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Wednesday, January 5, 2011

दुनिया की मुन्नियों एक हो... (Let's think of Munni..)




सदी का पहला दशक बीतने को है. पिछली सदी में तरक्की की जिस गाथा की शुरुआत हुई थी, इस सदी में उसे बखूबी आगे बढाया जा रहा है. साहित्य, शब्द, उपमाओं और उद्धरणों में भी बदलाव लगातार जारी हैं. दो सदी पहले तक हमारा साहित्य संपन्न वर्ग के मनोरंजन का माध्यम मात्र था. राजाओं की बिरदावलियाँ और यशोगान मुख्य उद्देश्य हुआ करते थे. गाँव की चर्चा तभी थी जब उस गाँव में बुद्ध जाते थे. शबरी और भील तभी विषय बनते थे जब उनके पास राम पहुँचते थे. उस से ज्यादा साहित्य के विषयों से गाँव का सम्बन्ध नहीं था. गाँव तभी साहित्य का विषय बन पाता था जब वह आदर्श गाँव हो.
इस परिपाटी में आमूल-चूल परिवर्तन किया प्रेमचंद ने. प्रेमचंद की कहानी के नायक होरी महतो और बुधिया थे, तो नायिका रधिया या संतो. प्रेमचंद के इस प्रयोग का भारी विरोध भी हुआ था. साहित्य में रधिया-बुधिया के प्रवेश पर लोगों ने बहुत नाक-भौं सिकोड़ी थी.
फिर धीरे-धीरे बाजारवाद के रथ पर सवार इस सदी का आगाज हुआ. बाजार ने बेचना सिखाया. हर चीज को बाजार मिला. हर भावना और हर नाम को बाजार मिला. जो अच्छा कहा जाता रहा था उसका भी बाजार और जिस पर लोगों की नाक भौं सिकुड़ती थी उसको भी बाजार. रधिया-संतो पहले उपेक्षित थी, अब बदनाम हो गयी.
मुन्नी का वर्गीय चरित्र वही है. मुन्नी उसी गाँव की रधिया-संतो का ही तो प्रतिनिधित्व करती है. बाजार ने उसकी उपेक्षा और बदनामी को भी अलंकृत कर दिया है. मुन्नी अब ख़ुशी ख़ुशी बदनाम हो रही है और उसकी बदनामी को कुछ इस तरह से प्रायोजित किया जा रहा है कि हर मुन्नी को अपना लक्ष्य वही बदनामी में ही नजर आने लगा है. अब हर मुन्नी खुद को बदनाम करने के लिए तैयार है. उसे ये एहसास दिलाया जा रहा है कि बाजार में जगह पाने के लिए तुम्हे अपनी बदनामी को सार्वजानिक करना होगा.
लेकिन इसमें एक बात पर जरूर गौर किया जाना चाहिए कि आखिर बाजार प्रायोजित इस बदनाम मुन्नी के जरिये भी मुन्नी के वर्गीय चरित्र में कोई बदलाव लाने का प्रयास नही है. मुन्नी अभी भी उन्ही पारंपरिक मूल्यों में बंधकर बदनाम हो रही है. मुन्नी ने यह बदनामी भी अपने लिए नहीं बल्कि अपने प्रेम के लिए स्वीकार की है. अभी भी मुन्नी अपने डार्लिंग के लिए झंडू-बाम हो रही है. और उसे यह बता दिया गया है कि यह समर्पण ही तुम्हारा अंतिम लक्ष्य है. तुम्हे इसके लिए झंडू-बाम भी होना पड़ेगा और बदनाम भी, तभी तुम लगातार इस बाजार में बनी रह सकती हो. बाजार में किसी शर्मीली रधिया के लिए जगह नही है. बाजार का ही असर है कि किसी भी ऑफिस में ऐसी किसी रधिया के लिए कोई जगह नही है जो मुन्नी की तरह अपनी बदनामी को मंच नही दे सकती है.
मुन्नी की प्रतिरोधी शक्ति को ख़त्म कर दिया गया है. उसे डार्लिंग के लिए समर्पित भी होना होगा और बदनाम भी.
मुन्नी के ही साथ-साथ शीला भी जवान हुई है, लेकिन शीला की जवानी में और मुन्नी की बदनामी में बहुत बड़ा अंतर है. शीला शहर का प्रतिनिधित्व कर रही है. उसकी जवानी में स्वायत्तता है. वह अपनी जवानी को स्वतंत्र होकर जी रही है. उसे किसी के लिए बदनाम होने की इच्छा नहीं है. बाजार अपने सामंतवादी और शोषक नजरिये से बाहर नही निकल पाता है. वह शीला को बदनाम नहीं कर रहा है, बल्कि उसकी जवानी को स्वायत्त कर रहा है. उसे अपनी जवानी को जीने की स्वतंत्रता दे रहा है.
लेकिन मुन्नी हो या शीला, हैं दोनों ही बाजार के कब्जे में. क्यूंकि मुन्नी अगर झंडू-बाम है तो शीला एटम-बम है. दोनों किसी मेडिकल कंपनी की एम्.आर. की तरह काम कर रही हैं. मुन्नी की बदनामी से झंडू-बाम की बिक्री बढ़ी है और कल हो सकता है कि शीला की जवानी को भी वियाग्रा जैसी कोई कम्पनी पेटेंट करा ले. क्योंकि शीला के बाद अब हर मुन्नी शीला की जवानी के राज को खोजने के लिए तत्पर हो रही है. उसे भी स्वतंत्र जवानी की इच्छा है. बाजार यही चाहता है.
बाजार का लक्ष्य संस्कारिक अवधारणाओं को तोडना ही रहा है. चाहे मुन्नी को बदनाम करना पड़े, या शीला को जवान करना पड़े, बाजार की नजर अपने लक्ष्य पर केन्द्रित है.
एक समय में मार्क्स ने कहा था कि दुनिया के मजदूरों एक हो. सर्वहारा वर्ग को एक होने के लिए आह्वान किया गया था. तब सर्वहारा का एक वर्गीय चरित्र था. वाम रुझान के नेताओं ने तमाम अरसे तक वही नारा दिया. हालाँकि सर्वहारा को एक नही कर सके. उसका कारण भी था, बाजार ने सर्वहारा वर्ग को बाँट दिया. शहरी मजदूर और ग्रामीण मजदूर एक दूसरे से अलग हो गए. नतीजा यह रहा कि सर्वहारा का अपना कोई निश्चित वर्गीय चरित्र नही रह गया.
इसी तरह नारी समानता और नारी समता के नारों के बीच भी बाजार वही कर रहा है. अब उसे शीला और मुन्नी के बीच में बांटा जा रहा है. लेकिन अब समय आ गया है कि एक नारा दिया जाए. येचुरी और प्रकाश करात को अब 'सर्वहारा एक हो' की जगह 'मुन्नियों एक हो' का नारा देना चाहिए. और हर मुन्नी को यह समझाना होगा की शीला की जवानी में भी उसी मुन्नी की बदनामी के तार छुपे हैं.
बीता साल मुन्नियों के लिए एक सवाल छोड़ गया है. नए साल में हर मुन्नी के सामने अपनी बदनामी और शीला की जवानी में से किसी एक को चुनने का विकल्प बाजार ने रख दिया है.
अब देखना है कि मुन्नियाँ बाजार का विकल्प बनकर रह जाना चाहेंगी या फिर इस नए साल में कुछ नया होगा???

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

4 comments:

  1. Waah...
    bahut khoob Amit...
    bazar kii iss sachchai ko samjjhna jaroori hai.
    bazar ne sab kuchh becha hai aur ab badnami ko bhi bech raha hai.
    lekin hame ye sochna hoga ki hame bikna hai ki nhi..?
    Good article.

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  2. शीला हो या मुन्नी सबको बाजार अपने कब्जे में ले ही लेती है

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  3. bahut hi achha
    bahut khub

    kabhi yha bhi aaye
    www.deepti09sharma.blogspot.com

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