...........................
Showing posts with label Politics. Show all posts
Showing posts with label Politics. Show all posts

Monday, January 4, 2016

सम-विषम दिल्ली (Odd-Even Delhi)



देश की राजधानी दिल्‍ली इन दिनों सम-विषम के कारण चर्चा में है। स्‍कूली पढ़ाई के दिनों में जिन बच्‍चों ने गणित को हाथ लगाने से तौबा कर ली थी, उन्‍हें भी आजकल गणित के इस मूल पाठ को याद करना पड़ रहा है। 
मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल के नेतृत्‍व में आम आदमी पार्टी की सरकार ने राजधानी में पर्यावरण की चिंताजनक स्थिति को देखते हुए तारीख के आधार पर सड़क पर दौड़ने वाली गाडि़यों के निर्धारण की नीति साल की शुरुआत से लागू की है। व्‍यवस्‍था पूरी तरह प्रायोगिक स्‍तर ही लागू हुई है लेकिन चर्चा जोरों पर है। राज्‍य सरकार पहले दिन से ही अपनी पीठ थपथपाने में लगी है तो विरोधी व्‍यवस्‍था की कमियां गिनाने में व्‍यस्‍त हैं। आम जनता की ओर से मिली-जुली प्रतिक्रिया आ रही है। 
इस व्‍यवस्‍था को मुख्‍य तौर पर पर्यावरण की दृष्टि से लागू किया गया है लेकिन आम जनता इस व्‍यवस्‍था के तहत सड़क पर जाम से राहत और बसों के बढ़े फेरे को लेकर ज्‍यादा खुश है। वैसे भी प्रदूषण के इतने कारण हैं कि सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक चुनिंदा निजी गाडि़यों पर रोक लगाकर इस पर बहुत ज्‍यादा काबू पाने की उम्‍मीद करना भी बेमानी सा है। शुरुआती दिनों की रिपोर्ट भी यही कह रही है कि सड़कों पर गाडि़यां तो सम-विषम के हिसाब से ही चल रही हैं, लेकिन प्रदूषण के स्‍तर पर ज्‍यादा फर्क नहीं दिखा है। 

दूसरी ओर विरोधी इस व्‍यवस्‍था को लेकर तमाम तर्क दे रहे हैं। सबसे वाजिब तर्क है दिल्‍ली की परिवहन व्‍यवस्‍था का। सार्वजनिक परिवहन की व्‍यवस्‍था को मजबूत और सुगम किए बिना ऐसी कोई भी व्‍यवस्‍था लंबे समय तक कारगर नहीं हो सकती। केजरीवाल स्‍पष्‍ट कर चुके हैं कि यह अस्‍थायी व्‍यवस्‍था है और सफल रहने पर भी इसे स्‍थायी नहीं किया जा सकता। उनके इस बयान के पीछे की गहराई को समझा जा सकता है। राज्‍य सरकार भले ही अपनी पीठ थपथपाए लेकिन उसे भी इतना अंदाजा है कि हफ्ते-दस दिन के लिए ऐसी व्‍यवस्‍थाओं को लागू करने और उसे स्‍थायी करने में कितना फर्क है। बहरहाल, सड़क पर सार्वजनिक परिवहन के भरोसे चलने वाली जनता जाम मुक्‍त रास्‍ते और बढ़ी बसों से खुश है और उसे यह भी पता है कि यह सिर्फ चार दिन की चांदनी ही है।
- अमित तिवारी 

Wednesday, December 30, 2015

डीडीसीए का ड्रम (DDCA Drum)




अरविंद केजरीवाल कहते बहुत कुछ हैं, लेकिन करते कितना हैं, इसका कोई पैमाना नहीं है। इस बार उनके आरोपों का पैमाना छलका है वित्‍त मंत्री अरुण जेटली पर। केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी का कहना है कि अरुण जेटली के कार्यकाल के दौरान डीडीसीए में जमकर धांधली हुई और इस बात के पुख्‍ता सुबूत भी उनकी पार्टी के पास हैं। यही नहीं, उन्‍होंने डीडीसीए में यौन शाेषण का मुद्दा भी उठाया है। 
डीडीसीए का ड्रम बजाकर उनकी पार्टी कुछ दिनों से राजनीति में नई हलचल पैदा किए हुए है। देखना दिलचस्‍प होगा कि इन सुबूतों में और दिल्‍ली की पूर्व मुख्‍यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ सुबूतों में कितनी समानता है। सरकार में आने से पहले तक केजरीवाल और उनकी पार्टी ने बढ़-चढ़कर शीला दीक्षित के खिलाफ 300 से ज्‍यादा पन्‍नों के सुबूत होने का दावा किया था लेकिन सरकार में आने के बाद जब कार्यवाही की बात हुई तो उन्‍होंने उल्‍टा पत्रकारों को ही सुबूत लाने की जिम्‍मेदारी दे दी। फिलहाल केजरीवाल एक बार फिर कई पन्‍नों के सुबूत अरुण जेटली के खिलाफ होने का दावा कर रहे हैं। एक ओर जब सुब्रमण्‍यन स्‍वामी दस्‍तावेजों के दम पर हेराल्‍ड मामले में कांग्रेस की अध्‍यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्‍यक्ष राहुल गांधी को अदालत में हाजिर होने के लिए मजबूर कर देते हैं तो यह प्रश्‍न हर आम आदमी के दिमाग में आता है कि आखिर केजरीवाल अपने सुबूतों को लेकर अदालत के पास क्‍यों नहीं जाते। क्‍या केजरीवाल को नहीं पता कि प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में सुबूत लहराने और आरोप लगाने से किसी को ना तो दोषी ठहराया जा सकता है और ना उसे सजा दी जा सकती है। दूसरी ओर जेटली ने केजरीवाल के खिलाफ मानहानि का मामला दायर कर दृश्‍य को और रोमांचक बना दिया है। जेटली केंद्र सरकार के ऐसे मंत्री हैं जो जमीनी स्‍तर पर जनता के बीच सबसे कम लोकप्रिय माने जा रहे हैं। इसके बावजूद भाजपा उनको लेकर झुकने की तैयारी में नहीं दिखाई दे रही। जेटली के मामले में कीर्ति आजाद का मोर्चा खोलना भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी करने वाला है। पार्टी से निलंबन के बाद भी अाजाद के तेवर में कोई बदलाव नहीं आता दिख रहा है। सारे समीकरणों को देखते हुए गेंद फिलहाल केजरीवाल के पाले में दिख रही है लेकिन इस बात की उम्‍मीद कम ही है कि वो कोई गोल कर पाएंगे। 
- अमित तिवारी 

Wednesday, December 22, 2010

हमारे प्रधानमंत्री 'नर्वस' नहीं होते हैं क्‍योंकि वो 'नारी-वश' हैं ... !!




मनमोहन एक निहायत ईमानदार व्यक्ति हैं. निष्ठावान प्राणी हैं. वफादार तो हैं ही. उनकी वफादारी और निष्ठा पर संदेह नही किया जा सकता है. उनकी वफादारी तो जैसे.....!!
कुछ ऐसी ही तस्वीर बनाई हुई है हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री की कांग्रेसियों ने. सच भी है. जिस वफादारी और निष्ठा से वो अपना काम कर रहे हैं, उस पर संदेह किया भी नही जाना चाहिए. हमें अपने मन से यह संदेह मिटा देना चाहिए कि वो देश के प्रधानमंत्री हैं. हमें ये संदेह भी नही रखना चाहिए कि वो किसी भी हाल में कांग्रेस प्रा. लि. कंपनी के प्रति अपनी वफादारी में कमी ला सकते हैं. वो अपनी मुखिया के प्रति पूर्ण निष्ठावान हैं. इस निष्ठा के लिए वो बाकि किसी भी निष्ठा की बलि चढ़ा सकते हैं. और लगातार चढ़ा भी रहे हैं.
हमें अपने इस शक्तिशाली प्रधानमंत्री पर गर्व करना चाहिए. इनकी शक्ति का नमूना इन्होने कई बार दिखाया है, लेकिन हम देखने को तैयार ही नही होते हैं. जिस दिन अमेरिका से परमाणु संधि करने गए थे और बुश से हाथ मिलाया था उसी दिन अमेरिका के 8 बैंक दिवालिया हो गए. मैं तो खैर मनाता हूँ कि मैडम ने गले मिलने के लिए नही कहा था, वरना अमेरिका सेल पे आ गया होता. !!
ऐसे में हमारी अर्थव्यवस्था रखी है, ये क्या कम बड़ी बात है. शक्तिशाली इतने कि पाकिस्तान के भेजे दस आतंकी मर भी नही पाए थे कि शाम को चिट्ठी लिख दी कि हमारे वाले 20 और लौटा दो.
मीडिया में भी प्रधानमंत्री के धैर्य और शालीनता की लगातार प्रशंसा होती रहती है. मीडिया लगातार कहता आ रहा है कि चाहे देश में कुछ भी हो जाए लेकिन अपने प्रधानमंत्री नही हिल सकते हैं. कभी किसी भी परेशानी में इन्हें परेशान होते नही देखा गया है. हमेशा वही खिलता-मुस्कुराता चेहरा है.
कहा जाता है कि प्रधानमंत्री कभी नर्वस नही होते हैं. अब भला ये भी कोई बात है. प्रधानमंत्री जी नर्वस हो भी कैसे सकते हैं, वो तो वैसे भी "नारी-वश" हैं. जो "नारी-वश" हो गया है वो नर्वस हो भी कैसे सकता है. लेकिन ये मीडिया वाले उन्हें लगातार परेशां करते रहते हैं.
मनमोहन जी तो इतने निष्ठावान है कि उस निष्ठा में वो ये भी भूल गए हैं कि वो देश के प्रधानमंत्री हैं. उन्हें लगता है कि वो तो बस गाँधी परिवार की जागीर को कुछ दिन तक सँभालने की जिम्मेदारी निभा रहे हैं, एक कार्यकारी राजा की तरह. युवा युवराज जैसे ही गद्दी सँभालने लायक हो जायेंगे ये तुरंत उन्हें गद्दी सौंपकर भार-मुक्त हो जायेंगे.
देश को इस भ्रम से बाहर आ जाना चाहिए कि वो कोई प्रधानमंत्री हैं. ऐसी बातों से भ्रम की स्थिति बनती है. लोग बिना वजह उनसे अपनी झूठी सच्ची उम्मीदें बाँध लेते हैं. यह उनके साथ अन्याय है. देश को उनकी नाकारा-नालायक और नाजायज ईमानदारी को स्वीकार लेना चाहिए.
उनसे कभी ये प्रश्न नही किया जाना चाहिए कि उनकी इस नाकारा ईमानदारी से देश को क्या मिलने वाला है?
हमें उनकी इस नाजायज ईमानदारी की मनमोहनी तान पर मंत्र-मुग्ध होकर मान जाना चाहिए.

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Monday, November 29, 2010

राहुल अब सीट नहीं दुल्‍हन तलाशेंगे (What next for Rahul)






बिहार के चुनाव परिणाम अपने अन्दर कई निहितार्थ लिए हुए हैं. हर कोई इसके अर्थ तलाश रहा है. बिहार में यह बदलाव सभी के लिए बहुत कुछ अप्रत्याशित रहा है. लालू-पासवान को शायद अब समझ लेना चाहिए कि पार्टी को प्रा.लि. कंपनी की तरह नहीं चलाया जाना चाहिए. हालाँकि इस बात की उम्मीद कम ही है कि वो ऐसा कोई विश्लेषण कर पाएंगे.
लालू तो अभी भी जीत में रहस्य खोजने में लगे हैं. और पासवान के पास तो है ही क्या? वैसे हुआ तो दोनों ही लोगों के साथ बहुत बुरा. चिराग ने झोपडी जला दी और तेजस्वी का तेज ऐसा कि लालटेन ही बुझ गयी. लालू-पासवान को शर्म तो नहीं ही आई थी उस वक्त भी जब कि जिंदगी भर इनके पीछे-पीछे जिंदाबाद का नारा लगाने वाले तमाम दूसरी पंक्ति के लोगों को नकार कर ये लोग अपने बेटों को लेकर आ गए थे. जे. पी. और लोहिया के आदर्शों की बात करने वाले लोगों का ऐसा हश्र... लालू.. जिनसे कि गाँव-देश की राजनीति को एक नयी दिशा मिल सकती थी, उन्हें नेता के नाम पर अपनी पत्नी और बेटे के अलावा कोई दिखाई ही नहीं देता.
खैर लालू-पासवान से तो कोई और बेहतर अपेक्षा अब रही भी नही है.
लेकिन इस चुनाव में सबसे बड़ा झटका कांग्रेस प्रा. लि. कंपनी के राजा-बेटा राहुल को लगा है. प्रधानमंत्राी के तुल्य बनाये जा रहे राजा-बेटा को मिला परिणाम अप्रत्याशित रूप से निराशाजनक रहा. यह सम्भावना तो नहीं व्यक्त की जा सकती है कि कांग्रेस का राहुल से मोहभंग हो सकता है, क्यूंकि वहां इस बात का भी विकल्प नहीं शेष है. जैसा कि किसी भी प्राइवेट कंपनी में ऐसा विकल्प नहीं हो सकता है. कम्पनी के मालिक के बेटे की तमाम असफलताओं के बाद भी उसके लिए कुछ न कुछ तर्क तैयार कर ही लिए जाते हैं.
राहुल जैसे राजा-बेटा को इस मीडिया ने ही मार डाला. लोकतंत्रा में किसी को युवराज की तरह से पेश करने को आखिर भूख और बदहाली से जूझती जनता कब तक चुपचाप देखती सुनती रहे. बेरोजगारी और बेबसी से बजबजाती जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त हो गया बिहार भला क्लीन शेव्ड युवराज का करता ही क्या? मीडिया को इनके किसी भाषण से ज्यादा राहुल के लिए बहु की चिंता बनी रहती है. मीडिया कभी इस बात को लेकर परेशान नहीं दिखता कि राहुल ने आजतक कभी कुछ कहा भी है देश में चीखते सवालों को लेकर? कोई रास्ता, कोई हल, कोई एजेंडा... दिखाया राहुल ने कभी?
और फिर इसमें भी तुर्रा यह कि इनके स्क्रिप्ट राइटर भी शायद या तो अनभिज्ञ थे या फिर जानबूझ के राहुल की राजनीति को मारने की इच्छा में थे, जो अनर्गल बातें लिख कर दे देते थे माँ-बेटे को..!
केंद्र की सत्ता में काबिज सबसे शक्तिशाली महिला और उनका स्वयमेव शक्तिशाली पुत्रा जब यहाँ-वहां ये कहते फिरेंगे कि सचमुच भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया है.. तो जनता क्या समझेगी? अरे भई जब तुम ही खुद हो सत्ता में, और आज से नहीं साठ साल से तो फिर भला इस भ्रष्टाचार को ख़त्म कौन करने आयेगा? सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार हुआ तो इसी दल में है.
इतना ही नहीं जब वो एक अनपढ़ की तरह केंद्र द्वारा किसी राज्य को दिए गए धन को लेकर तेरा-मेरा करेंगे तो भला जनता को क्या सन्देश जायेगा. ??
जब सर्वशक्तिमान युवराज दो-दो बाहुबलियों की पत्नियों (रंजित रंजन/लवली आनंद) के साथ सभाएं करते फिरेंगे तो जनता क्या अर्थ निकालेगी?
राहुल शुरुआत से ही दिशाहीन राजनीति कर रहे हैं. और मीडिया है कि कभी भी राहुल की निरर्थक बातों और राजनीति को लेकर कुछ नहीं बोलता. उसे बस युवराज के लिए दुल्हनिया की तलाश रहती है.
हालाँकि यह हार स्वयं में राहुल के लिए एक सकारात्मक बात है. इस हार के बाद पहली बार मीडिया में राहुल को प्यारा बच्चा की जगह हार्डकोर तरीके से विश्लेषित किया गया. और राहुल के लिए बहुत बेहतर होगा कि अगर वो अब अपने नौसिखियेपन और अपनी नासमझी को समझ जाएँ. देश में बेरोजगारी से जूझ रहे युवा को क्लीन शेव्ड राहुल से कोई अपेक्षा कैसे हो सकती है जबकि राहुल अपने लगभग घुमाते-फिराते 6 -7 सालों में एक भी बात उन युवाओं के लिए नहीं कर सके. जब राहुल को किसी भव्य से महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में चमचमाते युवाओं के अलावा कोई युवा दिखाई ही नहीं देगा तो फिर भला राहुल को ही क्यों देखें लोग?
जब युवा का अर्थ सिंधिया, जिंदल और पायलट के परिवार से होना ही होगा, तो फिर बाकी देश के युवाओं को उम्मीद ही क्या हो?
राहुल को उनकी राजनितिक हैसियत का अंदाजा जनता ने पहले भी कराया था लेकिन राहुल कुछ भी सीखने को तैयार नहीं दिखे. और यही कारण रहा कि बिहार ने राहुल को फिर से वहीँ पटक दिया, जहाँ से वो चाहे तो अपने लिए दुल्हनियां खोजकर हनीमून पर निकल जाएँ या फिर देश की असली तासीर को समझने की समझ पैदा करें. वैसे भी कांग्रेस का ये प्यारा बच्चा अगर अभी नहीं संभला तो फिर कुछ सालों के बाद उम्र युवा की श्रेणी से भी बाहर कर देगी.

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Saturday, November 27, 2010

बौखलाया विपक्ष कहीं बिहार को बीहड़ ना बना दे (Mandate-less opposition also may be harmful for Bihar)






बिहार के चुनाव परिणाम कई मायने में अलग रहे हैं. पहली बार विकास के नाम परिणाम आया लगता है. भाजपा, जिसमे एक मुर्दनी सी छाई थी पिछले काफी अरसे से, उसमे नयी जान आ गयी, तो वहीँ बाकी दलों में मुर्दनी छा गयी.
कांग्रेस के जनाजे को उठाने के लिए तो चार कंधे मिल गए हैं, लेकिन दुःख तो मुझे पासवान के बारे में सोचकर हो रहा है. लोजपा की अर्थी उठाने के लिए तो चार कंधे भी नहीं मिल पाए. लोजपा का तो जनाजा भी तीन कंधो पे उठता दिख रहा है. लालू की लालटेन बिना तेल की हो गयी है. सूखी बत्ती जल रही है, कब बुझ जाए कुछ पता नही.
लेकिन फिलहाल बिहार एक गहरे संवैधानिक संकट में भी फंस गया है. किसी भी दल के पास विपक्षी दल बनने कि योग्यता नहीं बची है. नीतीश को इतनी अच्छी तरह भी नहीं जीतना चाहिए था. अब विपक्ष विहीन विधानसभा से बिहार किस दिशा में जायेगा?
नीतीश की इस भारी जीत ने स्वयं नीतीश के लिए संकट खड़े कर दिए हैं. यह जनादेश नीतीश से बहुत अधिक अपेक्षा को दर्शा रहा है. लालू या पासवान से किसी को उम्मीद थी भी नहीं. लालू जब सत्ता में थे तब भी उनसे बहुत अधिक उम्मीद नहीं थी किसी को. उनकी असफलता से किसी प्रकार से भी राजनीति की परिभाषा में कोई बदलाव नही आने वाला था, ना आया. कारण स्पष्ट है कि लालू का कद किसी परिभाषा को बनाने या बिगाड़ने के लायक था ही नही. लालू की असफलता भी उनकी नीजी असफलता ही बन कर रह गयी. लेकिन नीतीश के मामले में ऐसा नहीं है. नीतीश ने जनता से कहा था कि वो बिहार बना रहे हैं, और अगर जनता चाहती है कि ये काम चलता रहे तो उन्हें फिर से मौका मिलना चाहिए. जनता ने उनमे अपना भरोसा भी दिखा दिया है. और अब इस भरोसे में किसी भी तरह की चूक सिर्फ नीतीश ही नहीं पूरे बिहार और साथ साथ लोकतान्त्रिाक प्रक्रिया की असफलता के रूप में गिना जायेगा. अभी तक नीतीश ने जो भी विकास बिहार में किया था वह सब पूरी तरह से बाजार के हित में होने वाले विकास थे. निर्माण कार्यों को वास्तविक विकास नहीं कहा जा सकता है. यह विकास की प्रक्रिया का एक आवश्यक अंग आज के समय में भले ही है, लेकिन फिर भी सड़क और पुल निर्माण को वास्तविक विकास नहीं माना जा सकता है. नीतीश की इस दूसरी पारी में जनता को उनसे वास्तविक विकास की उम्मीद रहेगी. अब नीतीश से जिस विकास की अपेक्षा है वह बाजारोंमुख विकास नही है. बल्कि अब जिस विकास की उम्मीद उनसे है उसके होने से बाजार को कोई सीधा लाभ नहीं होगा. ऐसे में नीतीश के लिए यह एक गंभीर चुनौती हो जाएगी कि अगर बाजार उनके वास्तविक विकास में उनके साथ नही खड़ा हुआ तो वो क्या करेंगे. अब नीतीश को ऐसी किसी भी स्थिति से निपटने के लिए भी तैयार रहना होगा.
विपक्षविहीन सदन भी एक छुपा हुआ खतरा दिखा रहा है. अब विपक्ष बुरी तरह से बौखलाया हुआ है. और सबसे बुरी बात ये है कि उसके पास सदन में जगह नहीं है अपने विरोध को जाहिर करने के लिए. अब बहुत संभावना है कि यह बौखलाया हुआ विपक्ष अपने विरोध को सड़कों तक लेकर चला आये. और यह बात तो हर सामान्यजन जानता है कि जैसे ही घर की बातें घर की दीवारों को पार करके बाहर निकलती हैं, घोर अराजकता का जन्म होता है. बिहार की राजनीति में भी यही खतरा दिखाई दे रहा है. कहीं यह घबराया और लुटा-पिटा विपक्ष सदन के पटल पर रखे जाने वाले विरोध को सड़क पर ना ले आये. किसी भी सत्तापक्ष के लिए यह सबसे कठिन पल होता है. सदन और सड़क के विरोध के अंतर को समझना होगा.
इस बार के परिणाम में कुछ और भी बातें सोचने की हैं. इस बार के चुनाव में पहली बार बिहार में सभी वामपंथी दल एकजुट होकर लड़े थे और आश्चर्यजनक रूप से एक सीट पर सिमट गए. वामपंथी दलों की यह हार बहुत से प्रश्न खड़ा करती है. क्या नक्सल का खतरा समाप्त हो गया है? या फिर अब बौखलाए हुए नक्सली और भी उत्पात मचाएंगे? या कि नक्सल समर्थकों ने भी इस बार मिलकर इन सरकारी लाल झंडे वालों को सबक सिखाने के लिए नीतीश का समर्थन किया है.
और फिर यह भी सोचने का विषय है कि बिहार की यह बयार अगर बंगाल तक पहुंची तो बुद्धदेव भट्टाचार्य के लिए कैसा संकट खड़ा होने वाला है?
यह अप्रत्याशित जनादेश देखने में जितना सुखद और प्रिय लग रहा है, इसमें उतना ही गंभीर संकट छुपा है.
नीतीश को संसद से लेकर सड़क तक समस्याओं से जूझते हुए विकास की डगर को तय करना है. और जब कि सदन विपक्ष विहीन हो गया है, ऐसे में मीडिया की जिम्मेदारी भी कई गुना बढ़ जाती है. मीडिया को भी अब नीतीश-पुराण बंद करके एक स्वस्थ विपक्ष की तरह से भूमिकाएं बनानी होंगी. जब तक मीडिया एक स्वस्थ आलोचक की भूमिका में नहीं आ जाता है तब तक बिहार के लिए संकट बना रहेगा.
और फिर मीडिया के चरित्रा को लेकर अब गंभीर चुनौती होगी जब कि नीतीश बिहार में उस वास्तविक विकास की नींव रखेंगे जिसकी चर्चा हमने शुरू में की है कि वो विकास बजारोंमुख नही होगा, तब क्या मीडिया बिहार की जनता के पक्ष में खड़ा हो पायेगा या फिर बाजार की शक्तियों के सामने घुटने टेक देगा. ‘रहा न कुल कोई रोवनहारा’ जैसे विपक्ष को लेकर नीतीश कितने संतुलन के साथ विकास कर पाएंगे यह उनके स्वयं के सामने एक बहुत बड़ा प्रश्न है. पूरे राष्ट्र को यह आशा करनी चाहिए कि बिहार अब निर्माण कार्यों से आगे बढ़कर वास्तविक विकास की यात्रा पर बढ़ सके. अब नीतीश की असफलता बिहार को कई दशक पीछे कर देगी.

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Tuesday, October 12, 2010

ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे..



शायद कम ही लोग जानते 1990 के दशक में गढ़वाल विश्वविद्यालय में हरक सिंह रावत शिक्षक रहते ही राजनीति को अपना पेशा बना चुके थे। तब कवि और पत्रकार आज के  मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक व विपक्ष के नेता हरक सिंह रावत में घनिष्ट दोस्ती होने के कारण कभी -कभी तो यह बात भाजपा और कांग्रेस के भीतर खुसफुसाहट के रुप में कही जाती थी कि उनके और मुख्यमंत्री के बीच कोई गुप्त संधि तो नहीं हैं। राजनीति
 में पुरानी बातो को खूब उछाला जाता है।  हरक सिंह रावत स्कूटर के आगे और उनके पीछे की सीट पर आज के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक हुआ करते थे। लेकिन वक्त ने करवट बदली और उनके स्कूटरिया यार निशंक को भाजपा आलाकमान ने उत्तराखंड को चलाने का जिम्मा सौंप दिया। हरक सिंह के पास विधानसभा के भीतर कांग्रेस को चलाने का भार है। स्कूटर वाली दोस्ती कायम है। इसे कहते हैं सच्ची दोस्ती! सीटें बदल गईं पर दोस्ती नहीं बदली। प्रदेश हैरान है। पौड़ी विधानसभा क्षेत्र से राजनीति शुरु करने वाले हरक सिंह रावत राजनीति के उस्ताद माने जाते हैं। पहले मनोहर कांत ध्यानी फिर बीसी खंडूड़ी की उंगली थाम कर भाजपा की राजनीति में ऐसे जमे कि भाजपा के भीतर कईयों को उनसे खतरा महसूस होने लगा। बीजेपी की नई पीढ़ी के नेताओं में उन्होने सबको पीछे छोड़ दिया। उनकी महत्वाकांक्षाओं को भांप रहे नेताओं ने उन्हे भाजपा से बाहर करवा दिया।भाजपा से निकलकर उन्होने सतपाल महाराज की उंगली थामी और 1996 के लोकसभा चुनाव में उनकी सोशल इंजीनियरी और चुनावी तिकड़मों ने मिलकर भाजपा के जनरल को चित कर दिया। सतपाल महाराज को राजनीति में भी चेले चाहिए या फिर भक्त। वह खुद ही गढ़वाल में ठाकुर राजनीति के कर्णधार होना चाहते थे। हरक सिंह राजनीति में महाराज का संप्रदाय बनाने तो नहीं आए थे। वह गढ़वाल विवि की शिक्षक राजनीति के गुरुकुल में प्रशिक्षित थे। गुरु को गुड़ बनाए रखने व खुद शक्कर बन जाने की टेक्नोलॉजी में दक्ष हरक सिंह सतपाल के कंधे पर सवार होकर राजनीति में लंबी छलांग मारने को आतुर थे। लिहाजा ठाकुर क़ी यह हिट जोड़ी भी टूट गई। हरक सिंह बसपा में गए और वहां भी उन्होने अपना लोहा मनवाया। एक दशक से ज्यादा समय तक राजनीति में घुमक्कड़ की तरह इधर उधर आते जाते रहे हरक फिर कांग्रेस में पहुंचे तो वहां उन्होने डेरा जमा लिया।अदम्य महत्वाकांक्षा और दबंग राजनीति हरक की राजनीति की बुनियादी ताकत है। अपने समर्थकों के लिए किसी से भी भिड़ जाने की उनकी खासियत से ही उनके पास कुछ कर गुजरने वाले समर्थकों की पल्टन है। राजनीति की यह खासियत ही उनकी सीमा भी है।उनके विरोधी भी उतने ही कट्टर हैं जो किसी भी कीमत पर उन्हे आगे नहीं आने देना चाहते। इसीलिए विवादों से उनका पुराना नाता रहा है। पटवारी भर्ती कांड, जेनी कांड समेत कई विवादों से घिरे हरक अब भूमि घोटाले में घिर गए हैं। मुख्यमंत्री के सबसे तगड़े दावेदार माने जा रहे हरक सिंह रावत को दौड़ से बाहर करने के लिए इसे उछाला जा सकता है ।

-सुदर्शन सिंह रावत

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...