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Sunday, December 3, 2017

उनके होठों पर लिखना (Beauty)



उनके होठों पर लिखना,
गालों पर लिख्नना।
उनके बलखाते काले
बालों पर लिखना।।
या कहना मुस्कान
कमल दल सी खिलती है।
उनकी सूरत, मोहिनी
मूरत से मिलती है।।
या कह दूं कि लब से
उनके शहद झरे है।
उनकी आंखों में दरिया,
सागर गहरे हैं।। 
उनके पायल की रुनझुन
में साज कई हैं।
उनकी गहरी आंखों में
भी राज कई हैं।। 
उनके कंगन, उनके
बिछुए, उनकी मेंहदी।
उनकी झुकती पलकों
में अंदाज कई हैं।। 
उनकी शोखी, हिरनी जैसी
चालों पर लिखना।  
उनके होठों पर लिखना,
गालों पर लिख्नना।। 

- अमित तिवारी 

Monday, November 20, 2017

मैं प्यास हूं, तुम तृप्ति हो (You make me)




मैं प्यास हूं, तुम तृप्ति हो 
मैं दीप हूं, तुम दीप्ति हो।
मैं दिवस और भोर तुम 
हो मेरे चित की चोर तुम।
मैं अग्नि हूं, तुम तपन हो 
मैं नींद हूं, तुम स्वप्न हो। 
मैं इमारत, नींव तुम 
मैं आत्म हूं और जीव तुम। 
मैं नेत्र हूं, तुम दृष्टि हो 
मैं मेघ हूं, तुम वृष्टि हो।
मैं साधु हूं, तुम साधना
मैं भक्ति, तुम आराधना..
मैं समंदर, तुम नदी हो
मैं हूं पल छिन, तुम सदी हो
मैं ब्रह्म हूं, तुम सृष्टि हो
मैं प्यास हूं, तुम तृप्ति हो..

-अमित तिवारी 
दैनिक जागरण

(चित्र गूगल से साभार)

Monday, November 6, 2017

सागर, तुम हो कौन? (Who Are you?)



'सागर, तुम हो कौन?' बड़ी-बड़ी छलकती आंखों से नदी ने कहा। 
'मैं कौन हूं! ये क्या सवाल है? एक तुम ही तो हाे, जो अच्छे से जानती हो कि मैं कौन हूं।' 
'मैं जान ही तो नहीं पाई कि तुम हो कौन? हर रोज चेहरा बदल लेते हो तुम। जब-जब मुझे लगता है कि अब समझ गई हूं कि तुम कौन हो, तब तुम्हारा कोई और रूप आ जाता है मेरे सामने।' 
'नदी... तुम इतना सोचती क्यों हो? तुम सोचती हो, इसीलिए तो समझती नहीं हो। सोचना छाेड़ दोगी, तो समझ जाओगी। इतना आसान सा तो हूं मैं। जैसी नदी, वैसा सागर। आखिर नदी से ही तो बना हूं। तुम पता नहीं कहां उलझ जाती हो? नदी से सागर तक के रास्ते में उलझन की गुंजाइश कहां होती है?' 
'उफ... बस तुम्हारी यही बात... यही बात मुझे उलझा देती है। तुम मुझे जानते ही कितना हो। और जब जानते ही नहीं तो कैसे हो गई मैं तुम्हारी नदी? मुझे चिढ़ होती है तुम्हारी इसी बात से। तुम इतना मत सोचो मेरे बारे में। बिलकुल मत सोचो।' नदी एक सांस में बोलती चली गई। 
'सागर को नदी के बारे में जानने की जरूरत ही क्या है? और फिर सागर थोड़े ना चुनता है अपने लिए नदी। वो तो होता ही नदी के होने से है।' शांत सा सागर यही सोचता रहा।

-अमित तिवारी
दैनिक जागरण

Monday, January 4, 2016

सम-विषम दिल्ली (Odd-Even Delhi)



देश की राजधानी दिल्‍ली इन दिनों सम-विषम के कारण चर्चा में है। स्‍कूली पढ़ाई के दिनों में जिन बच्‍चों ने गणित को हाथ लगाने से तौबा कर ली थी, उन्‍हें भी आजकल गणित के इस मूल पाठ को याद करना पड़ रहा है। 
मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल के नेतृत्‍व में आम आदमी पार्टी की सरकार ने राजधानी में पर्यावरण की चिंताजनक स्थिति को देखते हुए तारीख के आधार पर सड़क पर दौड़ने वाली गाडि़यों के निर्धारण की नीति साल की शुरुआत से लागू की है। व्‍यवस्‍था पूरी तरह प्रायोगिक स्‍तर ही लागू हुई है लेकिन चर्चा जोरों पर है। राज्‍य सरकार पहले दिन से ही अपनी पीठ थपथपाने में लगी है तो विरोधी व्‍यवस्‍था की कमियां गिनाने में व्‍यस्‍त हैं। आम जनता की ओर से मिली-जुली प्रतिक्रिया आ रही है। 
इस व्‍यवस्‍था को मुख्‍य तौर पर पर्यावरण की दृष्टि से लागू किया गया है लेकिन आम जनता इस व्‍यवस्‍था के तहत सड़क पर जाम से राहत और बसों के बढ़े फेरे को लेकर ज्‍यादा खुश है। वैसे भी प्रदूषण के इतने कारण हैं कि सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक चुनिंदा निजी गाडि़यों पर रोक लगाकर इस पर बहुत ज्‍यादा काबू पाने की उम्‍मीद करना भी बेमानी सा है। शुरुआती दिनों की रिपोर्ट भी यही कह रही है कि सड़कों पर गाडि़यां तो सम-विषम के हिसाब से ही चल रही हैं, लेकिन प्रदूषण के स्‍तर पर ज्‍यादा फर्क नहीं दिखा है। 

दूसरी ओर विरोधी इस व्‍यवस्‍था को लेकर तमाम तर्क दे रहे हैं। सबसे वाजिब तर्क है दिल्‍ली की परिवहन व्‍यवस्‍था का। सार्वजनिक परिवहन की व्‍यवस्‍था को मजबूत और सुगम किए बिना ऐसी कोई भी व्‍यवस्‍था लंबे समय तक कारगर नहीं हो सकती। केजरीवाल स्‍पष्‍ट कर चुके हैं कि यह अस्‍थायी व्‍यवस्‍था है और सफल रहने पर भी इसे स्‍थायी नहीं किया जा सकता। उनके इस बयान के पीछे की गहराई को समझा जा सकता है। राज्‍य सरकार भले ही अपनी पीठ थपथपाए लेकिन उसे भी इतना अंदाजा है कि हफ्ते-दस दिन के लिए ऐसी व्‍यवस्‍थाओं को लागू करने और उसे स्‍थायी करने में कितना फर्क है। बहरहाल, सड़क पर सार्वजनिक परिवहन के भरोसे चलने वाली जनता जाम मुक्‍त रास्‍ते और बढ़ी बसों से खुश है और उसे यह भी पता है कि यह सिर्फ चार दिन की चांदनी ही है।
- अमित तिवारी 

Wednesday, December 30, 2015

डीडीसीए का ड्रम (DDCA Drum)




अरविंद केजरीवाल कहते बहुत कुछ हैं, लेकिन करते कितना हैं, इसका कोई पैमाना नहीं है। इस बार उनके आरोपों का पैमाना छलका है वित्‍त मंत्री अरुण जेटली पर। केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी का कहना है कि अरुण जेटली के कार्यकाल के दौरान डीडीसीए में जमकर धांधली हुई और इस बात के पुख्‍ता सुबूत भी उनकी पार्टी के पास हैं। यही नहीं, उन्‍होंने डीडीसीए में यौन शाेषण का मुद्दा भी उठाया है। 
डीडीसीए का ड्रम बजाकर उनकी पार्टी कुछ दिनों से राजनीति में नई हलचल पैदा किए हुए है। देखना दिलचस्‍प होगा कि इन सुबूतों में और दिल्‍ली की पूर्व मुख्‍यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ सुबूतों में कितनी समानता है। सरकार में आने से पहले तक केजरीवाल और उनकी पार्टी ने बढ़-चढ़कर शीला दीक्षित के खिलाफ 300 से ज्‍यादा पन्‍नों के सुबूत होने का दावा किया था लेकिन सरकार में आने के बाद जब कार्यवाही की बात हुई तो उन्‍होंने उल्‍टा पत्रकारों को ही सुबूत लाने की जिम्‍मेदारी दे दी। फिलहाल केजरीवाल एक बार फिर कई पन्‍नों के सुबूत अरुण जेटली के खिलाफ होने का दावा कर रहे हैं। एक ओर जब सुब्रमण्‍यन स्‍वामी दस्‍तावेजों के दम पर हेराल्‍ड मामले में कांग्रेस की अध्‍यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्‍यक्ष राहुल गांधी को अदालत में हाजिर होने के लिए मजबूर कर देते हैं तो यह प्रश्‍न हर आम आदमी के दिमाग में आता है कि आखिर केजरीवाल अपने सुबूतों को लेकर अदालत के पास क्‍यों नहीं जाते। क्‍या केजरीवाल को नहीं पता कि प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में सुबूत लहराने और आरोप लगाने से किसी को ना तो दोषी ठहराया जा सकता है और ना उसे सजा दी जा सकती है। दूसरी ओर जेटली ने केजरीवाल के खिलाफ मानहानि का मामला दायर कर दृश्‍य को और रोमांचक बना दिया है। जेटली केंद्र सरकार के ऐसे मंत्री हैं जो जमीनी स्‍तर पर जनता के बीच सबसे कम लोकप्रिय माने जा रहे हैं। इसके बावजूद भाजपा उनको लेकर झुकने की तैयारी में नहीं दिखाई दे रही। जेटली के मामले में कीर्ति आजाद का मोर्चा खोलना भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी करने वाला है। पार्टी से निलंबन के बाद भी अाजाद के तेवर में कोई बदलाव नहीं आता दिख रहा है। सारे समीकरणों को देखते हुए गेंद फिलहाल केजरीवाल के पाले में दिख रही है लेकिन इस बात की उम्‍मीद कम ही है कि वो कोई गोल कर पाएंगे। 
- अमित तिवारी 

Saturday, April 18, 2015

बहुत अब हो गया (Its Enough)



बहुत अब हो गया किस्सा
मनाने रूठ जाने का।
फकत अब वक़्त आया है
किसी ताज़ा बहाने का।।
हमीं से अब छुपाते हो 
तुम अपने दिल की लाचारी।
कि अब तो छोड़ भी दो तुम 
ये किस्‍सा आजमाने का।।
किसी के साथ हंसने का
तरीका अब पुराना है।
कोई देखो तरीका तुम
नया दिल काे जलाने का।।
तुम्‍हें तितली कहूं, या फूल 
या गुल या कहूं गुलशन।
तुम्‍हीं कह दो तरीका अब
खुद ही तुमको बुलाने का।।
अब तुम भूल जाओ वो 
तुम्‍हारी याद में रोना।
कि गुजरा वक्‍त है अब 
वक्‍त वो आंसू बहाने का।।
चमकता चांद जो देखा है 
तुमने आसमां में कल।
उसी से ये हुनर सीखा है
दाग अपने दिखाने का।।

-अमित तिवारी 
दैनिक जागरण 

Friday, April 17, 2015

बस इतना हो, अच्छा हो...(Real Dream)



उसको लिखना, उसको पढना,
उस पर किस्सागोई सी।
उसमे होना, जी भर रोना,
उसमे नींदे सोयी सी।।
उसको पाना, उसको खोना,
उस बिन पल पल कट जाना।
उसकी आड़ी तिरछी सब,
रेखाओं का रट जाना।।
उसका कहना, उसका रहना,
उसकी आँखों के मोती।
अब भी जान नहीं पाया,
बिन उसके साँसे कब होती।।
कह दूँ उसको छोड़ चुका हूँ,
फिर कैसे मैं जिंदा हूँ।
उसकी आँखें नम आखिर क्यूँ?
मैं अब भी शर्मिंदा हूँ।।
उसके वादे, उसके गीत,
उस चेहरे पर मेरी जीत।
उसकी खातिर सपने सारे,
उसकी खातिर सुर-संगीत।।
उसको सुनना, उसको गुनना,
उसकी धुन में खो जाना।
उसकी पलकों के साये में,
मेरे सपनों का सो जाना।।
उससे कह दूं दिल का किस्‍सा,
जैसा झूठा सच्‍चा हो।
वो हो, मैं हूं, बस कुछ सपने,
बस इतना हो, अच्‍छा हो...
बस इतना हो, अच्‍छा हो... 
- अमित तिवारी 
दैनिक जागरण 

Friday, February 20, 2015

बही लिखना, सनद लिखना (My Love)



बही लिखना, सनद लिखना
मेरी चाहत का कद लिखना।
मेरी बातों को तुम कीकर
और अपने लब शहद लिखना।।
..................
तुम्हें पाना नहीं फिर भी
तुम्हारी याद में खोना।
तुम्हारे ख्वाब में जगना
तुम्हारी नींद में सोना।।
मगर फिर हर घड़ी मुंह
फेरकर वो बैठ जाने की।
तुम अपनी बेरुखी लिखना और
मेरी जिद की हद लिखना।।
...........
न जाने प्यार था, व्यापार था
लाचार था ये मन।
उधर संसार था, इस पार था
बेकार सा जीवन।।
कभी बैठो कलम लेकर
जो मन के तार पर लिखने।
वो स्वप्‍नों के बही खाते
वो साखी, वो सबद लिखना।।
..............
कहां मैं सीख पाया था
वो शब्दों के महल बोना।
असल था प्यार वो मेरा
था जिसके ब्याज में रोना।।
किताबों में कभी लिखना
हिसाब अपने गुनाहों का।
बहे जो ब्याज में आंसू
वो सब के सब नकद लिखना।।
बही लिखना सनद लिखना...

-अमित तिवारी
दैनिक जागरण 

Saturday, February 14, 2015

नवजीवन मिल जाए (Priytama)



अधरों का चुंबन मिल जाए
मुझको नवजीवन मिल जाए
अंतर्मन के इन भावों को 
तेरा अभिनंदन मिल जाए
.......
मिल जाए तुझसे मिलने का 
पलभर का किस्‍सा जीवन में 
भावों का सागर सिमटेगा 
पलभर तेरे आलिंगन में 
... ....
आलिंगन में भरकर तुझको 
फिर जीवन तट छूटे तो क्‍या 
सांसों में जब तू बस जाए 
फिर सांसों की लट टूटे तो क्‍या 
....... 
तो क्‍या गर टूटे स्‍वप्‍न सभी 
जीवन के मरु सागर में 
इक प्रेम सुधा की बूंद भली 
स्‍वप्‍नों के छोटे गागर में 
....... 
गागर ये तेरे स्‍वप्‍नों का
उस क्षीर सिंधु सा पावन है
वो पल जो तुझमें बीता है 
वो पल सबसे मनभावन है 
.....
मनभावन है मन में तेरा 
आना, जाना, जगना, सोना 
जीवन का सारा सत्‍य यही
तेरा होना, मेरा होना 
.........

-अमित तिवारी 
दैनिक जागरण 

Sunday, August 17, 2014

यमुना तीरे कृष्ण (Shree Krishna)




जन्‍माष्‍टमी आ गई... जन्‍माष्‍टमी यानी कन्हैया का जन्मदिवस....वैसे जन्मदिवस नहीं...बल्कि अवतरण दिवस...कन्हैया अवतरित हुए थे...और तभी से लीलाएं करने लगे....तरह-तरह की...
हर किसी के मन को लुभा लेने वाली चंचलता। ऐसा बालसुलभ नटखटपन कि बड़े-बड़े ज्ञानी को भी मोह हो जाए। एक अद्भुत और अद्वितीय चरित्र.. ऐसा कि जो जितना जाने उतना ही उलझता जाए।
कृष्ण का पूरा जीवन ही एक सन्देश है। हर घटना एक अध्याय है जीवन को जीने की कला सीखने के लिए।
सोच रहा हूँ कि कृष्ण आखिर बांसुरी ही क्यों बजाते हैं? बीन क्यों नहीं?
और अगर कृष्ण बीन बजाते तो क्या होता?
कृष्ण बांसुरी बजाते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि बांसुरी बजाने से गाय और गोपियाँ निकलेंगी। बांसुरी की मधुर तान से प्रेम-रस छलकेगा चारों ओर। बांसुरी बजाने से प्रेम में बंधे हुए जन, जीवन के आह्लाद का आनंद लेंगे।
कृष्ण को पता है कि बीन बजाने से सांप निकलता है और फिर उस बीन में ये शक्ति भी नहीं कि वह उस सांप को फिर से बिल में भेज सके। कृष्ण की बांसुरी तो सबको अपने ही रंग में नचाती है।
इन सब बातों के बाद भी आज मुझे दुःख है....
मुझे दुःख है कि आज कन्हैया का जन्म-दिन है...
ये दुःख इसलिए नहीं कि कन्हैया से मुझे कोई नाराजगी है....बल्कि ये दुःख तो मुझे कान्हा की यमुना को देखकर हो रहा है...
मुझे दुःख हो रहा है ये सोचकर कि अब मेरे कन्हैया किस कदम्ब की छाँव में बैठकर बांसुरी बजायेंगे??
मैं दुखी हूँ ये सोचकर कि कान्हा किस यमुना के तीर पर अपनी गायें चरायेंगे...?
सोच रहा हूँ कि हम यमुना-पार वाले क्या जवाब देंगे कान्हा को, जब वो पूछेंगे अपनी यमुना के बारे में।
क्या होगा जब कन्हैया अपनी कदम्ब की छाँव खोजने निकलेंगे?
हमने क्या कर दिया है ये सब....? यमुना के तीर पर, जहाँ कदम्ब होते थे...वहां कंक्रीट के जंगल खड़े किये जा रहे हैं...
यमुना किनारे मंदिर-मस्जिद की जंग तो है...लेकिन कान्हा की चर्चा ही नहीं..!!
यमुना-बैंक पर मेट्रो तो है....लेकिन यमुना नहीं....!!
क्या कन्हैया को भी अब मुंह पर रुमाल रखकर पुल के ऊपर से ही यमुना को देखना पड़ेगा?
या फिर उन्हें भी हम मेट्रो में बिठाकर ही यमुना-दर्शन का आनंद देना चाहते हैं?
बड़े-बड़े मठाधीश मिलकर यमुना की छाती पर भव्य मंदिर तो बना गए...लेकिन यमुना-तीर पर कन्हैया के बैठने के लिए एक कदम्ब की भी चिंता नहीं थी उन्हें..अरे भाई मेरे कन्हैया ने कब किसी मंदिर में बैठकर बंसी बजाई थी.!!! वो तो बस यमुना-तीरे घुमा करते थे, बिना मुंह पर रुमाल लगाये ओर बिना मेट्रो में बैठे,,,
लेकिन आज यमुना नदी से नाले में तब्दील हो रही है...और सब जन्माष्टमी की तैयारी में लगे हैं...
जन्‍माष्‍टमी पर मंदिरों में जाकर कन्हैया को माखन का भोग लगाने से कहीं ज्यादा बेहतर है कि हम उनकी यमुना को फिर से उनके खेलने लायक बना दें....यमुना-तीरे, कंक्रीट के जंगल नहीं....कदम्ब के पेड़ हों...और उनके नीचे बैठकर 'कन्‍हैया' फिर से सबके 'मन को मोह' लेने वाली बंसी बजाएं...

- अमित तिवारी 
दैनिक जागरण 

Sunday, August 10, 2014

गगन जैसी बहन मेरी (Sister Vs Sky)




लिखना बहन पर
या लिखना गगन पर
दोनों ही मुश्किल है...
गगन नीला है क्‍यों?
क्‍यों उसके हाथ चंदन?
गगन का छोर क्‍या है?
क्‍यों उसके शब्‍द वंदन?
वो ऐसा है तो क्‍यों है ?
ये ऐसी है तो क्‍यों है?
गगन सब देखता है!
बहन सब जानती है!
गगन बन छत्र छाए!
बहन आंसू सुखाए!
गगन में चांद तारे!
उस आंचल में सितारे!
ना उसका अंत कोई!
ना इसका छोर कोई!
धरा पर ज्‍यों गगन है!
बस ऐसे ही बहन है!

- अमित तिवारी
दैनिक जागरण

Wednesday, August 6, 2014

टेलीफोनिक ब्रेकअप (Telephonic braekup)



तन्‍मय का फोन उठाते ही सौम्‍या चिल्‍लाई, 'तू पागल है क्‍या... अकल है कि नहीं...'
तन्‍मय ने चौंकते हुए पूछा, 'क्‍यू... अब क्‍या हुआ?'
सौम्‍या, 'क्‍या हुआ क्‍या... तेरी वजह से कितना बवाल हुआ आज। जब मन करे मुंह उठाकर फोन मिला देता है। कोई टाइम भी तो होना चाहिए...'
तन्‍मय, 'लेकिन हुआ क्‍या? कुछ बता तो।'
सौम्‍या ने बिफरते हुए कहा, 'कुछ नहीं हुआ... जब देखो तब तेरा फोन... भाई ने कितना सुनाया आज... मुझे फोन मत करियो अब कभी जब तक मैं ना करूं... समझा?'
तन्‍मय ने उदासी से कहा, 'समझा तो नहीं... लेकिन कर भी क्‍या सकता हूं...'
सौम्‍या ने खीझते हुए कहा, 'नहीं समझेगा तो नंबर बदल दूंगी। फिर मिलाता रहियो।'
तन्‍मय हुंकारी भरकर चुप हो गया। सौम्‍या ने फोन काट दिया।
कुछ दिन पहले ही सौम्‍या ने कहा था, 'तू मेरा इंतजार ना किया कर। मेरे इंतजार में रहेगा तो कभी बात नहीं होगी... बहुत बिजी हूं मैं। तू खुद ही कर लिया कर फोन।'
फिलहाल तन्‍मय अपने लेटेस्‍ट टेलीफोनिक ब्रेकअप के सदमे में है। सौम्‍या का पता नहीं... अभी तो दो ही दिन हुए हैं। वैसे भी सौम्‍या कहती है कि उसे तो हफ्ते भर किसी की याद नहीं आती।

- अमित तिवारी
दैनिक जागरण


Tuesday, August 5, 2014

पागल वाला प्यार (mad love)




'क्या यार... तू हमेशा ये लव यू, लव यू ना कहा कर। कोफ्त होने लगती है', सौम्या ने कहा।
तन्मय, 'तुझसे तो मेरा प्यार भी नहीं पचता..., मैं क्या करूं।'
सौम्या, 'मुझसे नहीं झेला जाता इतना प्यार-व्यार किसी का भी। और तू भी ना इतना प्यार मत किया कर मुझसे। किसी दिन गुस्सा आ गया तो छोड़ दूंगी तुझे भी। फिर रोता रहियो अपना प्यार लेके।'
तन्मय, 'हां, तुझे क्या फर्क पड़ता है। लेकिन मैं क्या करूं, मुझे तोे तेरे गुस्से पर भी प्यार ही आता है।' 
सौम्या, 'ओह... डायलॉग...'
तन्मय, 'डॉयलॉग नहीं यार... सच में। तुझे बहुत प्यार करता हूं। तेरे-मेरे रिश्ते में, मेरे पास है भी क्या? गुस्सा, चा‍हत, जरूरत, इच्छा... सब तेरे ही तो हैं... मेरे पास बस मेरा ये प्यार ही तो है। जब नहीं रहूंगा पास, तब तुझे याद आएगी। और मैं तो ये भी नहीं कह सकता कि तुझे छोड़ जाउंगा। मेरे बस का तो ये भी नहीं है। फैसला करने का तो अधिकार तेरे पास है।'
सौम्या, 'चल पागल... इमोशनल ना हो...। बाद में बात करती हूं।'
सौम्या ने खिलखिलाहट के साथ फोन काट दिया।
तन्मय अब भी अपने पागलपन पर हंस रहा है।

- अमित तिवारी
दैनिक जागरण 

Friday, July 25, 2014

नहीं मंजूर है तुझे खोना (never like to miss you)



तेरा चेहरा, तेरी आंखें
तेरे होठों की चहक।
तेरा हंसना तेरा गाना
तेरे कंगने की खनक।।

तेरे पैरों की महावर
तेरे बिछुए तेरी पायल।
तेरे बालों का वो गजरा
तेरी मेंहदी से दिल घायल।।

तेरे फूलों से लब खिलना
तेरे छूने की वो नरमी।
दुखों के सर्द मौसम में
तेरी सांसों की वो गरमी।।

तेरी बातें तेरा हंसना
तेरा दिखना तेरा होना।
मुझे मंजूर है सब कुछ
नहीं मंजूर है खोना।।

- अमित तिवारी
सीनियर सब-एडिटर
दैनिक जागरण

Wednesday, July 9, 2014

लड़की जैसी लड़की (Girl like a Girl)



'तन्‍मय, तू कुछ बोल क्‍यों नहीं रहा यार?' सौम्‍या ने झुंझलाते हुए कहा। तन्‍मय अब भी चुप था। 'तू आखिर मुझसे शादी क्‍यों नहीं करना चाहता? तू ही तो कहता है कि तू मुझसे बहुत प्‍यार करता है। मैं बहुत अच्‍छी हूं। तब आखिर हम शादी क्‍यों नहीं कर सकते?' कहते-कहते सौम्‍या रुआंसी हो गई। तन्‍मय, 'यार.... तू समझती क्‍यों नहीं? यू आर नॉट अ वाइफ मैटेरियल... अंडरस्‍टैंड दिस।'
सौम्‍या, 'मतलब... तू कहना क्‍या चाहता है?'
तन्‍मय, ' मैं सीधा ही तो बोल रहा हूं यार... तू अच्‍छी फ्रेंड है मेरी... मैं प्‍यार करता हूं तुझसे, लेकिन यू नो... तेरे अंदर वाइफ वाला मैटेरियल नहीं है। वो कहते हैं ना कि तुझमे वो लड़कियों वाली बात नहीं है।' तन्‍मय कहता रहा, 'वो... बस में सफर करते टाइम रुमाल से कभी होंठ, कभी माथे का पसीना पोंछना, शर्माना, पति का खाने पर इंतजार करना, साड़ी पहनकर इतराना... एंड सो ऑन...आई थिंक तू समझ रही है सौमी...'
तन्‍मय अपनी बात पूरी करके आइसक्रीम लेने चला गया था और सौम्‍या अब भी उसकी बातों का मतलब समझने की कोशिश कर रही थी। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि ये वहीं तन्‍मय है जिसने एक दिन सौम्‍या को रोता देखकर कहा था, 'क्‍या यार सौमी... तू ये लड़कियों की तरह रोया ना कर। यू नो तेरी सबसे अच्‍छी बात कौन सी है... तू और लड़कियों जैसी नहीं है... वो बेवजह रोना-धोना, इमोशनली ब्‍लैकमेल करना लड़कों को... यू आर डिफरेंट... और इसीलिए तो मैं तुझसे इतना प्‍यार करता हूं।' गर्लफ्रेंड और वाइफ का फर्क उसे अब समझ आने लगा था।

- अमित तिवारी
दैनिक जागरण 

Tuesday, June 3, 2014

खामोशी का अर्थ नहीं हम उनको भूल गए (Can't Forget)



खामोशी का अर्थ नहीं,
हम उनको भूल गए..
उन्होंने कैसे सोच लिया,
कि बागों से फूल गए..

कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं,
जो टूट नहीं सकते...
कुछ दामन ऐसे होते हैं,
जो छूट नहीं सकते..

कुछ लम्हे ऐसे होते हैं,
जो जीवन बन जाते हैं...
कुछ पल ऐसे हैं, जिनको
ये पल लूट नहीं सकते..

कुछ नजरें ऐसी होती हैं,
जो नजरों में उतर जाती हैं..
कभी-कभी कुछ बातें
दिल में, घर कर जाती हैं..

कभी किसी का आना भी,
तनहा कर जाता है..
कभी किसी की यादें दिल
में खुशियाँ भर जाती हैं...

ब्याज तो हर इक रिश्ते
का हम चुकता कर आये...
लेकिन शायद लगता है
हम बिन मूल गए..

खामोशी का अर्थ नहीं,
हम उनको भूल गए..

- अमित तिवारी
दैनिक जागरण

Monday, May 12, 2014

तुम ही तो हो (Priytama)



कभी तुमसे कहा तो नहीं,
कि तुम ही मेरा जीवन हो।
मेरी खुशियों की तुलसी का,
एक तुम ही तो आँगन हो।।
तुम्हें पाना है जग पाना,
तुम्हारा प्यार धड़कन है।
इसी में बंध के जीना है,
ये वो प्यारा सा बन्धन है।।
नहीं दुख सुख की बातें हैं,
कि जो है प्यार ही तो है।
तुम्हारी बांह में सिमटा,
मेरा संसार ही तो है।।
तुम्हारा हूँ तो खुद का हूँ,
तुम्ही से आस पलती है।
लो मैने कह दिया तुमसे,
तुम्ही से सांस चलती है।।

- अमित तिवारी
सीनियर सब एडिटर
दैनिक जागरण

Sunday, May 11, 2014

क्योंकि वो निर्भया नहीं हैं (They are not nirbhaya)



आबरू की कीमत भी हर जगह बराबर नहीं होती. उसमें भी नफा-नुकसान का अलग-अलग गणित लगाया जाता है. यही वजह है कि मोमबत्तियां लेकर कोई जुलूस आगे नहीं बढ़ रहा है. जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे भी नहीं लगाये जा रहे हैं. मीडिया के पास भी ये सब दिखाने का वक़्त नहीं है. सोफेस्टिकेटेड यूथ के पास इनके समर्थन के लिये मोमबत्तियां जलाने का वक़्त नहीं है. क्योंकि ये सब निर्भया नहीं हैं.
ये उन दलित लड़कियों की दास्तान है, जिनके साथ कुछ गलत होना हमें झकझोरता नहीं है. म्हारा देस हरियाणा के नारे लगाने और खुद को बेहद हिम्मती बताने वाले लोगों की इस कायराना हरकत पर बोलने की हिम्मत किसी में नहीं हो रही है. हिसार में दलित परिवार की लड़कियों का बलात्कार कोई घटना नहीं है. उनकी आवाज को दबाने की कोशिश और उनके परिवार वालों की प्रताड़ना कोई खबर नहीं है. पीड़ित लड़कियां दिल्ली में अपने लिये न्याय मांग रही हैं. और मुझे बिल्कुल उम्मीद नहीं है कि उन्हे कभी कोई न्याय मिलेगा. न्याय उनके लिये  और वो न्याय के लिये बनी ही नहीं हैं. क्योंकि ये सब निर्भया नही हैं.

 - अमित तिवारी
सीनियर सब एडिटर
दैनिक जागरण

Tuesday, July 2, 2013

उसका होना, मेरा होना (uska hona)




उसको पाना, उसको खोना,
उस संग हँसना, उस बिन रोना,
उसकी बातें, झिलमिल रातें,
उसकी वो प्यारी सौगातें,
उसका गुस्सा, उसका प्यार,
उसकी जीत उससे हार
क्या-क्या गुजरे, कैसे बीते
जीवन घट ये घुट-घुट रीते,
जीवन सारा उसका हिस्सा,
हर पन्ने पर उसका किस्सा,
कैसे किस्से छोड़ चलूँ,
कैसे मैं मुंह मोड़ चलूँ,
कैसे मैं बदलूं ये सच,
कैसे रिश्ता तोड़ चलूँ
उसका होना, मेरा होना,
उसमे जगना, उसमे सोना,
उसको भी महसूस तो होगा,
अपने दिल में मेरा होना...

अमित तिवारी
बिज़नेस भास्कर
(चित्र गूगल से साभार)

Thursday, January 31, 2013

फिर मन गया गणतंत्र दिवस (Republic Day Again)




गणतंत्र दिवस फिर मन गया। फिर से राष्ट्रपति ने झंडा फहराया, और फिर शाम ढले किसी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी ने उसे उतार लिया, और फिर हर रोज़ यही क्रम....वही उसे फहराता रहेगा, उतारता रहेगा... तिरंगे के सम्मान की बातें करने का दिन बीत गया। 'जन गण मन', 'भारत माता की जय', 'झंडा ऊँचा रहे हमारा' सब कुछ गाया गया। 'ऐ मेरे वतन के लोगों', 'कर चले हम फ़िदा' की धुनें भी फिजा में छाई रहीं। पूरा वातावरण देशभक्तिमय हो गया। देशभक्तिमय इसलिए कहना पड़ रहा है कि आजकल 'भारत माता की जय' मतलब देशभक्त होना। थोड़ी देर तिरंगा लेकर दो-चार गाने चला लो, पांच-सात नारे लगाओ और देशभक्ति साबित।
ये सब देखने नहीं गया इस बार... कुछ नया लगता ही  नहीं. एक बात तो आज तक समझ नहीं आई कि आखिर गणतंत्र दिवस की परेड पर बड़ी-बड़ी तोपें किसको दिखाने के लिए चलाई जाती हैं? इन तोपों को देखकर चीन तो डरता नहीं है आपसे। उसने तो आपकी जमीन पर कब्ज़ा किया, पहले भी और आज भी कर रहा है। तब प्रधानमंत्री थे कांग्रेस पार्टी के पं. नेहरू। उन्होंने बेशर्मी भरा बयान दिया था, "उस जमीन पर होता ही क्या है? बंजर है? बर्फ ही बर्फ है। कुछ उपजता थोड़े ही है।" लोहिया ने विरोध किया था बयान का। उन्होंने संसद में कहा, 'वहां का कंकर-कंकर हमारे लिए शंकर है, वो कोई बंजर जमीन नहीं।' बेशर्म सल्तनत को तब भी उनकी आवाज़ नहीं ही सुननी थी। आज भी नहीं ही सुना जाता है ऐसी बातों को। आज फिर मीडिया चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा है कि चीन सीमा का अतिक्रमण कर रहा है, और सरकार बात को टालने में लगी है।
 माफ़ कीजिये मैं थोड़ा भटक गया विषय से। मैं कह रहा था कि आखिर किसके लिए दिखाए जाते हैं ये हथियार। ये हथियार किसी चीन और अमेरिका डराने के लिए नहीं होते, ये हथियार तो इसी देश के लोगों को डराने के लिए होते हैं। सत्ता अपनी ताकत दिखाती है इन हथियारों के प्रदर्शन के जरिये। प्रशासन दिखा देना चाहता है उन लोगों को जो गाहे-बगाहे इसके खिलाफ बोलने की हिम्मत कर बैठते हैं। प्रशासन सन्देश देता है इसके जरिये कि 'देख लो कितनी ताकत है सत्ता के पास, इससे टकराओगे तो टूट जाओगे।' आम जन अपने टेलीविजनों पर बैठा सत्ता के इस खेल को देखता है। अनजाने में ही उसके अन्दर सत्ता का सन्देश घुल जाता है। वो भी बोल पड़ता है 'भारत माता की जय'.
हर साल यही होता है, हर साल वही खेल, राष्ट्रपति का वही रटारटाया भाषण, वही सत्तापक्ष के घोषणापत्र जैसा। जिसकी सत्ता, उसका गान। इस साल नहीं गया ये सब देखने। मन ऊब गया है इन नाटकों को देखते-देखते। असली गण को देखने का मन किया इस बार। देखने की इच्छा हुई कि आखिर कितने देशभक्त हैं आमजन। कम-स-कम इस प्रशासनिक देशभक्ति से तुलना करने का मन हुआ उनकी देशभक्ति का।
बटोही घर बैठा था। पूछा कि क्या बात है? उसका कहना था कि 'छुट्टी है'. एक शब्द का उत्तर। लेकिन इस एक शब्द के भीतर कितनी बड़ी बातें छिप गई। उसने कभी 'भारत माता की जय' नहीं बोला। उसे नहीं पता कि इससे क्या होता है? उसने तिरंगा नहीं लगाया अपने घर के ऊपर, खामखा दो रुपये खर्च करने में रखा भी क्या था उसके लिए। वो इस छुट्टी से खुश नहीं था, कारण कि उसकी दिहाड़ी मारी जा रही थी। रोज कुआं खोदकर पानी पीने वाली ज़िन्दगी है उसकी और उसके परिवार की। एक दिन की दिहाड़ी का मारा जाना उसके और उसके परिवार के लिए उपवास का कारण बन जाता है। आज गणतंत्र दिवस हो ना हो, उसके लिए उपवास दिवस था। एक त्यौहार जिसके देवता का उसे पता नहीं, लेकिन व्रत करना पड़ा।
बटोही इकलौता नहीं है। पूरी जमात है। रेलवे पटरी के किनारे-किनारे उनकी बस्ती बसती है। उन्हें नहीं मतलब कि प्रधानमंत्री ने क्या कहा? राष्ट्रपति ने क्या गुणगान किया? कौन-कौन सी सफलताएं गिनाई? और शायद प्रधानमंत्री/राष्ट्रपति को भी इनसे कोई मतलब नहीं। उन्हें तो सिर्फ उससे मतलब है जो उनके कहने पर 'भारतमाता की जय' बोलता है। बटोही उस जमात का हिस्सा है जिसके लिए आज़ादी कभी आई ही नहीं, जिसके लिए संविधान समर्पित किया ही नहीं गया। उसके लिए आज़ादी तो आज भी लालकिले के अन्दर रहने वाली कोई सुंदरी ही है, जो सिर्फ उसे ही दिख सकती है जो लालकिले तक जाने की औकात रखता है। उसकी औकात नहीं है, किले की उस सुंदरी 'आज़ादी' को देखने की। वो मजबूरन भारत का नागरिक है। कारण कि उसे ग्रामीण नहीं बने रहने दिया गया।
उसका गाँव छीन लिया गया। सत्तर प्रतिशत खेती वाले देश के सकल घरेलु उत्पाद में खेती का योगदान बीस प्रतिशत  भी कम रह गया है। सरकार इसे घटाकर 10 से भी कम कर देना चाहती है। जाहिर है, सरकार को गाँव और गंवार की जरूरत नहीं है, उसे नगर और नागरिक प्रिय हैं। उसका संविधान 'भारत के नागरिकों' को समर्पित है, (पढ़िए भारतीय संविधान की प्रस्तावना हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक,आर्थिक तथा राजनैतिक ... ). बटोही और उस जैसे तमाम लोग उसी गाँव के गंवार हैं जो अपना गाँव छिन जाने के कारण जबरदस्ती इस नगर और नागरिक सभ्यता में जीने की कोशिश में लगे हैं। तथाकथित सभ्य नागरिकों  को ये गंवार नागरिक अच्छे नहीं लगते। सरकार को भी ये फालतू लगते हैं, क्योंकि ये 'गरीबरथ में चलने वाले गरीब नहीं हैं, क्योंकि ये 'भारतमाता की जय' नहीं बोलते, क्योंकि ये परेड में आकर सत्ता की ताकत नहीं देखते, क्योंकि ये घर पर तिरंगा नहीं लहराते, क्योंकि ये अपने घर पर तथाकथित देशभक्ति के गाने नहीं बजाते, क्योंकि इनके घर टी.वी. भी नहीं है, इसलिए ये टी.वी. पर भी नहीं देखते सत्ता की ताकत को। क्योंकि इनसे नफरत की इतनी सारी वजहें हैं, लिहाजा कहा जा सकता है कि ये असभ्य हैं। इनके अन्दर देशभक्ति नहीं है।
जिसे दो जून की रोटी के लिए हर रोज संघर्ष ही करना है, उसे इस 'भारतमाता' से मतलब भी क्या होना चाहिए? वो तो अपने हिस्से की देशभक्ति सेना में अपने बच्चे को भेजकर निभा लेता है। कितने तथाकथित सभ्य नागरिकों के बच्चे सीमा पर लड़ने जाते हैं, सिपाही बनकर? आंकड़े तस्वीर को साफ़ कर देते हैं। 'भारतमाता की जय' मतलब 'भारत सरकार की जय' नहीं होता।
गणतंत्र मन गया है, अब फिर स्वतंत्रता दिवस की तैयारी शुरू हो जाएगी। ये सब चलता रहेगा। लेकिन बटोही के परिवार का क्या होगा? सरकार के पास कोई इंतजाम नहीं है। निजाम को इनके इंतजाम की कोई चिंता नहीं है। अपने पूरे भाषण में कहीं भी इनका जिक्र करते नहीं दिखता है कोई। इनके जिक्र की फ़िक्र नहीं है किसी को। सोच रहा हूँ, जब इस राजधानी के पास की पटरियों के किनारे की ज़िन्दगी इतनी स्याह है, इतना दर्द है इस पटरी किनारे की ज़िन्दगी में, तब फिर बुंदेलखंड और छत्तीसगढ़ की उन इलाकों की ज़िन्दगी क्या होगी, जहाँ के भूख के आंकड़े डरावना एहसास देते हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में ग्रामीण इलाकों के पचपन प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। जबकि शहरों में ये आंकड़ा पैंतालिस प्रतिशत है। बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश के इलाकों में स्थिति और भी भयावह है। भारत में उनतीस प्रतिशत जनता गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करती है, जिसका सत्तर प्रतिशत गाँवों में निवास करता है।
तस्वीर और भी स्याह है इस चौंसठ साल के गणतंत्र की। जो गण विरोध करता है उसे सरकार नक्सली कहकर मार डालती है। उस गण को इनकी 'भारत माता की जय' से क्या मतलब? व्यवस्था के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले गण के लिए सरकार 'सलवा जुडूम' और 'ऑपरेशन ग्रीन हंट' चलाती है। प्रधानमंत्री सरेआम उस गण को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता देते हैं। कोई इस बात की तफ्तीश नहीं करता कि एक आम और सीधा-सादा गण नक्सली क्यों बन जाता है? क्यों मजबूर किया जाता है उसे ऐसा कदम उठाने के लिए? कौन जिम्मेदार है उसके इस कदम के लिए? सरकार के पास क्या गारंटी है कि कल को बटोही या उसकी जमात का कोई लड़का नक्सली नहीं बन जायेगा? आखिर आमजन को आम की तरह चूसकर कब तक सरकार फेंकती रहेगी? चुनाव के दौरान इलाके में आना और फिर पांच साल के लिए गायब हो जाना। गणतंत्र दिवस पर भले ही सरकार को पटरी किनारे की इस ज़िन्दगी की याद ना आई हो लेकिन चुनाव के दिनों में यहाँ भी इन नेताओं की कतारें देखने को मिल जाती हैं.
तंत्र गण को इसी तरह इस्तेमाल करता रहेगा। विरोध करने वाले गण को नक्सली कहकर मारा जाता रहेगा। हर साल लालकिला पर झंडा फहरता रहेगा। हर साल विकास के नए आयामों की चर्चा होती रहेगी इन भाषणों में। हर साल 'बटोही' और उसके परिवार को इस देवी 'आज़ादी' के लिए व्रत करना पड़ेगा। हर साल उसकी दिहाड़ी मारी जाएगी।
हम भी हर साल इसी शान से नारा लगाते रहेंगे "भारतमाता की जय"



-अमित तिवारी
नेशनल दुनिया 
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