एक वक़्त हुआ करता था कि जब हर जगह फर्स्ट हैण्ड का बोलबाला और मांग हुआ करती थी. उस वक़्त में प्रेमी-प्रेमिका भी फर्स्ट हैण्ड ही खोजे जाते थे. प्रेम में कोई विशेष रासायनिक-भौतिक शर्ते नहीं हुआ करती थीं. उस वक़्त में लड़कियां अपनी सहेलियों को बताया करती थीं कि मेरा प्रेमी तो किसी लड़की की तरफ आँख उठाकर देखता भी नहीं. मुझसे पहले उसने किसी लड़की के बारे में सोचा भी नहीं. लड़के भी कुछ इसी तरह अपनी प्रेमिका की तारीफ करते थे..
उस वक़्त में लड़कों को किसी लड़की से प्रेम सम्बन्ध शुरू करने के लिए कुछ ख़ास मशक्कत नहीं करनी होती थी. लड़की के सामने कुछ साधू जैसे बनके रहो. उसकी सहेलियों की तरफ भी नज़र उठाकर नहीं देखना. ये सब कुछ अच्छे लड़कों की पहचान होती थी. किसी तरह उस लड़की से दोस्ती के बाद जब बात धीरे धीरे प्रेम के इजहार तक पहुंचती थी तो बस कुछ गिने-चुने ही संवाद हुआ करते थे. वो बिल्कुल शराफत से कहा करता था कि -'प्रिये तुम मेरी जिंदगी की पहली और आखिरी लड़की हो, मैंने तो कभी तुम्हरे सिवा किसी दूसरी लड़की कि तरफ आँख उठाकर देखा भी नहीं कभी. तुम्ही मेरा पहला और आखिरी प्रेम हो.' हर लड़के को ये संवाद याद हुआ करते थे.
कई बार तो हम में से कई लड़के हर बार यही संवाद बोल कर काम चला लेते थे. बीसवीं बार भी हम यही कहते थे. हम जब भी करते पहला और सच्चा प्रेम ही करते. हमारी गिनती कभी भी पहले से आगे नहीं बढती थी. ना ही कभी हमारे प्रेम की सच्चाई कम होती थी. हमेशा उतना ही सच्चा प्रेम करते थे.
हमारी बीसवीं प्रेमिका भी हमें इतना ही पहला और सच्चा मानती थी जितना कि हमारी पहली प्रेमिका ने माना था.
सब कुछ ठीक ठाक ही चल रहा था. सबके पास पहले और सच्चे प्रेमी प्रेमिका हुआ करते थे. लेकिन फिर अचानक से ग्लोबलाइजेशन (वैश्वीकरण) के कारण बाज़ार ने अपनी तस्वीर बदल ली. सेकंड पार्टी और थर्ड पार्टी का चलन बढ़ने लगा. अब लोगों को लगने लगा कि नयी 'मारुती -800 ' लेने से बढ़िया है कि अगर उसी रेट में कहीं से बढ़िया सेकंड हैण्ड एस-कोडा या होंडा सिटी मिल जाए तो क्या बुराई है. जैसे जैसे बाज़ार ने अपनी रंगत बदली तो हर जगह की रंगत बदलने लगी. बल्कि अब तो बाज़ार की हालत तो ये गयी कि कोई नयी कार भी ले तो लोगों को लगता है कि झूठ बोल रहा है.
अब प्रेमी भी कुछ ऐसे ही खोजे जाने लगे. अब धीरे धीरे ये हालत हो गयी कि अगर कोई लड़का कहता कि मैंने तुम्हारे सिवा किसी की ओर नज़र उठा के देखा ही नहीं, तो लड़की उसकी आँखें टेस्ट करवाने निकल पड़ती कि कहीं नज़रें कमजोर तो नहीं हैं. जैसे ही कोई बंदा ऐसा साधू जैसा दिखता है तो लड़की सोचती है कि या तो फरेब कर रहा है, नहीं तो कोई रासायनिक-भौतिक कमी होगी. कॉलेज में पहुँच चुका लड़का किसी भी लड़की के फेर में ना पड़ा हो, ऐसा तो सोचकर भी आश्चर्य होने लगा. अब तो कोई लड़का बेचारा सही का भी साधू हो तो भी शक की ही नज़र से देखा जाने लगा. लड़कों के सामने भयानक मंदी का दौर छा गया.
बाज़ार की मांग के हिसाब से नयी रणनीतियां जरूरी हो गयी थीं. अब तो पहली और आखिरी कहना जैसे कोई गुनाह सा हो गया था.
अंततः नयी रणनीतियां भी सामने आ ही गयीं. अब लड़कों ने पहली-आखिरी कहना छोड़ दिया. अब वो खुद ही अपने पहले प्रेम के किस्से सुनाने लगे. इसके लिए बाकायदा प्लाट तैयार किया जाने लगा.
पहले लड़की से दोस्ती करो. उसकी सहेलियों वगैरा से भी कोई खास डरने की जरूरत नहीं रही. सबसे खुल के बोलो बात करो. फिर एक दिन यु ही अचानक से किसी बात के बीच में गंभीर हो जाना. बस इतना कहना- "... तुम जब ऐसे कहती हो ना.. तो.. अक्चुअली (दरअसल) ... खैर छोड़ो... " बस इतना कहकर चुप हो जाना. अब लड़की भला ऐसे कैसे छोड़ दे?? एक दोस्त होने के नाते पूछना तो पड़ेगा ही. वो भी उत्सुकता के वशीभूत होकर जिद करती है-"बताओ तो क्या बात है. अपने दोस्त को भी नहीं बताओगे?" एक दो बार टालकर फिर लड़का अपनी कहानी बता देता है, बात के बीच में एक दो बार आँख पर रुमाल या हाथ जरूर फेर लेता है. और फिर उस दिन वो बिना कोई और बात किये कुछ उदासी के साथ विदा लेके चल देता है.
इस सब में दो-तीन तरह के सेन्ट्रल आईडिया की कहानी होती है. या तो पहले वाली कहानी की लड़की दुनिया से गुज़र गयी, या फिर किसी दूसरे शहर चली गयी, या उसकी शादी हो गयी या फिर आखिर विकल्प ये कि बेवफाई कर गयी. लड़के के ही किसी दोस्त के साथ वफ़ा निभाने लगी. लड़का बेचारा एक दम दूध का धुला हुआ उसकी बेवफाई में तड़प रहा होता है. उसे सहानुभूति की सख्त जरूरत होती है. हालाँकि वो सहानुभूति से भी इंकार करता है. वो कहता है कि उसने उसके बाद किसी दूसरी लड़की की तरफ देखा ही नहीं. दिल या मन जो भी हो.. वो करता ही नहीं ..
अब तो किसी और लड़की के बारे में सोचता भी नहीं है. ऐसा ही और भी कुछ-कुछ. इस सब में एक बात पक्की है कि पहली कहानी वाली लड़की किसी भी हालत में उस शहर में नहीं होती है जिस शहर की लड़की को कहानी बताई जा रही होती है. हालाँकि सुनने वाली लड़की इतना दिमाग नहीं लगाती है. वो भावनाओं में बह रही होती है. उसे दो बातें समझ में आ जाती हैं, एक तो ये कि लड़के में कोई कमी नहीं है, वो प्रेमी बनने की काबिलियत रखता है. दूसरा ये कि लड़का बहुत सही भी है. ईमानदार है, जो कि उसने अपनी पिछली बात खुद ही बता दी. कुछ भी नहीं छिपाया. विश्वास के काबिल है. दिल का मारा है. किसी लड़की ने बेवफाई की है. और फिर इस तरह से सहानुभूति के रूप में नए प्रेम का सृजन होता है. कभी कभी लड़का पहली कहानी में खुद को भी दूध का धुला नहीं साबित करता है. बल्कि वो कहता है कि वो गलत था, लेकिन अब उसे अपनी गलती का एहसास है और वो प्रायश्चित की आग में जल रहा है. उसकी तो हंसी भी गम को छुपाने का तरीका है. इस सब में बड़े-बड़े शायरों की मेहनत भी बहुत काम आ जाती है. कुल मिलाकर इस तरह से एक नए प्रेम का सृजन होता है.
यही नहीं...
नए प्रेम के सृजन का एक और भी बहुत तेजी से उभरता हुआ और कामयाब तरीका भी आ गया है. ये वो तरीका है जो कि हमने यहाँ इस्तेमाल किया है.
अब ये भी एक सफल तरीका है कि लड़की के सामने खुद ही लड़कों की बुराई कर दो. सामने वाले की चादर को इतना गन्दा साबित कर दो कि तुम्हारी चादर खुद चमकदार लगने लगे. क्यूंकि ऐसा हुआ है. कभी कभार इस तरह की बात करने के बाद लड़की उल्टा हमसे ही प्रेम करने की इच्छुक हो बैठी. तो हमसे भी सावधान रहिये.
हालाँकि यह सब पूर्ण सत्य नहीं है. लेकिन पूर्ण असत्य भी नहीं है. बस कहने का प्रयास यही है कि किसी पर भी विश्वास कीजिये.. लेकिन अन्धविश्वास नहीं..
FAITH IS GOOD... BUT BLIND FAITH IS HARMFUL..
अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद