सूखी नज़रों के पीछे दिल नम भी होता है।।
मैं अगर नहीं रोता, तो क्या
मेरे अन्दर कोई जज्बात नहीं।
मेरी नज़रों में अगर चमक है, तो क्या
मेरी ज़िन्दगी में कहीं काली रात नहीं।।
सूरज के पीछे भी अँधेरा हो सकता है।
हंसने वाला भी छिप के रो सकता है।।
मैं तो चाहता हूँ कि सबके गम पी लूं।
सबकी काली रातें अकेले जी लूं।।
मैं जल जाता हूँ औरों की गरमी के लिए,
मैं गल जाता हूँ औरों की नरमी के लिए ।
मैं ढल जाता हूँ नए सूरज के लिए,
मेरी राख है किसी काजल की जरूरत के लिए।।
मगर, दुनिया कहती है
मैं बेशरम हँसता हुआ पत्थर हूँ।
आंसुओं के सूखने से बने
रेत का समन्दर हूँ।।
उन्हें लगता है इस बेशरम पत्थर पर
उनके वार का जख्म शायद कुछ कम ही होता है।
मगर सच ये है दुनिया वालों, कि
ये 'पत्थर' भी हर रात अपने
दामन में छिप-छिप के रोता है।।
-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद
अहसासों का बहुत अच्छा संयोजन है ॰॰॰॰॰॰ दिल को छूती हैं पंक्तियां ॰॰॰॰ आपकी रचना की तारीफ को शब्दों के धागों में पिरोना मेरे लिये संभव नहीं
ReplyDeleteउनके वार का जख्म शायद कुछ कम ही होता है।
ReplyDeleteमगर सच ये है दुनिया वालों, कि
ये 'पत्थर' भी हर रात अपने
दामन में छिप-छिप के रोता है।।
बहुत से गहरे एहसास लिए है आपकी रचना ...
धन्यवाद संजय जी..
ReplyDeleteदरअसल कविता तो होती ही दिल से है.. दिल की है,
और हमारा तो क्या... ..
''बस दिल के कुछ जज़्बात शब्दों में पिरोये..
दर्द में जब जब भी मेरे शब्द रोये...
सत्य ही मैंने लिखा..
जब जब लिखा..
शब्द में उसको पिरोया जो दिखा,,, ''
बड़ी ग़मगीन मगर सुंदर रचना!
ReplyDeleteधन्यवाद अंजना जी..
ReplyDeleteये 'पत्थर' भी हर रात अपने
ReplyDeleteदामन में छिप-छिप के रोता है।।
बहुत खूब ... क्या दर्द परोसा है आपने तो
@ M VERMA : जी बंधुवर..
ReplyDeleteबस इतना ही है कि जो मिल जाता है दुनिया से..
वही कलम कागज़ पर उतार देती है..
और फिर दर्द भी क्या.. ये तो दवा है.. स्वाद बढाने वाली दवा... ज़िन्दगी के बहुत सारे स्वाद इसके चखने के बाद ही समझ आते हैं..
और इसके साथ अगर मुस्कान की चाशनी भी हो फिर कहना ही क्या..
:-)
इतना दर्द क्यों?
ReplyDeleteअच्छी रचना.. पर इतना दर्द क्यों?
bahut sundar,bhavuk kar dene wali rachna hai ..........it's really good
ReplyDeletetiwari ji
आंसुओं के सूखने से बने
ReplyDeleteरेत का समन्दर हूँ।।
उन्हें लगता है इस बेशरम पत्थर पर
उनके वार का जख्म शायद कुछ कम ही होता है।
मन के दर्द को खूब उभारा है ..अच्छी रचना .
Once again a very good kavita...
ReplyDeleteDard bayan karne ka shayad hi isse achche shabd honge.. lagta hai aapka dard kafi gehra hai amit ji...
bahot acchey.......kab se likhna suru kiya hai...
ReplyDeleteसूरज के पीछे भी अँधेरा हो सकता है ...
ReplyDeleteहंसने वाला भी छिप के रो सकता है ...
ऐसा भी होता है ....
हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ !
ओह! इतना दर्द कैसे लफ़्ज़ों मे समेटा है?
ReplyDeleteमैं जल जाता हूँ औरों की गरमी के लिए,
ReplyDeleteमैं गल जाता हूँ औरों की नरमी के लिए ।
मैं ढल जाता हूँ नए सूरज के लिए,
मेरी राख है किसी काजल की जरूरत के लिए।।
दिल को छू गयी पंक्तियाँ
धन्यवाद अभिषेक जी.....
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