बिहार के चुनाव परिणाम अपने अन्दर कई निहितार्थ लिए हुए हैं. हर कोई इसके अर्थ तलाश रहा है. बिहार में यह बदलाव सभी के लिए बहुत कुछ अप्रत्याशित रहा है. लालू-पासवान को शायद अब समझ लेना चाहिए कि पार्टी को प्रा.लि. कंपनी की तरह नहीं चलाया जाना चाहिए. हालाँकि इस बात की उम्मीद कम ही है कि वो ऐसा कोई विश्लेषण कर पाएंगे.
लालू तो अभी भी जीत में रहस्य खोजने में लगे हैं. और पासवान के पास तो है ही क्या? वैसे हुआ तो दोनों ही लोगों के साथ बहुत बुरा. चिराग ने झोपडी जला दी और तेजस्वी का तेज ऐसा कि लालटेन ही बुझ गयी. लालू-पासवान को शर्म तो नहीं ही आई थी उस वक्त भी जब कि जिंदगी भर इनके पीछे-पीछे जिंदाबाद का नारा लगाने वाले तमाम दूसरी पंक्ति के लोगों को नकार कर ये लोग अपने बेटों को लेकर आ गए थे. जे. पी. और लोहिया के आदर्शों की बात करने वाले लोगों का ऐसा हश्र... लालू.. जिनसे कि गाँव-देश की राजनीति को एक नयी दिशा मिल सकती थी, उन्हें नेता के नाम पर अपनी पत्नी और बेटे के अलावा कोई दिखाई ही नहीं देता.
खैर लालू-पासवान से तो कोई और बेहतर अपेक्षा अब रही भी नही है.
लेकिन इस चुनाव में सबसे बड़ा झटका कांग्रेस प्रा. लि. कंपनी के राजा-बेटा राहुल को लगा है. प्रधानमंत्राी के तुल्य बनाये जा रहे राजा-बेटा को मिला परिणाम अप्रत्याशित रूप से निराशाजनक रहा. यह सम्भावना तो नहीं व्यक्त की जा सकती है कि कांग्रेस का राहुल से मोहभंग हो सकता है, क्यूंकि वहां इस बात का भी विकल्प नहीं शेष है. जैसा कि किसी भी प्राइवेट कंपनी में ऐसा विकल्प नहीं हो सकता है. कम्पनी के मालिक के बेटे की तमाम असफलताओं के बाद भी उसके लिए कुछ न कुछ तर्क तैयार कर ही लिए जाते हैं.
राहुल जैसे राजा-बेटा को इस मीडिया ने ही मार डाला. लोकतंत्रा में किसी को युवराज की तरह से पेश करने को आखिर भूख और बदहाली से जूझती जनता कब तक चुपचाप देखती सुनती रहे. बेरोजगारी और बेबसी से बजबजाती जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त हो गया बिहार भला क्लीन शेव्ड युवराज का करता ही क्या? मीडिया को इनके किसी भाषण से ज्यादा राहुल के लिए बहु की चिंता बनी रहती है. मीडिया कभी इस बात को लेकर परेशान नहीं दिखता कि राहुल ने आजतक कभी कुछ कहा भी है देश में चीखते सवालों को लेकर? कोई रास्ता, कोई हल, कोई एजेंडा... दिखाया राहुल ने कभी?
और फिर इसमें भी तुर्रा यह कि इनके स्क्रिप्ट राइटर भी शायद या तो अनभिज्ञ थे या फिर जानबूझ के राहुल की राजनीति को मारने की इच्छा में थे, जो अनर्गल बातें लिख कर दे देते थे माँ-बेटे को..!
केंद्र की सत्ता में काबिज सबसे शक्तिशाली महिला और उनका स्वयमेव शक्तिशाली पुत्रा जब यहाँ-वहां ये कहते फिरेंगे कि सचमुच भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया है.. तो जनता क्या समझेगी? अरे भई जब तुम ही खुद हो सत्ता में, और आज से नहीं साठ साल से तो फिर भला इस भ्रष्टाचार को ख़त्म कौन करने आयेगा? सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार हुआ तो इसी दल में है.
इतना ही नहीं जब वो एक अनपढ़ की तरह केंद्र द्वारा किसी राज्य को दिए गए धन को लेकर तेरा-मेरा करेंगे तो भला जनता को क्या सन्देश जायेगा. ??
जब सर्वशक्तिमान युवराज दो-दो बाहुबलियों की पत्नियों (रंजित रंजन/लवली आनंद) के साथ सभाएं करते फिरेंगे तो जनता क्या अर्थ निकालेगी?
राहुल शुरुआत से ही दिशाहीन राजनीति कर रहे हैं. और मीडिया है कि कभी भी राहुल की निरर्थक बातों और राजनीति को लेकर कुछ नहीं बोलता. उसे बस युवराज के लिए दुल्हनिया की तलाश रहती है.
हालाँकि यह हार स्वयं में राहुल के लिए एक सकारात्मक बात है. इस हार के बाद पहली बार मीडिया में राहुल को प्यारा बच्चा की जगह हार्डकोर तरीके से विश्लेषित किया गया. और राहुल के लिए बहुत बेहतर होगा कि अगर वो अब अपने नौसिखियेपन और अपनी नासमझी को समझ जाएँ. देश में बेरोजगारी से जूझ रहे युवा को क्लीन शेव्ड राहुल से कोई अपेक्षा कैसे हो सकती है जबकि राहुल अपने लगभग घुमाते-फिराते 6 -7 सालों में एक भी बात उन युवाओं के लिए नहीं कर सके. जब राहुल को किसी भव्य से महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में चमचमाते युवाओं के अलावा कोई युवा दिखाई ही नहीं देगा तो फिर भला राहुल को ही क्यों देखें लोग?
जब युवा का अर्थ सिंधिया, जिंदल और पायलट के परिवार से होना ही होगा, तो फिर बाकी देश के युवाओं को उम्मीद ही क्या हो?
राहुल को उनकी राजनितिक हैसियत का अंदाजा जनता ने पहले भी कराया था लेकिन राहुल कुछ भी सीखने को तैयार नहीं दिखे. और यही कारण रहा कि बिहार ने राहुल को फिर से वहीँ पटक दिया, जहाँ से वो चाहे तो अपने लिए दुल्हनियां खोजकर हनीमून पर निकल जाएँ या फिर देश की असली तासीर को समझने की समझ पैदा करें. वैसे भी कांग्रेस का ये प्यारा बच्चा अगर अभी नहीं संभला तो फिर कुछ सालों के बाद उम्र युवा की श्रेणी से भी बाहर कर देगी.
-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद