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Wednesday, July 9, 2014

लड़की जैसी लड़की (Girl like a Girl)



'तन्‍मय, तू कुछ बोल क्‍यों नहीं रहा यार?' सौम्‍या ने झुंझलाते हुए कहा। तन्‍मय अब भी चुप था। 'तू आखिर मुझसे शादी क्‍यों नहीं करना चाहता? तू ही तो कहता है कि तू मुझसे बहुत प्‍यार करता है। मैं बहुत अच्‍छी हूं। तब आखिर हम शादी क्‍यों नहीं कर सकते?' कहते-कहते सौम्‍या रुआंसी हो गई। तन्‍मय, 'यार.... तू समझती क्‍यों नहीं? यू आर नॉट अ वाइफ मैटेरियल... अंडरस्‍टैंड दिस।'
सौम्‍या, 'मतलब... तू कहना क्‍या चाहता है?'
तन्‍मय, ' मैं सीधा ही तो बोल रहा हूं यार... तू अच्‍छी फ्रेंड है मेरी... मैं प्‍यार करता हूं तुझसे, लेकिन यू नो... तेरे अंदर वाइफ वाला मैटेरियल नहीं है। वो कहते हैं ना कि तुझमे वो लड़कियों वाली बात नहीं है।' तन्‍मय कहता रहा, 'वो... बस में सफर करते टाइम रुमाल से कभी होंठ, कभी माथे का पसीना पोंछना, शर्माना, पति का खाने पर इंतजार करना, साड़ी पहनकर इतराना... एंड सो ऑन...आई थिंक तू समझ रही है सौमी...'
तन्‍मय अपनी बात पूरी करके आइसक्रीम लेने चला गया था और सौम्‍या अब भी उसकी बातों का मतलब समझने की कोशिश कर रही थी। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि ये वहीं तन्‍मय है जिसने एक दिन सौम्‍या को रोता देखकर कहा था, 'क्‍या यार सौमी... तू ये लड़कियों की तरह रोया ना कर। यू नो तेरी सबसे अच्‍छी बात कौन सी है... तू और लड़कियों जैसी नहीं है... वो बेवजह रोना-धोना, इमोशनली ब्‍लैकमेल करना लड़कों को... यू आर डिफरेंट... और इसीलिए तो मैं तुझसे इतना प्‍यार करता हूं।' गर्लफ्रेंड और वाइफ का फर्क उसे अब समझ आने लगा था।

- अमित तिवारी
दैनिक जागरण 

Tuesday, November 30, 2010

दोधारी तलवार: कैसे बचेगी पूजा??(Double-edged sword)




पूजा, हरीश की पत्नी. एक सुन्दर-सुशीला गृहिणी. पिछले कुछ दिनों से पड़ोस में रहने वाले लड़के, विनय के आचरण से थोडा परेशान सी थी. जब विनय की हरकतें बढ़ने लगी, तो एक दिन पूजा ने परेशान होकर अपने पति हरीश को सारी बात से अवगत कराया.
पति-पत्नी इस बात को लेकर परेशान थे. फिर उन्होंने अपने पहचान के एक विश्वसनीय व्यक्ति रामबाबु से इस बात को लेकर विमर्श किया. रामबाबु ने पूजा से कहा,"अरे, ये भी कोई बात है...? ये बताओ, जब उसने तुम्हे पहली बार परेशान किया, तब तुमने उसे डांटा था?"
"जी..नहीं तो....मैंने सोचा शायद खुद ही मान जाए..लेकिन जब नहीं माना, तो फिर मैंने इनको बता दिया.." पूजा ने मासूमियत से जवाब दिया..
"यही तो...तुम सब भी ना...अरे तुमने उसे ढंग से डांटा तो होता..उसकी क्या मजाल, दुबारा तुम्हे कुछ बोल देता..बिना मतलब हरीश को परेशान कर दिया...ये कोई हरीश को बताने वाली बात थी!!? इस से तो तुम खुद भी निबट सकती थीं..." रामबाबू ने पूजा को समझाते हुए कहा.
यद्यपि फ़िलहाल जो समस्या बन गयी है, उसका कोई हल नहीं है उनके पास....

(2)
पूजा, हरीश की पत्नी. एक सुन्दर-सुशीला गृहिणी. पिछले कुछ दिनों से पड़ोस में रहने वाले एक लड़के, विनय के आचरण से कुछ परेशान थी. पूजा ने एक दो बार उसे डांटा भी. फिर जब एक दिन उसकी हरकत ज्यादा बढ़ गयी, तो पूजा ने गुस्से में आकर उसे थप्पड़ मार दिया. विनय हतप्रभ सा वहां से चला तो गया, लेकिन उस थप्पड़ के लिए बदले की भावना उसके मन में आ गयी थी. उसने मोहल्ले के कुछ असामाजिक तत्वों के माध्यम से पूजा के दामन पर कीचड उछालने का प्रयास किया. बात बढ़ने लगी तो पूजा ने हरीश को सभी बातों से अवगत कराया. पति-पत्नी दोनों परेशान थे. फिर उन्होंने अपने एक पहचान के विश्वसनीय व्यक्ति रामबाबू के साथ बैठकर इस बात पर विमर्श किया.
"हम्म..क्या कर दिया तुमने...? ये बताओ जब उसने पहली बार तुम्हे परेशान किया था, तब तुमने हरीश को बताया था..?" रामबाबू ने पूजा से पूछा.
"जी नहीं तो..मैंने ही डांट दिया था उसे.. मैंने सोचा मान जायेगा.. फिर उस दिन जब हरकत ज्यादा हो गयी, तो गुस्से में मैंने थप्पड़ मार दिया...मुझे क्या पता था कि. ..." पूजा ने सफाई देते हुए कहा.
"यही तो...तुम सब भी ना...बोलो, हरीश को क्यों नहीं बताया...? दो चार फिल्में देखकर तुम लोगों को हिरोइन बनने का शौक लग जाता है...तुम्हे क्या लगता है, ये आजकल के बच्चे तुम्हारे थप्पडों से डर जायेंगे क्या?? हरीश को बताया होता शुरुआत में ही, तो ये दिन तो ना देखना पड़ता..अब बोलो...क्या होगा?" रामबाबू ने पूजा को समझाते हुए कहा.
यद्यपि जो समस्या सामने आ गयी है, उसका कोई हल नहीं है उनके पास..

अब मैं ये सोच रहा हूँ, कि पूजा को करना क्या चाहिए?
उसका तो कोई भी कदम समाज के हिसाब से ठीक नहीं है..
इस दोधारी तलवार से बचने के लिए पूजा क्या करे??
आखिर कब तक पूजा को ही हर बात का दोषी ठहराया जाता रहेगा?
है कोई जवाब इस समाज के पास?

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Thursday, October 21, 2010

क्या होगा ?-(2)

मेरे किस्से (क्या होगा--(१)???) की पाकीजा अचानक एक सुबह मुझे टाऊन पार्क के बेंच पर बैठी मिल गयी. कुछ उदास सी लग रही थी. मैं पास गया तो उसने बिना पूछे ही मुझे बताना शुरू कर दिया कि जब चेहरा जलने और सुंदर ना रहने के बावजूद भी नज़रों ने उसका पीछा नहीं छोडा तो एक दिन उसने परेशां होकर अपनी इहलीला समाप्त कर ली.
मैंने कहा:-'तो ठीक है फिर अब उदास क्यों हो?'
वो बोली:-'मैं इसीलिए उदास हूँ कि आखिर मैंने ऐसा कदम क्यों उठा लिया, मरने जैसा? मैं नाराज़ हूँ अपने आप से कि आखिर इससे हुआ क्या?'
मैंने कहा:-'अरे भई, ठीक ही तो किया तुमने, एक अबला पाकीजा अपने पाक दामन को बचाए रखने के लिए मरने के सिवाय और कर भी क्या सकती है! और वो तुमने किया. तब फिर उदास होने या फिर खुद से नाराज़ होने वाली क्या बात है इसमें?'
मेरी बात सुनकर उसकी आवाज कुछ तेज़ हो गयी थी.
उसने कहना शुरू किया:-"आखिर क्यों? क्यों नहीं कर सकते हम और कुछ? कब तक हम ये कायराना कदम उठाते रहेंगे? आखिर मेरे मरने से भी किस्सा ख़त्म तो नहीं हुआ ना! आखिर आज भी तो पाकीजाओं के दामन उसी डर में जी रहे हैं, जिसमे जीते-जीते मैंने मरने जैसा कदम उठा लिया. क्या हो गया इससे?
अब पाकिजायें अबला नहीं बनी रह सकतीं. अब वो अपना चेहरा नहीं जलायेंगीं; बल्कि उन गन्दी नज़रों को देखने के काबिल ही नहीं छोडेंगी.
अब हमारे हाथ हमारे लिए फांसी का फंदा नहीं तैयार करेंगे बल्कि ये कारन बनेंगे उन् रावणों के संहार का जो सीता को महज सजावटी सामान समझकर उससे अपने महल की शोभा बढ़ाना चाहते हैं.
अब हम अबला नहीं बनी रह सकतीं."
कहते-कहते उसकी आँखें लाल हो आई थीं, मुझे लगा कि उसकी आँखों में कोई क्रांति जन्म ले रही है. उसकी बातों में एक दृढ़ता सी झलक रही थी और इस दृढ़ता से मुझे सुकून मिल रहा था.
तभी अचानक दरवाजे पर हुई किसी दस्तक से मेरी आँखें खुल गयीं, अख़बार वाला अख़बार दे गया था.
अखबार उठाते ही मेरी नज़र एक समाचार पर पड़ी -"लोकलाज के भय से एक बलात्कार पीडिता ने आत्महत्या की."
पाकीजा की सुखद बातों का भ्रम टूट चूका था.
मन यह सोचकर व्यथित है कि आखिर ये पाकीजायें कब तक अबला बनीं रहेंगी?
पाकीजाओं की इस कहानी का अंत क्या होगा???

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Tuesday, October 19, 2010

क्या होगा? -(1)

यूं ही अचानक बैठे-बैठे मन में एक प्रश्न उठ रहा है, क्या होगा?
प्रश्न जितना छोटा है, उतना ही बड़ा इसका आयाम है. इस प्रश्न में घर, समाज, देश, दुनिया सब समाहित हो जाता है.
किस्से की शुरुआत होती है 'पाकीजा' से, एक साधारण परिवार की सुन्दर लड़की. और कभी-कभी तो लगता है कि ये जो दो शब्द हैं, 'साधारण' और 'सुन्दर' यही उसके जीवन के सबसे बुरे शब्द हैं, क्यूंकि आज की दुनिया में 'साधारण' परिवार की लड़की का 'सुन्दर' होना ही सबसे बड़ा अभिशाप है. पाकीजा इस अभिशाप से भला कैसे बच सकती थी? इसी का कारण था कि पाकीजा जैसे ही अपने घर से बाहर निकलती, तमाम वहशी नज़रें उसका पीछा करना शुरू कर देतीं. फिर दूर-दूर तक, चेहरे बदलते, गर्दनें बदलतीं मगर नज़रें नहीं बदलतीं.! ये नज़रें तब तक उसका पीछा करती थी जब तक कि वो फिर से घूमकर वापस घर की चारदीवारी में आकर बंद ना हो जाती.
ये रोज का सिलसिला था. इस रोज-रोज के दौर से परेशां होकर एक दिन पाकीजा ने एक गंभीर कदम उठा ही लिया, उसने अपने ही हाथों तेजाब से अपना चेहरा जला लिया. उसने सोचा कि अब वो सुंदर नहीं रहेगी, तो नज़रें उसका पीछा भी नहीं करेंगी.
मगर अफ़सोस!!!  ऐसा कुछ नहीं हुआ, नज़रों ने उसका पीछा करना नहीं छोडा, क्यूंकि वो अभी भी एक लड़की है. हाँ एक नयी बात जरूर हो गयी है कि अब कुछ हाथ भी सहानुभूति के नाम पर उसकी ओर बढ़ने लगे.
अब मैं ये सोच रहा हूँ कि बचपन में नैतिक शिक्षा की किताब में पढाई जाने वाली बड़ी-बड़ी नैतिकता की बातों का क्या होगा?
मनुष्य और मानवता जैसी अवधारणाओं का क्या होगा?
और सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि 'पाकीजा' का अगला कदम क्या होगा?
क्या वो खुद को मार लेगी?
और क्या उसके मर जाने से किस्सा ख़त्म हो जायेगा?
कभी नहीं!!!
क्यूंकि ये किस्सा किसी एक 'पाकीजा' का नहीं है!! ये किस्सा उन तमाम पाकीजाओं का है जिनके पाक दामन पर हर रोज गन्दी नज़रों के छींटे पड़ते रहते हैं और हर रोज एक छोटा सा प्रश्न खडा करते हैं- "क्या होगा??"

जारी.....

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद
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