'सागर, तुम हो कौन?' बड़ी-बड़ी छलकती आंखों से नदी ने कहा।
'मैं कौन हूं! ये क्या सवाल है? एक तुम ही तो हाे, जो अच्छे से जानती हो कि मैं कौन हूं।'
'मैं जान ही तो नहीं पाई कि तुम हो कौन? हर रोज चेहरा बदल लेते हो तुम। जब-जब मुझे लगता है कि अब समझ गई हूं कि तुम कौन हो, तब तुम्हारा कोई और रूप आ जाता है मेरे सामने।'
'नदी... तुम इतना सोचती क्यों हो? तुम सोचती हो, इसीलिए तो समझती नहीं हो। सोचना छाेड़ दोगी, तो समझ जाओगी। इतना आसान सा तो हूं मैं। जैसी नदी, वैसा सागर। आखिर नदी से ही तो बना हूं। तुम पता नहीं कहां उलझ जाती हो? नदी से सागर तक के रास्ते में उलझन की गुंजाइश कहां होती है?'
'उफ... बस तुम्हारी यही बात... यही बात मुझे उलझा देती है। तुम मुझे जानते ही कितना हो। और जब जानते ही नहीं तो कैसे हो गई मैं तुम्हारी नदी? मुझे चिढ़ होती है तुम्हारी इसी बात से। तुम इतना मत सोचो मेरे बारे में। बिलकुल मत सोचो।' नदी एक सांस में बोलती चली गई।
'सागर को नदी के बारे में जानने की जरूरत ही क्या है? और फिर सागर थोड़े ना चुनता है अपने लिए नदी। वो तो होता ही नदी के होने से है।' शांत सा सागर यही सोचता रहा।
-अमित तिवारी
दैनिक जागरण
-अमित तिवारी
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-11-2017) को चढ़े बदन पर जब मदन, बुद्धि भ्रष्ट हो जाय ; चर्चामंच 2782 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'