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Thursday, February 24, 2011

क्या लिखूं ? (Nothing remains...)


सोचता हूँ क्या लिखूं, कोई बात बाकी नहीं.
यादों के झरोखों में, कोई हालात बाकी नहीं.
मौत की शुरुआत लिखूं,
या जिंदगी का अंत.....
खुशनुमा पतझर लिखूं
या उजड़ा हुआ बसंत....
बहार के कांटे लिखूं.....
या पतझर के फूल.........
झूठ का आईना लिखूं
या चेहरे की धूल........
इतने दर्द झेल लिए हैं, मेरी कलम ने
अब इसके खून में, कोई जज्बात बाक़ी नहीं.
सोचता हूँ क्या लिखूं..................................

दिल का वही दर्द लिखूं
या बेदर्द दुनिया.....
बेगरज आंसू लिखूं
या खुदगर्ज दुनिया.......
वक़्त के थप्पड़ लिखूं
या गाल अपने...........
मायूस आँखें लिखूं
या हलाल सपने........
कैसे करूँ जिंदगी में सवेरे का इंतजार...
अब तो जिंदगी में कोई रात बाकी नहीं...
सोचता हूँ क्या लिखूं.............................

ख्वाबों की दास्ताँ लिखूं,
या कत्ल सपनों के .....
गैरों के हमले लिखूं, या
कातिल शक्ल अपनों के
भीड़ का मातम लिखूं या
खामोशियों का शोर......
मरहमों के जख्म लिखूं
या जख्मों के चोर........
जख्म के फूल भी कैसे खिले चेहरे पर.....
आंसुओं की भी कोई बरसात बाकी नहीं...
सोचता हूँ क्या लिखूं................................

बुझता हुआ चिराग लिखूं
या आंधी का हौसला.....
गुजरती हुई साँसे लिखूं,
या मौत का फैसला.......
खुशियों का जनाजा लिखूं
या ग़मों की बारात...........
सोचता हूँ आज, मैं
लिखूं कौन सी बात........
'संघर्ष' कब्र में कैसी शहनाई की तमन्ना..
अब तो मौत की भी बारात बाकी नहीं.....
सोचता हूँ क्या लिखूं...............................

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद 

Tuesday, February 15, 2011

बेहया और बदमिजाज पीढ़ी (Generation Next.???)



अचानक से मन थोडा व्यथित हो गया. एक खबर मिली कि एक लड़के ने दो हत्याएं महज इसलिए कर दी कि लड़की ने उसके प्रेम को अस्वीकार कर दिया था. लड़की के अस्वीकार से क्षुब्ध हुआ वह सीधे उसके ऑफिस पहुँच गया, जहाँ बीच-बचाव की कोशिश करते एक लड़का भी मारा गया और लड़की का भी गला उस उन्मादी युवक ने काट दिया.
जांच पड़ताल होगी. बहुत से बयान आयेंगे-जायेंगे. उस उन्मादी युवक को शायद सजा होगी या शायद अपने रसूख के दम पर वह निश्चिन्त होकर घूमता रहेगा.
वाद का विषय यह नहीं है. जैसा भी होगा वह नया नहीं होगा. दोनों ही तरह की बातें होती रहती हैं. पकडे जाकर सजा पाने वाले भी बहुत हैं... और रसूख और पहुँच के दम पर छुट्टा घूमने वाले भी. विषय है आज के युवाओं के अन्दर पलते इस रोष का. वरन इसे रोष कहना भी गलत ही है. रोष तो एक सकारात्मक शब्द है. यह मात्र उन्माद है. पथभ्रष्ट होते युवा एक गंभीर विषय बन चुके है. एक ऐसा विषय जिस पर कोई चर्चा भी नहीं है. जिस घटना का जिक्र है वह आज के समय में एक सामान्य घटना ही है. यह ऐसा सच है आज के समय का जिस से हर रोज रूबरू होना पड़ता है. हर रोज सुबह अखबार में ऐसी अनगिन घटनाएं देखने को मिल जाती हैं. हर रोज इतना कुछ देखने को मिल जाता है अपनी इस समकालीन पीढ़ी के बारे में कि मन उखड़ जाता है. यह पीढ़ी न अपनी बुद्धि का सही इस्तेमाल करना जानती है ना अपनी शक्ति का.. बुद्धि का इस्तेमाल होता है तो द्विअर्थी संवाद करने में और शक्ति का प्रयोग होता है किसी गरीब और कमजोर पर. बात चाहे पैसा मांगने पर चाय वाले पर चाकू चलाने की हो या फिर कार से छू जाने पर रिक्शे वाले की हत्या कर देने का.. या फिर ऐसी ही किसी नृशंस घटना में उस शक्ति की परिणति होती है.
इसे शक्ति कहा जाए या फिर कायरता का ही नया रूप. जहाँ सच से सामना करने की शक्ति इतनी क्षीण हो गयी है इस पीढ़ी की कि वह उतावलेपन में कोई निर्णय नहीं ले पाने की हालत में रही है.
इस तथाकथित सभ्य और आधुनिक होती युवा पीढ़ी के और भी कई वाहियात रूप देखने को मिलते रहते हैं. शर्म आती है कि हम ऐसी पीढ़ी के समकालीन हैं. ऐसी पीढ़ी जो या तो घोर उन्मादी है या फिर फैशन के नाम पर अपाहिज और दोमुंही पीढ़ी.
ऐसी वाहियात जमात जिसे अपने समाज और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों से कोई सरोकार शेष नहीं है. शर्म आती है जब देखता हूँ कि एक तरफ जब मिस्र जैसे छोटे से अरब देश में जनता सड़क पर उतर कर 30 वर्षों के तानाशाही शासन को उखाड़ फेंकने में लगी है, तब यहाँ की दोगली जमात फेसबुक और ऑरकुट पर चुटकुलेबाजी और तस्वीर बांटने में लगी है. उसे गुस्सा आता है तब, जब लड़की उसका वासनाजनित प्रेम स्वीकारने से मना कर देती है या फिर कोई चाय वाला अपने हक के पैसे मांग लेता है.
जितना वक्त आज की यह तथाकथित आउन नॉर्म्‍स और सिविलाइजेशन को फॉलो करने वाली जमात खुद को संवारने और आइना देखने में बिताती है.. उतना वक्त शायद ही किसी सार्थक कार्य या चर्चा में बिताते हों.. यही कारण तो है कि आज सर्वाधिक युवाओं का देश भारत.. बीमार है.. क्रान्ति और देशभक्ति शब्द गाली जैसे लगते हैं इनके होंठों पर. अब इनका आदर्श भी फिल्मी परदे का अभिनेता होता है. क्रांति के लिए भी इन्हें अब किसी के अभिनय की ही जरूरत पड़ती है. अब ये सड़क पर तभी उतर सकते हैं जब इन्हें कोई ‘रंग दे बसंती’ या फिर ऐसी ही कोई फिल्म दिखाई जाए. कुछ ऐसी फिल्में देखकर ही इनके अन्दर क्रांति जन्म लेती है. और फिर जैसे ही दो शुक्रवार के बाद कोई हिस्स्स्स... या दबंग या तीस मारखां देख लेते हैं.. तुरंत इनके अन्दर की शीला जवान हो जाती है. सारी क्रांति ख़त्म.. इस संवेदन हीन पीढ़ी के मन में अब गजनी में आमिर खान की प्रेमिका के मरने पर तो संवेदना जागती है, लेकिन हर रोज भूख और बेबसी से मरते लाचार किसान और मजदूरों की खबर देख-पढ़कर नहीं जागती है.
बहस के लिए सबके पास इतना वक्त है.. लेकिन सार्थक विमर्श भी होना चाहिए.. इसकी किसी को चिंता नहीं है.. देश हमारा है.. लेकिन इसकी चिंता पडोसी के हाथ में है.. हम सबका चरित्रा यही रहता है.. चिंतन यही रहता है..
चेहरा देखकर तिलक करने की प्रवृत्ति है..
विमर्श के लिए कोई तैयार नहीं है. लोग खुद के प्रति ईमानदार होकर अपनी भूमिका का चयन नहीं कर रहे हैं आज के समय में.. इतने सब के बाद भी जब कोई कहता है कि मेरा भारत महान.. तो सच में कोफ्त होती है. जब यहाँ तरक्की के बड़े-बड़े आंकड़े सुनाये जाते हैं तब यह सब मात्रा आत्मप्रवंचना जैसा ही लगता है. लेकिन हमें सोचना होगा कि आत्मप्रवंचना करने से आत्मसंतुष्टि तो मिल सकती है.. लेकिन सत्य नहीं बदलता है...
देश की हालत क्या है? कितनी बीमार है.. ? ये तो सबको पता ही है.. लेकिन परेशानी यही है कि हम सच को स्वीकारने के बजाय आत्मप्रवंचना में लगे रहते हैं.. हम तो वो जमात है कि जिनके सामने कोई आकर देश के निवासियों को ‘स्लमडाॅग’ कहकर ‘आॅस्कर’ देकर चला जाता है और हम बेशर्मों की तरह ‘जय हो-जय हो’ कहते रहते हैं.
कभी कभी ये सब देखकर ऐसा लगता है कि जैसे बहुत बार थप्पड़ खाने से किसी का चेहरा लाल देखकर भी लोगों को लगता है कि उसके शरीर में खून बहुत है.. लेकिन हमें स्वीकारना चाहिए कि थप्पड़ मारकर गाल लाल कर लेने से ख़ून नहीं बन जाता है... देश की भी यही हालत है... इधर उधर के थप्पड़ से गाल लाल हो जाता है.. और सब लाल चेहरा देखकर खुश हो जाते हैं..
देश के सेहत का सच तो आज भी अस्थि-पंजर बना किसान-मजदूर ही है. और यहाँ के युवा का सच अखबारों की ऐसी ही सुर्खियाँ... बेहया और बदमिजाज पीढ़ी.


- अमित तिवारी 
समाचार संपादक 
निर्माण संवाद
(09266377199) 

Monday, February 14, 2011

यह कैसा प्रेम दिवस है??(Is it Love or Lust?)




आज फिर से प्रेम दिवस का शोर है. एक दिन प्रेम का... सोचकर आश्चर्य होता है कि भला प्रेम का कोई निर्धारित दिन कैसे हो सकता है? प्रेम कोई व्यापार तो नही है कि शुभ मुहूर्त देखकर किया जाए. प्रेम कोई क्षणिक भाव तो नही है जिसे किसी एक दिन के लिए सहेज कर रखा जा सके. आखिर यह कैसे संभव है कि साल भर में किसी एक दिन ही प्रेम की अभिव्यक्ति की जा सकती है.
लेकिन फ़िलहाल ऐसा ही हो रहा है.
कबीर कहते थे कि 'प्रेम न हाट बिकाय'.. लेकिन अब प्रेम हाट में बिकता है. बिक ही तो रहा है लगभग दो हफ्ते से. बाज़ार प्रेम से भरा हुआ है. जिसकी जितने प्रेम की औकात हो वह उतना प्रेम खरीद सकता है. प्रेमिका कीमती प्रेम की प्रतीक्षा में है.
कई प्रेमी उसी कीमत के दम पर ही प्रेम को खरीद लेने के लिए इस दिन का इंतजार करते देखे जा सकते हैं.
यही नही यह दिन अगर प्रेम के इजहार तक ही होता तो भी शायद कोई बात नही थी. अगर इस दिन सिर्फ तोहफों की कीमत और आकार तक ही बात रहती तो भी शायद कोई बात नही थी. सिर्फ चोकलेट और गुलाब की बिक्री और व्यापार की बात होती तो भी शायद कोई बात नही थी. मन मान ही लेता कि कोई बात नही व्यापार ही सही, होने दो इस प्यार को भी. लेकिन अभी बहुत चौंकाने वाले तथ्य सामने आये हैं. ऑनलाइन खुदरा व्यापार यसटुकंडोम के निदेशक शिशिर मिगलानी से एक बातचीत में पता चला कि इस प्रेम दिवस के इर्द-गिर्द कंडोम की बिक्री भी 15 से 20 प्रतिशत तक बढ़ जाती है. इनके ज्यादातर उपभोक्ता युवा होते हैं. इनमे से कई वह होते हैं जो कि इनसे सम्बंधित दिशा-निर्देश भी लेते हैं. अर्थात बहुत से वह होते हैं जो कि पहली बार इस में पड़ रहे होते हैं.
मन स्तब्ध है. किस प्रेम की दिशा में बढ़ रहे हैं युवा? यह प्रेम दिवस है कि वासना दिवस, इस पर भी सोचने की जरूरत है.
अच्छा एक और भी बात बहुत मजेदार है. इस प्रेम दिवस की शुरुआत कैसे हुई? संत वेलेंटाइन की याद में इस दिवस की शुरुआत हुई थी, जैसा कि कहा जाता है. वेलेंटाइन के सम्बन्ध में कोई विशेष प्रमाणिक तथ्य कहीं भी नही मिलते हैं जिस से कि यह सिद्ध हो सके कि उनकी शहादत के केंद्र में किसी प्रकार से प्रेम कारण था. वेलेंटाइन को लेकर कई तरह की कहानियां चलती हैं. उन्ही में से एक है कि तत्कालीन रोमन सम्राट क्लौडीयस द्वितीय ने अपने सैनिकों को विवाह नहीं करने देने की घोषणा की थी. उसका मानना था कि विवाह के बाद सैनिक का ध्यान और उसकी क्षमता कम हो जाता है. वेलेंटाइन चुपके चुपके सैनिको का विवाह कराया करते थे. और सम्राट को पता लगने पर उन्हें मार दिया गया. इस कहानी के कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नही मिलते हैं. इसके अतिरिक्त कुछ कहानियां हैं वेलेंटाइन को लेकर जिनमे ऐसा कुछ भी उल्लेख नही है. न ही उसमे कहीं से भी यह पता लगता है कि वेलेंटाइन कोई बहुत बड़े प्रेम के समर्थक थे. लेकिन समय के साथ साथ उनके उसी विरोध और उनकी शहादत के सम्मान में इस दिवस को मनाया जाने लगा. अब सोच ये रहा हूँ कि यह कैसा प्रेम दिवस है कि जिसका प्रादुर्भाव ही विरोध की कोख से हुआ है? क्या प्रेम का अर्थ विरोध है? क्या प्रेम घृणा के सापेक्ष में ही किया जा सकता है? शायद प्रेम के इसी सापेक्षिक रूप के कारण प्रेम के सापेक्ष में घृणा भी उसी दर से बढ़ रही है लगातार.
माना कि पश्चिम के पास बहुत कुछ ऐसा है भी नही कि जिसके बहाने वो खुद को बहला सकें, इसलिए वो जब इस प्रेम दिवस के पीछे पागल-पागल दिखते हैं तो ज्यादा आश्चर्य नही होता है. वहां देह आधारित प्रेम की ही परम्परा है. पश्चिम में इस देह प्रेम के दिवस को मनाये जाने के कारण हैं. लेकिन भारत में इसको मनाये जाने का कोई भी तो तार्किक कारण नहीं है.
अच्छा मान लीजिये प्रेम दिवस मनाया ही जाना है तो फिर कोई तार्किक दिवस क्यों न हो? कोई ऐसा दिवस क्यों न हो कि जिस के स्मरण मात्र से ही प्रेम आ जाए मन में. कि जिसका प्रादुर्भाव किसी विरोध की कोख से ना हुआ हो. वैसे तो हमारी परम्परा में पूरा बसंत ही प्रेम का प्रतिनिधित्व करता है. वासंती बयार और प्रेम में पगे हुए ना जाने कितनी ही कहानियां और गीत रचे गए हैं यहाँ. होली तो है ही प्रेम पर्व. फिर भी यदि प्रेम दिवस मनाने का मन है तो क्यों न शिवरात्रि को प्रेम दिवस माना जाय. शिव जिनके नाम से ही प्रेम का बोध हो जाता है. जिन्होंने प्रेम ही का संचार किया सम्पूर्ण जगत में. जो अपने भक्त के प्रेम में बसे तो उसके ही हो गए.
लेकिन अब ऐसा कहने में भी खतरा है. यह आधुनिक प्रेम दिवस घृणा का ऐसा मंजर तैयार कर चुका है कि इसकी चर्चा में प्रेम कम घृणा ज्यादा दिखती है. जैसे ही मैं कहता हूँ कि इसे मनाया जाना उद्देश्यविहीन है, तुरंत मुझे किसी संस्कृति के ठेकेदार से जोड़ कर देखा जाने लगेगा. तुरंत मुझे बजरंगी या शिवसैनिक घोषित कर दिया जायेगा. मैं उस वीभत्स विरोध का भी समर्थन नही करता, लेकिन इसको मनाये जाने के औचित्य पर प्रश्न जरूर खड़ा करता हूँ.
इस प्रेम दिवस पर 'कुछ' खरीदने से पहले एक बार प्रेम को जरूर याद कीजिये. क्या कहीं मन के किसी कोने में प्रेम शेष है?? और लगे कि हाँ प्रेम शेष है अभी जीवन में तो फिर इस प्रेम दिवस के औचित्य पर विचार जरूर कीजिये.
हैप्पी वेलेंटाइन डे.

- अमित तिवारी 
समाचार संपादक 
निर्माण संवाद
(09266377199) 

Monday, February 7, 2011

आईने के सामने तकदीर संवारती पीढ़ी !! (This Visionless Generation..!!)




facebook पर आज फैशन के नाम पर चेहरा संवारने में लगी पीढ़ी को लेकर हो रही एक चर्चा हमने देखी. वहां जो कुछ बात हुई.. उसमे से काफी कुछ सार्थक लगा.. वही बातचीत आप सभी से साझा कर रहा हूँ..

Nilus Classes:- हमारे समाज में भी एक अलग समाज बसता है ..
ऐसी कुंदन काया वाले कोमल युवा आजकल व्यापक रूप से देखने को मिलते हैं!!
पता नहीं ये नस्ल आया कहाँ से ...
आते जाते बड़े स्टायल से hi, excuse me, hi, ok, hi करते हैं ..
इनके कान से अक्सर एक तार निकल कर मोबाइल या आई पोट से जुड़ा रहता है
इनको कोई गलती से धक्का मार दे तो ये तुनक कर कहते हैं " how mannerless". kisi ne sahi kaha hai...
''कोहनियों पर टिके हुए लोग..
सुविधाओं में बिके हुए लोग..
बरगद की करते हैं बात..
गमलों में उगे हुए लोग..'

Devansh Nuwal:- .(आप लोग कैसे किसी के पहनावे और उसकी रोजमर्रा की जिंदगी को देखकर ऐसा निर्णय ले सकते हैं. आप लोगों को इनसे कोई परेशानी है तो इसका ये मतलब नही है कि ये बुरे हैं. .. ये उस समाज में रहते हिं जिसके अपने नियम हैं और उसका पालन करते हैं.. आप सब अपने समाज में हैं और आपके अपने तौर-तरीके हैं... वो आपके तौर तरीके का पालन नही करते हैं इसका मतलब ये तो नही है कि वो गलत या बुरे हैं... इस बात से ऐसा नही लगता की आप लोग किसी पूर्वाग्रह में उस समाज को ऐसा कह रहे हैं...)


Nilus Classes:- मै विकृतियों की बात नहीं कर रहा हु ये वो नौजवान हैं जो सोलह श्रींगार करके घर से निकलते हैं...
ये वो हैं जो माँ बाप के लिए मेडिकल से दवाई लाने में इनकी माँ मरती है ... पर जिम जाकर अपनी बॉडी बनाते हैं किसी को इम्प्रेस करने के लिए

Amit Nagpal:-  (आप मुसलमान तो नही बॉस , क्यूंकि 99 % मुस्लिम गंदे बनकर रहने में विश्वास रखते हैं. आपके कहने का मतलब है कि जो साफ़ रहता है वो माँ की दवाई नही लता... जो जिम जाता है वो माँ-बाप की सेवा नही करता.. आपसे इसे बेतुकी बकवास की उम्मीद नही करते हम लोग. )

Nilus Classes:- ये किसने कहा कि 99 % मुसलमान गंदे बनकर रहने में विश्वास करते हैं. सबसे गन्दी तो ये सोच है. मेरे कहने का क्या मतलब आप समझ नही पाएंगे.. मै ये नहीं कह रहा हु की जिम जाने वाले माँ बाप का ध्यान नहीं रखते , मै तो एक मानसिकता की बात कर रहा हु, जहाँ दिखावा हमारे सामाजिक मूल्यों पर भारी पड़ रहा है
बोलने से पहले देख लीजिये की सन्दर्भ क्या है मैंने किसी किसी समुदाय विशेष पर टिपण्णी नहीं की है ...मै उस चलन की बात कर रहा हु जो समाज में फैशन के नाम पर फ़ैल रहा है .. ...

Amit Tiwari:- सही कह रहे हैं नीलू जी..
दरअसल फैशन के नाम एक ऐसी अपाहिज और दोमुंही पीढ़ी तैयार हो रही है, जिसकी पहचान कुछ इसी तरह की बन गयी है.
और इस सब से भी बदतर यह है जो कि आपने अभी यहाँ देखा कि किस तरह से बात के रुख को बदला जा सकता है...!!
कहाँ की बात को कहाँ पहुंचा दिया...?>??
जितना वक़्त आज की यह तथाकथित own norms and civilization को follow करने वाली जमात खुद को संवारने और आइना देखने में बिताती है.. उतना वक़्त शायद ही किसी सार्थक कार्य या चर्चा में बिताते हों... 

Nilus Classes:- बिलकुल यही अर्थ के साथ मैंने ये पोस्ट किया था, मैंने मेट्रो ट्रेन में कुछ लडको का हुलिया और बेशर्मी देखकर दंग रह गया .. कुछ बुजुर्ग थे जो अपने आपको असहज महसूस कर रहे थे .


Amit Tiwari :- जी.... यही कारण तो हैं कि आज सर्वाधिक युवाओं का देश भारत.. बीमार है..
यहाँ के युवा का आदर्श अब फ़िल्मी परदे का कोई अभिनेता होता है.. अब इनके अन्दर क्रांति लाने के लिए भी रंग दे बसंती या और ऐसी ही फिल्मो की जरूरत पड़ती है..
और जैसे ही दो शुक्रवार के बाद कोई हिस्स्स्स.. या दबंग देख लेते हैं.. सारी क्रांति ख़तम..
अब इनके अन्दर संवेदना गजनी में आमिर की प्रेमिका के मरने पर तो पैदा होती है.. लेकिन आत्महत्या करने वाले किसान की खबर देख-सुनकर इनकी संवेदना नहीं जागती है..

Nilus Classes :- असल में हम बड़ी बड़ी बातें तो जरुर कर लेते हैं पर उन छोटी छोटी बातों को जससे समाज खोखला हो रहा है नेगलेक्ट कर जाते हैं , ... अपना वजूद कितना खोखला है उसका एहसास आपने करा दिया

Amit Tiwari :- नीलू जी.. हमारी बात को समझने के लिए आपका धन्यवाद..
दरअसल यह ऐसा सच है जिस से हर रोज रूबरू होना पड़ता है..
हर रोज अखबार में इतना कुछ दिख जाता है अपनी इस पीढ़ी के बारे में कि मन उखड जाता है..
ये पीढ़ी न अपनी बुद्धि का सही प्रयोग करना जानती है न अपनी शक्ति का..
बुद्धि खर्च होती है द्विअर्थी संवाद करने में...और शक्ति आजमाते हैं किसी गरीब और नीरीह पर..
बात चाहे चाय के पैसे मांगने पर चाय वाले पर चाक़ू चलाने की हो.. या फिर कार से छू जाने पर रिक्शा चालक को मार डालने की..
सब का निहितार्थ एक ही निकलता है..
हम सब के सब इसी का हिस्सा हैं..
जहाँ एक ओर मिस्र में जनता विद्रोह सड़क पर कर रही है...
हम facebook पर चुटकुलेबाजी और तसवीरें बांटने में लगे होते हैं..
कोई सही बात कह दी जाय तो टिप्पणी करने वालों का अकाल रहता है...
बहस के लिए सबके पास इतना वक़्त है.. लेकिन सार्थक विमर्श भी होना चाहिए.. इसकी किसी को चिंता नही है..
देश हमारा है.. लेकिन इसकी चिंता पडोसी के हाथ में है..
हम सबका चरित्र यही रहता है.. चिंतन यही रहता है..
चेहरा देखकर तिलक करने की प्रवृत्ति है..
विमर्श के लिए कोई तैयार नही है..
प्रयास होने की सम्भावना कहीं दिखाई नही देती..
वही बात-- "मैं सच कहूँगा और हार जाऊंगा.. वो झूठ बोलकर भी लाजवाब होगा.. "

Nilus Classes :- आपने एक तीर से कई निशाने साधे हैं अमित जी,


Amit Tiwari :-निशाने भी कई नही हैं नीलू जी... निशाना तो बस एक ही है कि कैसे हम सब अपने भीतर के सड़े-गले और बजबजाते सच को समझकर किसी सार्थक बदलाव की ओर कदम बढायें..
"वादे-वादे जायते सत्यबोधः"

Nilus Classes:-  आजकल थोथे चने बहुत हो गए है


Amit Tiwari :-नीलू जी.. आप सही कह रहे हैं कि आजकल थोथे चने ज्यादा हो गए हैं... लेकिन अहमियत सब की होती है.. थोथा चना भी अगर अपने लायक ईमानदार भूमिका चुन ले तो सार्थक हो सकता है... इनका बेहतर इस्तेमाल चूल्हे की आग में किया जा सकता है..
जलते जल्दी हैं थोथे चने..
लेकिन समस्या यही है कि लोग खुद के प्रति ईमानदार होकर अपनी भूमिका का चयन नही कर रहे हैं आज के समय में.. 

-- Haryanaschoolofdramaknl Knl :-  मुझे तो तुम बीमार लगते हो जो इंडिया को बदनाम कर रहे हो. तुम्हे कमेन्ट करना ही बंद कर देना चाहिए. तुम गन्दगी फ़ैलाने लगे हो देश में)


Amit Tiwari :- सम्माननीय बंधुवर आत्मप्रवंचना करने से आत्मसंतुष्टि तो मिल सकती है.. लेकिन सत्य नही बदलता है...
देश की हालत क्या है? कितनी बीमार है.. ? ये तो सबको पता ही है.. लेकिन परेशानी यही है कि हम सच को स्वीकारने के बजाय आत्मप्रवंचना में लगे रहते हैं..
हम तो खुश हो जाते हैं जब कोई हमारे देश के निवासियों को "SLUMDOG " कहता है और फिर पूरी दुनिया के तथाकथित सभ्य लोग ओस्कर देते हैं...
हमारे सच बोलने से देश बदनाम होता है.. लेकिन उस ओस्कर से सम्मान बढ़ा था शायद...

Sachin Sharma:-  Haryanaschoolofdramaknl Knl ,,,,,,, जी....... इस पोस्ट या कोममेंट्स में ऐसा क्या दिखाई दे गया आपको ... जो गंदगी फैला रहा है ..। बोलने से पहले एक बार सोच लेना चाहिए की हम कह क्या रहे है ... बिना बात को समझे कमेंट फेक दिया बस ... भारत हमारा घर है ॥ और घर में कुछ गलत हो रहा हो तो उसकी आलोचना भी की जाती है .॥ उसमे सुधार का प्रयास भी किया जाता है ... सिर्फ खुद को आत्म संतुस्टी देकर जय हो जय हो बोलने से काम नहीं चलता ... और यहा सब अपने लोग है .... विचार विमर्श और विचारो का आदान प्रदान करना ही क्या आपको गंदगी फैलाना लग रहा है .... वाह जी ......वंदे मातरम जय हिन्द

Maahi Singh:- kya galat hai isme?


Amit Tiwari :-सचिन जी.. माही जी.. हमारी बात को समझने के लिए आपका आभार...
दरअसल होता क्या है कि बहुत बार थप्पड़ खाने से किसी का चेहरा लाल देखकर भी लोगों को लगता है कि उसके शरीर में खून बहुत है..
लेकिन हमें स्वीकारना चाहिए कि थप्पड़ मारकर गाल लाल कर लेने से ख़ून नही बन जाता है... देश की भी यही हालत है... इधर उधर के थप्पड़ से गाल लाल हो जाता है.. और सब लाल चेहरा देखकर खुश हो जाते हैं..
देश के सेहत का सच तो आज भी अस्थि-पंजर बना किसान-मजदूर ही है...


उपरोक्त बातों पर आप सभी की टिप्पणियां अपेक्षित हैं..
आप सभी की टिप्पणियों से ही सत्य और स्पष्ट हो सकेगा..


-अमित तिवारी 
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

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