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Sunday, August 17, 2014

यमुना तीरे कृष्ण (Shree Krishna)




जन्‍माष्‍टमी आ गई... जन्‍माष्‍टमी यानी कन्हैया का जन्मदिवस....वैसे जन्मदिवस नहीं...बल्कि अवतरण दिवस...कन्हैया अवतरित हुए थे...और तभी से लीलाएं करने लगे....तरह-तरह की...
हर किसी के मन को लुभा लेने वाली चंचलता। ऐसा बालसुलभ नटखटपन कि बड़े-बड़े ज्ञानी को भी मोह हो जाए। एक अद्भुत और अद्वितीय चरित्र.. ऐसा कि जो जितना जाने उतना ही उलझता जाए।
कृष्ण का पूरा जीवन ही एक सन्देश है। हर घटना एक अध्याय है जीवन को जीने की कला सीखने के लिए।
सोच रहा हूँ कि कृष्ण आखिर बांसुरी ही क्यों बजाते हैं? बीन क्यों नहीं?
और अगर कृष्ण बीन बजाते तो क्या होता?
कृष्ण बांसुरी बजाते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि बांसुरी बजाने से गाय और गोपियाँ निकलेंगी। बांसुरी की मधुर तान से प्रेम-रस छलकेगा चारों ओर। बांसुरी बजाने से प्रेम में बंधे हुए जन, जीवन के आह्लाद का आनंद लेंगे।
कृष्ण को पता है कि बीन बजाने से सांप निकलता है और फिर उस बीन में ये शक्ति भी नहीं कि वह उस सांप को फिर से बिल में भेज सके। कृष्ण की बांसुरी तो सबको अपने ही रंग में नचाती है।
इन सब बातों के बाद भी आज मुझे दुःख है....
मुझे दुःख है कि आज कन्हैया का जन्म-दिन है...
ये दुःख इसलिए नहीं कि कन्हैया से मुझे कोई नाराजगी है....बल्कि ये दुःख तो मुझे कान्हा की यमुना को देखकर हो रहा है...
मुझे दुःख हो रहा है ये सोचकर कि अब मेरे कन्हैया किस कदम्ब की छाँव में बैठकर बांसुरी बजायेंगे??
मैं दुखी हूँ ये सोचकर कि कान्हा किस यमुना के तीर पर अपनी गायें चरायेंगे...?
सोच रहा हूँ कि हम यमुना-पार वाले क्या जवाब देंगे कान्हा को, जब वो पूछेंगे अपनी यमुना के बारे में।
क्या होगा जब कन्हैया अपनी कदम्ब की छाँव खोजने निकलेंगे?
हमने क्या कर दिया है ये सब....? यमुना के तीर पर, जहाँ कदम्ब होते थे...वहां कंक्रीट के जंगल खड़े किये जा रहे हैं...
यमुना किनारे मंदिर-मस्जिद की जंग तो है...लेकिन कान्हा की चर्चा ही नहीं..!!
यमुना-बैंक पर मेट्रो तो है....लेकिन यमुना नहीं....!!
क्या कन्हैया को भी अब मुंह पर रुमाल रखकर पुल के ऊपर से ही यमुना को देखना पड़ेगा?
या फिर उन्हें भी हम मेट्रो में बिठाकर ही यमुना-दर्शन का आनंद देना चाहते हैं?
बड़े-बड़े मठाधीश मिलकर यमुना की छाती पर भव्य मंदिर तो बना गए...लेकिन यमुना-तीर पर कन्हैया के बैठने के लिए एक कदम्ब की भी चिंता नहीं थी उन्हें..अरे भाई मेरे कन्हैया ने कब किसी मंदिर में बैठकर बंसी बजाई थी.!!! वो तो बस यमुना-तीरे घुमा करते थे, बिना मुंह पर रुमाल लगाये ओर बिना मेट्रो में बैठे,,,
लेकिन आज यमुना नदी से नाले में तब्दील हो रही है...और सब जन्माष्टमी की तैयारी में लगे हैं...
जन्‍माष्‍टमी पर मंदिरों में जाकर कन्हैया को माखन का भोग लगाने से कहीं ज्यादा बेहतर है कि हम उनकी यमुना को फिर से उनके खेलने लायक बना दें....यमुना-तीरे, कंक्रीट के जंगल नहीं....कदम्ब के पेड़ हों...और उनके नीचे बैठकर 'कन्‍हैया' फिर से सबके 'मन को मोह' लेने वाली बंसी बजाएं...

- अमित तिवारी 
दैनिक जागरण 

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