ज्यादा गहरा जीता हूँ..
इसीलिए शायद रिश्तों को
जीना सीख नहीं पाया।।
मैं जख्मों को शायद कुछ
ज्यादा गहरा सीता हूँ..
इसीलिए जख्मों को शायद
सीना सीख नहीं पाया।।
जख्म हुए ज्यादा गहरे
जब जख्मो को सीना चाहा
रिश्ते ज्यादा दूर हुए
जब रिश्तों को जीना चाहा।।
भावशून्य लगता हूँ
जब भावों में बहता हूँ
अश्क नज़र आये ज्यादा
जब अश्कों को पीना चाहा।।
लेकिन रिश्ते घाव नहीं
कि ऊपर-ऊपर से सी डालूँ
कैसे भावशून्य होकर भी
हर रिश्ता मैं जी डालूँ।।
क्या जग जैसा जीना सीखूं,
स्वांग रचूं मरने का
क्या क्रम मैं भी छोड़ चलूँ
आँखों में मोती भरने का।।
जो जितना उथला होता है,
उतनी जल्दी भरता है
जितनी जल्दी भर जाए,
वो झोली उतनी अच्छी है।।
पैमाने अब बदल गए हैं
रिश्तों की गहराई के..
उथली सी नज़र, आँखें भरकर,
प्रीत यही अब सच्ची है।।
-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद
bahut sundar kavita hai.............
ReplyDeletenice
मैं क्या बोलूँ अब....अपने निःशब्द कर दिया है..... बहुत ही सुंदर कविता.
ReplyDeleteभावशून्य लगता हूँ
ReplyDeleteजब भावों में बहता हूँ
अश्क नज़र आये ज्यादा
जब अश्कों को पीना चाहा।।
बहुत भावयुक्त है यह रचना