प्यार लिखूं, श्रृंगार लिखूं,
या बहते अश्रुधार लिखूं,
रोते-रोते जीत लिखूं या
हँसते-हँसते हार लिखूं.
ये कह दूं कि उसने मुझसे
वादे करके तोड़ दिए
या फिर मैं ही उसके दिल पर
अपना हर इक वार लिखूं..
जाने मैंने मारा उसको
या फिर खुद ही क़त्ल हुआ..
उसको अपना कातिल लिखूं
या खुद को गद्दार लिखूं
सपनो का वो शीशमहल, मैंने
ही रचा और आग भी दी.
अब जलते उसके सपने लिखूं
या वो आँखें लाचार लिखूं..
खुद ही हर अपराध किया,
और खुद ही न्यायाधीश बना..
न्याय-धर्म निभाऊं अब मैं,
या उसको गुनह-गार लिखूं..
-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद
वाह.... बहुत बढि़या अमित..
ReplyDeleteकाश इसके भावों को सब समझ सकें..
ये कह दूं कि उसने मुझसे
वादे करके तोड़ दिए
या फिर मैं ही उसके दिल पर
अपना हर इक वार लिखूं..
जाने मैंने मारा उसको
या फिर खुद ही क़त्ल हुआ..
उसको अपना कातिल लिखूं
या खुद को गद्दार लिखूं
..
सच है वैसे .. कई बार शिकारी और शिकार का फर्क भी समझ से परे हो जाता है।
खुद ही हर अपराध किया,
ReplyDeleteऔर खुद ही न्यायाधीश बना..
न्याय-धर्म निभाऊं अब मैं,
या उसको गुनह-गार लिखूं..
बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति..विचारों और शब्दों का प्रवाह बहुत सुन्दर...
@ धन्यवाद निधि..
ReplyDelete@ धन्यवाद कैलाश जी..
एक आत्मचिंतन करते करते इसे लिख दिया..
कहते हैं अपराध स्वीकार कर लेने से सजा घट जाती है।
इसी उम्मीद में........... !!!
और फिर ये सब तो अपने ही अन्दर के खालीपन को ढंकने के लिए शब्दों का पर्दा बना लेने वाली बात है...
अन्दर में वही सब सड़ा-गला सा सच भरा हुआ है...
वही बुराइयाँ.. वही बातें.. जिनके खिलाफ यहाँ खुद से जंग करते दिखाई देते हैं...
waah ji waah
ReplyDeleteखुद ही हर अपराध किया,
और खुद ही न्यायाधीश बना..
न्याय-धर्म निभाऊं अब मैं,
या उसको गुनह-गार लिखूं..
touchy lines hain
behtareen prastuti.......
badhia hamesha ki tarah :)
aise hi likhte rahiye
wah re.....kitna pyara likha h.. mere paas to tarif k liy b shabd nahi h..bas aise hi likhta reh humehsa... tere chahne wale tere sath h...
ReplyDeleteन्याय-धर्म निभाऊं अब मैं,
ReplyDeleteया उसको गुनह-गार लिखूं..
शायद न्याय धर्म न अपनाने का ही तो यह परिणाम है
बहुत सुन्दर भाव की रचना
मुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! आप बहुत ही सुन्दर लिखते है !
ReplyDeleteबहुत ही गहरे एहसास है हर नज़्म में ...... सुंदर प्रस्तुति.
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