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Monday, November 15, 2010

मैं भी रोता हूं ...

हँसते हुए चेहरे के पीछे गम भी होता है।
सूखी नज़रों के पीछे दिल नम भी होता है।।
मैं अगर नहीं रोता, तो क्या 
मेरे अन्दर कोई जज्बात नहीं।
मेरी नज़रों में अगर चमक है, तो क्या 
मेरी ज़िन्दगी में कहीं काली रात नहीं।।
सूरज के पीछे भी अँधेरा हो सकता है।
हंसने वाला भी छिप के रो सकता है।।
मैं तो चाहता हूँ कि सबके गम पी लूं।
सबकी काली रातें अकेले जी लूं।।
मैं जल जाता हूँ औरों की गरमी के लिए,
मैं गल जाता हूँ औरों की नरमी के लिए ।
मैं ढल जाता हूँ नए सूरज के लिए,
मेरी राख है किसी काजल की जरूरत के लिए।।
मगर, दुनिया कहती है 
मैं बेशरम हँसता हुआ पत्थर हूँ।
आंसुओं के सूखने से बने
रेत का समन्दर हूँ।।
उन्हें लगता है इस बेशरम पत्थर पर
उनके वार का जख्म शायद कुछ कम ही होता है।
मगर सच ये है दुनिया वालों, कि
ये 'पत्थर' भी हर रात अपने 
दामन में छिप-छिप के रोता है।।

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

16 comments:

  1. अहसासों का बहुत अच्छा संयोजन है ॰॰॰॰॰॰ दिल को छूती हैं पंक्तियां ॰॰॰॰ आपकी रचना की तारीफ को शब्दों के धागों में पिरोना मेरे लिये संभव नहीं

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  2. उनके वार का जख्म शायद कुछ कम ही होता है।
    मगर सच ये है दुनिया वालों, कि
    ये 'पत्थर' भी हर रात अपने
    दामन में छिप-छिप के रोता है।।

    बहुत से गहरे एहसास लिए है आपकी रचना ...

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  3. धन्यवाद संजय जी..
    दरअसल कविता तो होती ही दिल से है.. दिल की है,
    और हमारा तो क्या... ..
    ''बस दिल के कुछ जज़्बात शब्दों में पिरोये..
    दर्द में जब जब भी मेरे शब्द रोये...
    सत्य ही मैंने लिखा..
    जब जब लिखा..
    शब्द में उसको पिरोया जो दिखा,,, ''

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  4. बड़ी ग़मगीन मगर सुंदर रचना!

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  5. धन्‍यवाद अंजना जी..

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  6. ये 'पत्थर' भी हर रात अपने
    दामन में छिप-छिप के रोता है।।
    बहुत खूब ... क्या दर्द परोसा है आपने तो

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  7. @ M VERMA : जी बंधुवर..
    बस इतना ही है कि जो मिल जाता है दुनिया से..
    वही कलम कागज़ पर उतार देती है..
    और फिर दर्द भी क्या.. ये तो दवा है.. स्वाद बढाने वाली दवा... ज़िन्दगी के बहुत सारे स्वाद इसके चखने के बाद ही समझ आते हैं..
    और इसके साथ अगर मुस्‍कान की चाशनी भी हो फिर कहना ही क्‍या..
    :-)

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  8. इतना दर्द क्यों?
    अच्छी रचना.. पर इतना दर्द क्यों?

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  9. bahut sundar,bhavuk kar dene wali rachna hai ..........it's really good
    tiwari ji

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  10. आंसुओं के सूखने से बने
    रेत का समन्दर हूँ।।
    उन्हें लगता है इस बेशरम पत्थर पर
    उनके वार का जख्म शायद कुछ कम ही होता है।

    मन के दर्द को खूब उभारा है ..अच्छी रचना .

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  11. Once again a very good kavita...
    Dard bayan karne ka shayad hi isse achche shabd honge.. lagta hai aapka dard kafi gehra hai amit ji...

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  12. bahot acchey.......kab se likhna suru kiya hai...

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  13. सूरज के पीछे भी अँधेरा हो सकता है ...
    हंसने वाला भी छिप के रो सकता है ...
    ऐसा भी होता है ....
    हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ !

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  14. ओह! इतना दर्द कैसे लफ़्ज़ों मे समेटा है?

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  15. मैं जल जाता हूँ औरों की गरमी के लिए,
    मैं गल जाता हूँ औरों की नरमी के लिए ।
    मैं ढल जाता हूँ नए सूरज के लिए,
    मेरी राख है किसी काजल की जरूरत के लिए।।

    दिल को छू गयी पंक्तियाँ

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  16. धन्यवाद अभिषेक जी.....

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