...........................

Saturday, December 29, 2012

जब शहर हमारा सोता है...(Deadly Silence)

दस मेट्रो स्टेशन पर आवाजाही बंद कर दी गयी। कर्फ्यू जैसे हालत बना दिए गए। दिल्ली के लोग दिल्ली में ही बंधक बना दिए गए। जैसे ही खबर आई की दामिनी नहीं रही...
सरकार एकसूत्रीय एजेंडे पर चल रही है 'हम बलात्कार नहीं रोक सकते हैं, लेकिन बलात्कार के विरोध में होने वाले प्रदर्शन तो रोक ही सकते हैं।'
आज दामिनी कोई व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं रह गयी है, वो एक समूहवाचक संज्ञा बन गयी है। लेकिन पता नहीं किस समूह का प्रतीक बनेगी।
जिस दिन यह पैशाचिक कृत्य सामने आया था उस दिन के बाद और भी कई दामिनियाँ नोची जा चुकी हैं। उस से पहले भी अनगिनत दामिनियों के दामन पर घाव लगते रहे हैं...
वाद-विवाद का दौर चल रहा है। हर कोई गुस्से को परिभाषित करने में लगा है। अपराधियों के लिए कड़ी सजा की मांग हो रही है। सरकार, जिसका वैचारिक स्खलन हो चुका है, हमेशा की तरह शिथिल है। शिथिलता भंग होती है तो लोगों पर लाठियां चलती हैं। रास्ते रोक दिए जाते हैं। विरोध का दमन कर दिया जाता है।
लोगों में गुस्से का उबाल है। सबमे है या कुछ में है इसे निर्धारित नहीं किया जा सकता। भावनाओं से उपजे ज्ञान और ज्ञान से उपजी हुई भावना में फर्क होता है। स्वपीडा और परपीड़ा का भेद अभी नहीं मिटा है। शायद इसीलिए विरोध के भी कई प्रकार हैं।
दामिनी की पीड़ा को महसूस कर पाना किसी के लिए संभव नहीं है। ऐसी कामना भी नही है कि फिर कहीं किसी कोने में कोई दामिनी ऐसी पीड़ा को सहने के लिए अभिशप्त हो। आवेश में बहुत से लोग कह रहे हैं कि अपराधियों के घर में ऐसा कुछ होता तो उन्हें अक्ल आ जाती। इसका समर्थन नही किया जा सकता है। स्त्री चाहे जिस घर में हो वह स्त्री है, और उसका सम्मान उतना ही है। अपराधी के अपराध की सजा उसके घर की स्त्रियों को भी नही मिलनी चाहिए। सजा अपराधी को मिलनी चाहिए।
दामिनी की मौत (हत्या) ने सरकार के लिए रास्ता बना दिया है। अपराधियों को फांसी जैसी कठोर सजा दी जानी चाहिए। जितनी जल्दी ऐसा फैसला होगा बेहतर होगा। वैसे भी कहा जाता है की 'भय बिनु होय न प्रीती'. फांसी की सजा को ख़त्म करने की मांग करने वाले लोगों को समझना होगा  कि आज का समाज उस आदर्श स्तर के आसपास भी नही है जहाँ कि फांसी की सजा निरर्थक हो जाती है। शरीर का भी कोई अंग अगर ख़राब हो जाये तो उसे काटकर फेंक देना ही पूरे शरीर के लिए बेहतर होता है। उस स्थिति में अगर उस अंग के अधिकार की चिंता की गयी तो पूरा शरीर सड़ जायेगा। ये और इन जैसे तमाम अपराधी भी समाज रुपी शरीर के ऐसे ही सड़े हुए अंग हैं जिन्हें जितनी जल्दी काट दिया जायेगा, शरीर के बाकी अंगों को बचा पाना उतना ही आसान होगा।
लेकिन यह भी सोचना उतना ही जरुरी है कि क्या इतने मात्र से ही सब ठीक हो सकता है। बिलकुल नहीं। इस बात का प्रयास भी जरुरी है कि जिन अंगों को अभी बीमारी ने पूरी तरह अपने आगोश में नही लिया है, उनका समय रहते इलाज किया जाए। और ऐसे संक्रमित अंगों का एक प्रत्यक्ष उदाहरण तमाम सरकारी, गैर सरकारी स्कूलों से निकलने वाले बच्चों की बेहया होती जा रही भीड़ है। छुट्टी के बाद किसी स्कूल के सामने से बिना टिका-टिपण्णी के किसी लड़की का निकलना जितना दुष्कर है, उसकी कल्पना भी नही की जा सकती है।
छुट्टी के बाद सरकारी बसों में सवार बच्चों की बेहूदगी और बेशर्मी पर लगाम लगाने का प्रयास भी इतना ही जरुरी है। यही संक्रमित अंग कल समाज के सड़े हुए अंग बन जायेंगे और तब इन्हें भी काटने की जरुरत पड़ेगी। सारा शरीर कट जाए इस से बेहतर है कि समय रहते इलाज हो।
सोचना ये भी है की 'दामिनी' किसका प्रतीक बनती है? बलात्कृत होकर मर जाने वाली तमाम पाकिजाओं का, या फिर किसी नयी चेतना का, जो इसके बाद हर पाकीजा के दामन को सुरक्षित होने का विश्वास दे सके।

-अमित तिवारी
नेशनल दुनिया
 

Sunday, December 9, 2012

मेरे सब सपने उसमे ही रहते हैं...(Mere sapne)

माना कि शब्दों का दामन छूटा है,
माना अल्फाजों का धागा टूटा है.
माना कुछ पल बीत गए बिन छंदों के,
माना नाम नहीं लिखे खग वृन्दों के.
लेकिन यह न सोचो सच कुछ बदला है,
रिश्तों का वो आसमान अब धुंधला है.
कुछ कोहरे मौसम के छाये हैं तो क्या!
कुछ पल गीत नहीं गा पाए हैं तो क्या!
यादों की बरसात कहाँ कब थमती है?
वो प्यारी सी बात कहाँ कब थमती है?
उसका आना-जाना, हंसना-खिलना हो,
उससे मिलना जैसे खुद से मिलना हो.
उसके लब भी मेरी बातें कहते हैं,
उसके गम मेरी आँखों से बहते हैं.
मेरे सब सपने उसमे ही रहते हैं..
मेरे सब सपने उसमे ही रहते हैं....

-अमित तिवारी (Amit Tiwari)
नेशनल दुनिया  

Wednesday, February 1, 2012

तुम्हे तो याद ही होगा...

ये बातें हैं पुरानी सी
मैं कहता हूँ.. सुनो जानां..
तुम्हारी याद में अब भी
तो रहता हूँ.. सुनो जानां..

तुम्हे वो याद तो होंगे
जो सपने हम सजाते थे..
मोहब्बत के वो मीठे पल
जो रातों को जगाते थे..
तुम्हारे लब की थिरकन से ही
मेरी सांस चलती थी..
शरारत से भरे वो पल
सताते थे, हंसाते थे..

यक़ीनन वो हसीं पल थे
कि जब तुम मुस्कुराती थीं..
मेरे सपनो के गुलशन में
किसी तितली सा गातीं थीं..
तुम्हारी आँख से मोती
बरसना याद है मुझको..
तुम्हारे रूठ जाने से
बहारें रूठ जाती थीं..

तुम्हे तो याद ही होगा
मुझे कब याद रहता था..
किधर सूरज निकलता था
किधर से रात ढलती थी..
तुम्हारा साथ काफी था
मेरे इस हाथ की खातिर..
तुम्हारे ही इशारे से
तो मेरी साँस चलती थी..

मगर फिर यूँ तुम्हारा
रूठ जाना याद है मुझको..
यूँ मुझसे दूर जाने का
बहाना याद है मुझको..
तुम्हे भी याद तो होगा
जो तुम अक्सर ही कहती थीं..
'तुम्हारे बिन नहीं जीना'
वो गाना याद है मुझको..
उन्हीं यादों के अश्कों में
मैं बहता हूँ.. सुनो जाना..
ये बातें हैं पुरानी सी..
मैं कहता हूँ.. सुनो जानां..


- अमित तिवारी
समाचार संपादक
अचीवर्स एक्सप्रेस

Monday, January 30, 2012

तुमने झूठ बोला था...

सुनो जानां...
ये सच है ना
कि तुमने झूठ बोला था....

तुमने झूठ बोला था....
तुम्हे मुझसे मोहब्बत है
तुम्हे मेरी जरुरत है
तुम्हारे दिल के कोने में
कहीं मेरी भी हसरत है ....

ये सच है ना..
कि वो प्यार की बातें...
हसीं संसार की बातें
ज़माने से बगावत की
गुलो की, खार की बातें
तुम्हारा बचपना था....

सुनो जानां...
तुम्हारा दिल मेरे ज़ज्बात
की खातिर धड़कता था
तुम्हारे लब की वो मुस्कान
मेरे ही लिए थी...
सुनो जानां, ये सच है ना...
कि तुमने झूठ बोला था...

- अमित  तिवारी
समाचार संपादक

अचीवर्स एक्सप्रेस

Wednesday, January 25, 2012

हुस्न की तीली से सिर्फ बीड़ी और चिल्लम ही जल सकती हैं...



आग बहुत है देश में...
कहीं 'जिगर की आग' से 'बीड़ी' और 'अंगीठी' जल रही है...
तो कहीं 'जवानी की आग' में कोई ख़ाक हो रहा है..
धुंआ-धुंआ हो रहा है समां..
अब तो 'चिकनी चमेली' के 'हुस्न की तीली' भी
सबको जलाने के लिए बेचैन हो रही है...
तीली के ट्रेलर से इतनी आग निकल रही है...
भला पूरी फिलम की आग से कौन बच पायेगा..?
लग रहा है सब जल जायेगा..
सोच रहा था कि कह ही दूं कि सब जल जायेगा
इस बार इस तीली से..
लेकिन
नहीं... ऐसा नहीं हो सकता..
इनकी आग में चाहे जितनी गर्मी हो...
लेकिन देश के खून में इस से कई गुना ज्यादा सर्द भरी है..
बात चाहे 'चिकनी चमेली' के 'हुस्न की तीली' की हो...
या किसी के 'जिगर के आग' की..
इन सबसे सिर्फ 'बीड़ी' और 'चिल्लम' ही जल सकती है...
और फिर इस 'हुस्न की तीली' से बुझ जाती है
लोगों के भीतर के गुस्से की आग...
इनकी आग इस 'दौर-ए-सियासत' का अँधेरा नहीं मिट सकता..

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
अचीवर्स एक्सप्रेस
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...