के इतना कोई पास भी होता है
चुप रहना-कहना मुश्किल कर दे
क्यूँ कोई हर पल का एहसास भी होता है
कुछ प्रश्नों का हो जाना निस्तार जरूरी है..
दिल से दिल तक ....


-अमित तिवारी 
समाचार संपादक 
निर्माण संवाद

तस्वीर साभार- http://www.pencilsketch.co.uk/ 

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