आज कुछ पुराने गाने सुन रहा था. तभी एक गाना चल पड़ा 'पानी रे पानी तेरा रंग कैसा..' बहुत तारीफ किया करते हैं लोग इस गाने की. सालों पहले से सुनता रहा हूँ कि पानी जैसा होना चाहिए. जिस में मिला दो उसी के जैसा हो जाता है. पहले समझ नहीं आता था, लेकिन जब से समझ आने लगा है मेरे मन ने कभी इस गाने को स्वीकार नहीं किया.
आज फिर इसे सुनकर वही प्रश्न मन में आ गया. क्या मनुष्य का चरित्र, उसका व्यवहार पानी जैसा होना चाहिए? जिसमें मिले उसी के जैसा हो जाए!!
कोई हमसे प्रेम से बोला और हम प्रेम से बोल पड़े... कोई नफरत से बोला तो नफरत कर बैठे... किसी ने गाली दी तो गाली देने लगे...
आखिर हमारा अपना चरित्र क्या है?? हमारा अपना कोई व्यवहार भी है या नहीं? पानी जैसा कैसे बना जा सकता है?? पानी तो चरित्रहीन है... और यही कारण है कि अगर पानी एक बार कीचड़ में मिल जाए तो फिर कीचड़ ही हो जाता है... बल्कि इतना ही नहीं... पानी तो सूखी मिट्टी में मिलकर उसे कीचड़ में बदल देता है... तब फिर भला पानी जैसा होने की बात भी कैसे कही जा सकती है??
लेकिन आज कुछ ऐसा ही है... हर व्यक्ति पानी जैसा ही होता जा रहा है... अगर चरित्र और चरित्रहीनता को संकीर्ण अर्थ में ना लिया जाए तो यह कहा जा सकता है कि हर व्यक्ति चरित्रहीन हो गया है... किसी के पास अपनी कोई पहचान, अपना कोई चरित्र नहीं है... हर व्यक्ति जीवन में बहुत से रूप और बहुत सी भूमिकाओं में जीता है... और आश्चर्य कि हर रूप में उसके चरित्र का मूलभूत गुण बदल जाता है... एक भाई के रूप में हम यह तो नहीं बर्दाश्त कर पाते हैं कि कोई हमारी बहन को गलत नज़र से देखे... लेकिन दूसरे ही पल हम खुद ऐसे लोगों में शामिल हो चुके होते हैं जो किसी को घूर रहा हो... बहन की ससुराल में गए हुए भाई का चरित्र घर में अपनी पत्नी के लिए वैसा नहीं रहता... कोई 'माँ' की गाली दे तो हम गुस्से में उसे भी वही सब सुनाने लगते हैं...
सबसे बड़ा खेद का विषय है कि समाज जिनको बुरा कहता है, ऐसे बुरे लोगों का तो एक चरित्र होता है... लेकिन अच्छाई का कोई चरित्र नहीं मिलता...
सोचता हूँ कि आखिर हम सब के हिसाब से, सबके व्यवहार के अनुसार बदल जाते हैं तो फिर ऐसा क्यों नहीं हो कि हमारा चरित्र निश्चित हो और हमारे संपर्क में आने वाला बदले खुद को... या कि ठीक है जो जैसा है वैसा व्यवहार करे...
क्या हम कभी भी स्वयं का कोई सकारात्मक गुण बता सकते हैं... हमारी तो अच्छाइयां भी निषेध के शब्दों के बिना नहीं रह सकती हैं... कोई अगर अच्छा है तो बस इतना कि वह बुरा नहीं है... यह तो कह सकते हैं कि हम झूठ नहीं बोलते... लेकिन यह कहने का साहस नहीं है कि हम सच बोलते हैं... हर अच्छाई मौकाविहीन ब्रह्मचर्य जैसी है... ब्रह्मचारी हैं क्यूंकि मौका नहीं मिला...
फूल के जैसा क्यों नहीं बना जा सकता है... कोई भी, किसी भी मानसिकता के साथ जाए, फूल अपनी सुगंध ही देता है सबको...
आखिर बुद्ध भी तो हैं एक उदाहरण... गाली देने वाले को भी प्रेम से ही जवाब दिया... पत्थर मारने वाले पर भी स्नेह ही बरसाया...
कुछ न कुछ तो बन जाने का प्रयास हर ओर है ही... क्यों ना हमारी दौड़ बुद्ध की ओर हो जाए...
ati sundar rachna hai........amit ji ne kaafi achcha samjhnae ki koshish ki hai in kam shabdon me
ReplyDeleteBahut sahi likha hai Amit.Achcha laga jaankar ki koi to hai jo insan ke real charitra ko pehchanta hai.. Aur usko saamne laane ka saahas bhi rakhta hai... Aur ye us disha mein ek bahut hi behtareen koshish hai...
ReplyDeleteIts simply incredible... Keep posting, such articles..
sahi likha hai.. likhte raho... sahyog to milta hi rahega...
ReplyDeletesahi karne wale ke sath sab ho jate hain ek na ek din.....
lage raho.. shubhkamnayein..
right thinking on human mentality...
ReplyDeleteMind blowing.... Fantastic article...
ReplyDeletereally it's true that we all should try to follow the characteristics of Buddha... Its not easy ... but should be.......!!
keep Posting such articles... I m wordless...
I liked your blogs very much. My dear friend, keep your writing up and well. Your pen is different from those of others. Very nice!
ReplyDeleteSusheel kumar sharma
धन्यवाद सुशील जी...
ReplyDeleteइस उत्साहवर्धन के लिए हम आपके आभारी हैं। सभी के सहयोग से ही कुछ कहने-लिख्ाने का साहस पैदा होता है।
आप सभी का सहयोग प्रार्थनीय है।
अपने हर लिखे पर आपकी समीक्षात्मक प्रतिक्रिया की प्रतिक्षा रहेगी।