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Wednesday, December 28, 2011

भूल बैठी है...(uski wafa.......)











कलम बहुत दिनों से रोना भूल बैठी है.
दर्द में पलकें भिगोना भूल बैठी है...

आंसुओं का सिलसिला भी गुम हुआ है
उनींदी ये आँखें सोना भूल बैठी हैं....

उसने जाने क्यों वफ़ा का रुख बना लिया
मेरा दिल है एक खिलौना, भूल बैठी है...

उसकी वफ़ा का आलम ऐसा, सपने भूल गए
नींदे भी पलकों का बिछौना भूल बैठी है...


-अमित तिवारी
समाचार संपादक,
अचीवर्स एक्सप्रेस 

Wednesday, August 17, 2011

कब किले से मुक्त होगी स्वतंत्रता? (Independence day?)


‘‘सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं, दिल पे रखकर हाथ कहिये, देश क्या आज़ाद है।
कोठियों से मुल्क की ऊंचाइयां मत आंकिये, असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है।।’’

देश की तथाकथित आज़ादी की इस 65वीं वर्षगाँठ के मौके पर अदम गोंडवी की ये पंक्तियाँ सोचने पर मजबूर कर रही हैं।
मैं फुटपाथ पर आबाद हिंदुस्तान हूँ। मैं यह तो नहीं कह सकता कि मेरी आवाज सुनो, लेकिन नक्कारखाने में तूती की तरह ही सही मैं बोलना चाहता हूँ। बचपन से किस्से कहानियों में सुनता आ रहा हूँ कि किले में राजा-महाराजा सब रहा करते थे। धरती पर आने में थोड़ी देर कर दी इसलिए राजा-रानी के दर्शन नहीं कर पाया कभी। मेरे आने से पहले ही देश में लोकतंत्र (?) आ गया। लेकिन फिर भी टिकट कटाकर लालकिले जरूर गया हूँ। राजा-रानी तो नहीं लेकिन उनके कमरे, बाथरूम, बगीचे जरूर देखने को मिले। राजा के सैनिक तो नहीं लेकिन स्वतंत्रता की रक्षा में लगे सैनिक जरूर दिखाई दिए।
आज़ादी की सालगिरह के दिन स्वतंत्रता की देवी के दर्शन के लिए भी अजब मारामारी रहती है।
वैसे भी जहाँ रानी मुखर्जी को देखने के लिए होड़ लग जाती हो वहां स्वतंत्रता की इस रानी को देखने की इच्छा होना तो स्वाभाविक ही है।
स्वतंत्रता भी एक रानी है, देवी है, बला की खूबसूरत रानी। जहाँ खूबसूरती है वहां बला है, बलवा है, झगड़ा है, फसाद है। इस रानी की सुरक्षा बहुत जरूरी है।
और जो हालात दिख रहे हैं, उनमें ये स्पष्ट है कि इस लोकतंत्र (?) में ये स्वतंत्रता आम आदमी की पहुँच से जितनी दूर रहेगी, उतनी ही सुरक्षित रहेगी।
मुझ जैसे बहुत से लोग सालों से कोशिश में हैं कि स्वतंत्रता के दर्शन हो जाएँ, लेकिन वहां पुलिस के डंडों के आलावा कुछ नहीं मिल पाता है।
मैं सोच रहा हूँ कि आखिर स्वतंत्रता इस किले से कब मुक्त होगी? खेत-खलिहान, गाँव, कसबे में कब पहुंचेगी ये स्वतंत्रता? भारत के नागरिकों को मिली हुई इतनी महँगी और कीमती स्वतंत्रता मुझ जैसे गंवार को कब मुहाल होगी?
अन्ना की टीम एक और स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रही है, लेकिन पता नहीं वो भी इस किले में कैद स्वतंत्रता को स्वतंत्र कर पायेंगे या नहीं।
डर लग रहा है कि कहीं स्वतंत्रता की तीनरंगिया चुनरी की चमक फीकी तो नहीं पड़ गयी है। इसके केसरिया रंग में कैशोर्य बचा है या गायब हो गया?
सफेद रंग बदरंग तो नहीं हो गया है ना?
इसके हरे रंग की हरीतिमा शेष है या कहीं खो गयी है?
मुझे स्वतंत्रता से बहुत प्यार है, बेशक वह मुझे मिले या न मिले। वैसे भी इस किले के बाहर जो कुछ भी देखने को मिल रहा है, वह कुछ अच्छा संकेत नहीं कर रहा है। जिस तरह से लोकतंत्र (?) के नाम पर अभिव्यक्ति का गला घोंटने का प्रयास हो रहा है। जिस तरह से आम जन से इस स्वतंत्रता को दूर रखा गया है। जिस तरह से कुछ लोग पूरी स्वतंत्रता से भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। जिस तरह से सरकार के खिलाफ उठने वाली आवाज को कुचलने का हर रोज प्रयास हो रहा है, उसे देखकर लगता है कि किले के भीतर की स्वतंत्रता भी सुरक्षित नहीं होगी। वो भी सिसक रही होगी। नासूर बनते भ्रष्टाचार और अत्याचारों से आहत हो रही होगी। आखिर प्राण तो इसका भी इस जन-गण के मन में बसता है ना। अफसोस तो इस आज़ादी को भी होगा ही खुद पर कि यह उसकी नहीं हो पायी जो इसके लिए जीता-मरता रहा है।
ऐसा कहना तो गलत होगा कि यह जीवन उस गुलामी के दौर के जीवन से बदतर है, लेकिन दिल ये भी नहीं मानता कि हालात बहुत ज्यादा बदल गए हैं। फुटपाथ पर बसे हुए जिस हिंदुस्तान की बात मैं कहना चाहता हूँ, उसके लिए तो तस्वीर अभी भी लगभग वैसी ही है। उसके लिए परेशानियों की सिर्फ शक्ल बदली है, परेशानियाँ वही हैं। उसके लिए सिर्फ शासक के रूप रंग में परिवर्तन हुआ है, लेकिन उसके शोषण का हाल आज भी वैसा ही है।
इस सत्तर फीसदी हिन्दुस्तान की ओर से मैं यही कहा चाहूंगा कि हे स्वतंत्रता! तुम बिलकुल परेशान मत होना, जल्द ही तुम्हें इस किले की कैद से मुक्त करने के लिए एक मुकम्मल लड़ाई होने वाली है। -0-

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
अचीवर्स एक्सप्रेस
(हिंदी साप्ताहिक)

Wednesday, August 10, 2011

'रंग दे बसंती चोला' से 'चोली के पीछे क्या है' तक...(Independence Day)



स्वतंत्रता दिवस की जयंती आने वाली है! जयंती इसलिए कह रहा हूँ ताकि इसके जीवित रहने का भान बना रहे. बचपन से ही बड़ा उत्साह सा रहा है इसके प्रति. सुबह-सुबह नहा-धोकर स्कूल के लिए निकल पड़ना..उस दिन स्कूल ज्यादा आनंद दायक लगता था, क्योंकि उस दिन बस्ता ले जाने की पाबन्दी नहीं होती थी, ना ही पढने की और ज्यादा प्रतीक्षित तो वो लड्डू थे जो झंडा फहराने के बाद मिलते थे. थोडा बड़ा होते-होते भाषण देने की लत भी लग गयी थी, इसलिए ऐसे अवसरों का और भी बेसब्री से इंतजार रहने लगा था.
उन दिनों भाषण की तैयारी के बहाने ही सही, बड़े-बड़े देशभक्तों की कहानियां ध्यान से पढ़ा करता था. आश्चर्य होता था भगत सिंह, राजगुरु जैसे दीवानों के किस्से पढ़कर. और गांधीजी के 'सत्य के प्रयोग' ने तो मन ही मोह लिया था. मन में वही क्रांतिकारी तेवर करवट लिया करते थे और 15 अगस्त, 26 जनवरी के आसपास कुछ ज्यादा ही.
बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है ये सब, यही कोई आठ-दस साल ही तो हुए हैं उस देशभक्त बचपन को बीते हुए. शनै-शनै अन्दर का देशभक्त खोने लग गया था, भाषण की आदत तो नहीं छूटी थी, मगर अब भाषण में मेरी आत्मा ना होकर एक लोकेशना का मोह ज्यादा रहने लगा था. धीरे-धीरे भाषण का मंच भी खो गया और मोह भी.
लेकिन आज अचानक सड़क पर पुलिस की बढ़ी हुई चहलकदमी देखकर याद आया कि 'दिवस' आने वाला है. एक अजीब सा तुलनात्मक भाव आ रहा है मन में.
खुद की तुलना खुद से करते हुए भी एक अंतर लग रहा है. आज में रह कर देखता हूँ तो वह देशभक्त सा बचपन स्वप्न लगता है और उस बचपन में जाकर देखता हूँ तो आज का सच वहशी लगता है.
और जब ये तुलना बाहर समाज में निकलती है तो दृश्य और भी भयावह हो जाता है. याद आ रही है वो 'मेरा रंग दे बसंती चोला' वाली किताबों में पढ़ी हुई पीढी. विश्वास नहीं होता कि कैसे हमारी ही उम्र के वो नौजवान इतना कष्ट झेल लेते थे देश के लिए?
जाने कैसे देश के लिए जान देने जैसी तत्परता थी उनके भीतर?
उतावलापन सा रहता था उनके मन में देश की स्थिति पर चिंतन करने और उसे सुधारने के लिए.
बेचैन रहते हर वक़्त आम मानुष के लिए. गाते तो देश, नाचते तो देश. खाते-पीते, सोते-जागते सिर्फ देश की बात......बचपन में उनकी कहानी पढ़ते-पढ़ते जोश में आकर गाया करता था 'मेरा रंग दे बसंती चोला,ओ माये रंग दे बसंती चोला....' और फिर मुझ जैसे कई देशभक्त गाने लगते थे अपनी-अपनी आवाज में.

अपनी देशभक्ति के अवसान काल में भी 

 "LOC kargil" फिल्म 

देखने का जज्बा सा जाग पड़ा. हाल पहुँच कर बड़ा सुकून मिला था. अच्छी खासी भीड़ थी देखने वालों की. लगा कि चलो देश मरा नहीं है. दर्शकों में ज्यादातर युवा ही थे, मेरी ही उम्र के आसपास के.
फिल्म चल पड़ी थी, मेरा उत्साह जोर मार रहा था. लेकिन युवा साथी कुछ शांत से लग रहे थे, लड़ाई का सीन शुरू होते ही सबकी चेतना वापस आने लगी थी. लेकिन अचानक हुए शोर से (हूटिंग कहते हैं) मैं थोडा सा चौंक गया था, कारण समझ नहीं आया था शोर का. फिर थोडी देर में पता लगा कि शोर कही गयी बातों पर नहीं हो रहा था, बल्कि तालियाँ तो उन शब्दों पर बज रही थीं जिन्हें "बीप-बीप" की आवाज में डायरेक्टर ने छुपा दिया था, शायद सेंसर के चलते. मगर मैं सोच रहा था कि अब सेंसर कहाँ गया..ना कहते हुए भी कह देने का तरीका भी तो है.
शोध कहते हैं कि सोशल नेट्वर्किंग साइट्स का इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर युवा इनके जरिये ऐसे ही नए चलन में आये हुए स्टाइलिश शब्दों का आदान प्रदान करते हैं. "डेल्ही बेली" और "देव डी" की तारीफ इनकी जबान पर है.
बातें तो LOC की भी होती थी, लेकिन "बीप-बीप" की चर्चा ज्यादा थी.
ऐसे ही एक शोध के मुताबिक इन्टरनेट का इस्तेमाल कर रही पीढी का एक बड़ा हिस्सा अश्लील साइट्स के सर्च को प्राथमिकता में रखता है. अछूता मैं खुद भी नहीं रहा इस से. मगर इस सच ने अचानक झकझोर दिया है. मैं सोच रहा हूँ कि हम सब किस ओर बढ़ रहे हैं?
यह युवा पीढी, जिसके कन्धों पर आगे देश की बागडोर होगी, वह कहाँ खोयी हुई है?
पिछले सालों में और भी ऐसा ही बवाल मचा हुआ था 'सच का सामना', स्वयंवर और बिग बॉस जैसे धारावाहिकों को लेकर. 

जितनी निर्लज्जता के साथ निर्देशकों ने इन्हें पेश किया था, प्रतिभागी हिस्सा ले रहे थे, उतनी ही निर्लज्जता के साथ कुछ बुद्धिजीवी इसके समर्थन का राग भी अलाप रहे थे. तर्क दिया जा रहा था कि आखिर अमेरिका में भी तो यह धारावाहिक चलता है.

भैया अमेरिका में तो शादी की पाँचवीं सालगिरह मनाने की नौबत ही नहीं आती, लेकिन भारत में सात जन्मों का साथ निभता है.
तासीर का फर्क तो समझो अमेरिका और भारत की. वहां "माँ सिर्फ पिता की पत्नी होती है."

इया साल भी कहीं कुछ नया नहीं दिख रहा है. आज भी 'डेल्ही बेली' जैसी फिल्मो के समर्थन में ऐसे ही बेहूदा तर्क दिए जा रहे हैं. 
आश्चर्य है अब देश की चर्चा, मूलभूत समस्यायों की चर्चा करने के लिए किसी के पास समय ही नहीं बचा है.
हर साल की तरह फिर एक बार स्वतंत्रता दिवस आने वाला है. उत्साह हर रोज घटता जा रहा है. अब भगत सिंह पैदा तो होना चाहिए लेकिन हमारे घर में नहीं पडोसी के घर में.

'सरदार भगत सिंह के आखिरी उदगारपढ़ रहा था, यकीन ही नहीं होता कि जिस उम्र में साला हम एक खरोंच से डर जाते हैं, उसी उम्र का वो बन्दा कितनी बेफिक्री से अपने मरने के तरीके सुझा रहा था ब्रिटिश सल्तनत को. हमें बेकार की लफ्फाजियों से फुर्सत नहीं और भगत सिंह पूरी दुनिया को अर्थशास्त्र सिखा रहे थे.
जब सारा देश महात्मा गाँधी का पूजा की हद तक सम्मान कर रहा था तब कैसी बेबाकी और साफगोई से सुखदेव ने उन्हें पत्र लिखकर अपना और क्रांतिकारियों का पक्ष रखा और अपने लिए माफ़ी की बात खारिज कर दी..
पता नहीं किस मिटटी के बने थे वो? या शायद इस पीढी की मिट्टी ख़राब हो गयी है. !!
मंहगाई, भूख, बेरोजगारी, लूट, बलात्कार सब कुछ तो है, बस अगर कुछ नहीं है तो वो है इन बातों पर चिंतन करने और इन्हें ख़त्म करने वाली जमात. 'डेल्ही बेली' पर तो बहस है लेकिन इन जमीनी मुद्दों पर कहीं चूं भी नहीं है.
सब खोजने में लगे हुए हैं चोली के पीछे के राज को..
'रंग दे बसंती चोला' से 'चोली के पीछे क्या है' तक के इस सफ़र में देश कहाँ चला गया और कब चला गया, पता ही नहीं चला.
कब मेरे भीतर का भारत मर गया, मैं सोचकर अनुत्तरित हूँ.
कैसे "वन्दे मातरम" की सेज बनने वाले होंठ "गालियों का गलीचा" बन गए?
कैसे चोले को उस रंग में रंगने की जिद में अड़ा हुआ मन चोली के पीछे का सच खोजने निकल पड़ा?
स्वतंत्रता दिवस कैसे पर्व से जयंती बन गया?


कौन जिम्मेदार है इस वैचारिक और नैतिक पतन का?
है कोई जवाब आपके पास मेरी इस उलझन का?
हो तो जरूर बताइयेगा.....
पड़ताल अभी जारी है..

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
अचीवर्स एक्सप्रेस 

Thursday, August 4, 2011

'कविता' ऐसे बनती है (Making of KAVITA)


किसी को याद करके रोने की 
फुर्सत तो कभी मिली ही नहीं

वो जो किसी के होने से खिलती है, 
वो कली खिली ही नहीं.
हाँ मगर दुनिया की दुनियादारी में 
खुद से मिलना भी तो मुश्किल हो जाता है
और बस ऐसे ही जब कभी 
खुद से मिले हुए अरसा गुजर जाता  है...
तो फिर अपनी याद में ही कुछ आंसू आ जाते हैं...
और फिर वही आंसू 
कागज पर गिरकर 'कविता' बन जाते हैं
कभी अधरों पर मुस्कान लिए,
कभी हृदय में दर्द लिए....

- अमित तिवारी
समाचार संपादक
अचीवर्स एक्सप्रेस 

Saturday, July 30, 2011

एक ख्वाब ही तो है..(Its a dream only)



मेरी आँखों का वो एक ख्वाब ही तो है।
वो चेहरा नर्म-नाजुक गुलाब ही तो है।।


प्यार का हर लफ्ज उस से जुड़ता है।
वो एक मोहब्बत की किताब ही तो है।।


पास जाऊं भी तो कैसे मैं हवा सा पागल।
बुझ न जाये उम्मीदों का चराग ही तो है।।


वो मेरे सामने भी हो तो कैसे देखूंगा।
मेरी निगाह भी उसका नकाब ही तो है।।


मेरे इश्क का सवाल उसे कहूं कैसे।
वो झुकी सी नज़र मेरा जवाब ही तो है।।


उसकी तारीफ में गजलें तमाम लिखता हूँ।
वो साँस लेते हुए कोई महताब ही तो है।।

-अमित तिवारी 
समाचार संपादक
अचीवर्स एक्सप्रेस 

Tuesday, July 26, 2011

सच ही तो कहा उसने (Its true...)

सच ही तो कहा उसने
'तुम प्यार करना नहीं जानते'
भला ऐसे भी कोई प्यार करता है क्या?
कि नाराज़ होने का अधिकार भी न रखे...!
कहीं ऐसे भी प्यार होता है क्या..
कि कोई लाख छुडाये 
और तुम हाथ थामे खड़े रहो...
ऐसे प्यार थोड़े होता है 
कि उसने सोचा भी नहीं
और तुम दौड़े चले आये..
और ये जो तुम इस नाम की माला जपते हो ना...
कोफ़्त होती है इस से...
और हाँ, जिसे ज़िन्दगी में आना ही नहीं...
उसे ज़िन्दगी बनाये रहना !! 
अरे पागल ! ये प्यार नहीं..
पागलपन है....!
और फिर उसकी वही निर्दोष सी खिलखिलाती हंसी...
(जिस पर हमेशा मुझे प्यार आता है...)
और मैं बेबस ये भी न कह सका 
कि 
सच ही तो कहा उसने..
'मैं प्यार करना नहीं जानता' 

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
अचीवर्स एक्सप्रेस 

Monday, April 25, 2011

भगवान नहीं रहे...!!! (God is Dead)


सत्यनारायण राजू उर्फ़ सत्य साईं बाबा की मृत्यु हो गयी. बाबा कहना तो उन्हें कमतर करके आंकना होगा. सत्य साईं भगवान नहीं रहे. 
भगवान क्यों हैं? इस पर कोई तर्क नहीं किया जाना चाहिए. क्यूंकि जहाँ आस्था की बात होती है वहां तर्क की गुंजाइश नहीं रह जाती है. ऐसे ही तर्कों से परे सत्य साईं भगवान का भी कारोबार चलता रहा है. 
देश के दोनों बड़े दल इस मुद्दे पर एक हैं. दोनों के सर्वेसर्वा उनकी मौत पर दुखी हैं. प्रधानमंत्री मनमोहन और राष्ट्रपति भी गहरे शोक में डूबे हैं. 
देश के एक और भगवान सचिन भी अपने भगवान के मरने के गम में नाश्ता छोड़कर बैठे हैं. उन्होंने खुद को होटल के कमरे में बंद कर लिया. समाचार चैनलों का कहना है कि भगवान की मौत से पूरा देश दुखी है. 
भगवान ने अपने जीवन काल में बहुत चमत्कार किये. लगभग हर वो चमत्कार जो कोई जादूगर कर सकता है. भारत के महान जादूगर पीसी सरकार ने एक बार उन्हें खुली चुनौती देते हुए कहा था कि वो एक बार उनके सामने अपने चमत्कार करके दिखाएं, वह अपने जादू से भी वह सब करके दिखा देंगे. लेकिन भगवान की हिम्मत नहीं हुई उस चुनौती का सामना करने की. 
वैसे कहा ऐसे भी जा सकता है कि कहाँ भगवान और कहाँ एक जादूगर की चुनौती.. इतनी छोटी चुनौती को स्वीकारते भी कैसे ?
भगवान काफी दिनों से बीमार चल रहे थे. समझ में ये बात नहीं आ रही है कि आखिर उनके भक्त उनके जीवन की रक्षा के लिए किस से प्रार्थना कर रहे थे?
भक्तों का दुःख मंतर-भभूत से दूर कर देने वाले भगवान को अस्पतालों और डॉक्टरों की जरूरत क्यों पड़ गयी? उनके लिए विदेश से डॉक्टर बुलाना पड़ा. 
वो भी ऐसे में जबकि उन्होंने खुद के मरने की उम्र भी 96 साल बताई थी. इस हिसाब से उन्हें अभी 2022 तक तो जीना ही था. तो क्या उनके भक्तों को उनकी भविष्यवाणी पर विश्वास नहीं था, जो सबके सब उनकी प्राणरक्षा में लग गए थे. और फिर क्या कारण रहा कि उन्हें अपनी भविष्यवाणी को झुठलाना पड़ गया? 
शायद कलियुग में बढ़ते पापों से उन्हें बोरियत होने लगी थी, इसलिए अस्पताल में बिस्तर पर पड़े-पड़े उन्होंने अपनी भविष्यवाणी संशोधित कर ली होगी, जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया. 
या फिर ऐसा भी हो सकता है कि उन्होंने 11 साल की समाधी ले ली है, जिसे ये मूर्ख डॉक्टर सब मौत मान रहे हैं. 
सत्य साईं भगवान ऐसे बिना बताये कैसे मर सकते हैं.
उनके तमाम भक्तों को इस बारे में सोचना चाहिए कि कहीं यह उनकी समाधी का कोई प्रकार तो नहीं है..???

अच्छा अभी इधर एक और कयास भी लगाया जा रहा है... कि कहीं अस्पताल के वास्तुदोष के कारण ही तो भगवान को नहीं मरना पड़ा है ??? 
यह भी एक गम्भीर सवाल आ गया है.. वास्तुदोष भगवान को भी मार सकता है... 
तो अब इसके बाद वास्तु के जानकार लोगों का बाज़ार थोडा जोर पकड़ेगा.. 
भारत भगवानों का देश है... ज्यादा चिंता की बात नहीं है.. फिर कोई भगवान पैदा होगा.. 
तब तक सभी अस्पतालों के वास्तु-दोष ठीक कर लिए जाएँ ताकि अगले भगवान को वास्तु का शिकार न होना पड़े. 
मैं भी अपने कमरे का वास्तु ठीक करवा लेता हूँ... भगवान की पोस्ट खाली है...
क्यूंकि दुखी मैं भी हूँ... ये सोचकर कि "भगवान नहीं रहे..."


-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद


Friday, April 8, 2011

दिल फिर भी जीत नहीं पाए (Still alone..!)



गीत, ग़ज़ल, कविताई करके
जीवन जीत नहीं पाए..
हार गए सब लफ्ज़ मगर
दिल फिर भी जीत नहीं पाए

वो कब जीते, हम कब हारे..
कब टूटे सपनो के तारे ?
कब हमने उनसे सत्य कहा
कब झूठ समझ पाए सारे ?
पल-पल कर जीवन रीत गया..
पर सपने रीत नहीं पाए..
दिल फिर भी जीत नहीं पाए..

दिल की बातें जंग हुईं कब.. 
तसवीरें बदरंग हुईं कब ?
कब हँसना-खिलना छूट गया..
नम आँखें अपने संग हुईं कब ?
हर किस्सा हमने कह डाला..
लेकिन वो गीत नहीं गाये..
दिल फिर भी जीत नहीं पाए...


- अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

(तस्वीर गूगल सर्च से साभार )

Friday, March 11, 2011

प्रेम क्या है? (what is Love?)



प्रेम क्या है?
एक छोटा सा प्रश्न लेकिन अनेक उत्तर. एक ऐसा प्रश्न जिसके लिए हर किसी के पास अपना एक अलग उत्तर है. जिस जिस से पूछा जाए वह इसके लिए कुछ अलग उत्तर दे देता है. सबकी अपनी परिभाषाएं हैं प्रेम को लेकर. बहुत बार बहुत सी विरोधाभाषी परिभाषाएं भी.
मैं सोच रहा हूँ कि क्या प्रेम वास्तव में ऐसा है कि जिसकी कोई नियत परिभाषा ही नहीं बन पायी है. क्या प्रेम सचमुच ही ऐसा है कि इसका स्वरुप देश-काल और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित होता रहता है? क्या प्रेम का अपना कोई स्वरुप, अपनी कोई पहचान नहीं है?
क्या वास्तव में लोगों की भावनाओं के अनुरूप रूप ग्रहण कर लेना ही प्रेम का स्वरुप है? क्या प्रेम व्यक्तिगत या वस्तुगत हो सकता है? जिसके नाम पर हर रोज़ इतनी घृणा फैलाई जा रही है, क्या वही प्रेम है? क्या प्रेम महज एक दैहिक अभिव्यक्ति से अधिक कुछ भी नहीं? क्या किसी विपरितलिंगी के प्रति मन में उठ रही भावनाएं ही प्रेम हैं?
कदापि नहीं !!!
यह जो कुछ भी है वह प्रेम नहीं हो सकता. वह प्रेम हो ही नहीं सकता कि जो लोगों की भावनाओं के अनुरूप रूप ले लेता हो. वह प्रेम कदापि नहीं हो सकता है जिसके मूल में ही घृणा पल रही हो. प्रेम तो स्वयं एक सम्पूर्ण भाव है. प्रेम किसी के चरित्र का हिस्सा नहीं वरन स्वयं में एक पूर्ण चरित्र है.
प्रेम तो कृष्ण है, वह कृष्ण जिसके पाश में बंधकर गोपियाँ-ग्वाले और गायें सब के सब चले आते हैं.
प्रेम तो राम है, वह राम जिसके पाश में कोल-किरात भील सभी बंधे हुए हैं.
प्रेम तो ईसा है, वह ईसा जो मरते समय भी अपने मारने वालों के लिए जीवनदान की प्रार्थना करता है.
प्रेम बुद्ध है, वह बुद्ध जिसकी सैकड़ों साल पुरानी प्रतिमा भी करुणा बरसाती सी लगती है.
प्रेम बस प्रेम है.
प्रेम पुष्प की वह सुगंध है, जो बिना किसी भेद के सबको आह्लादित कर दे. प्रेम की गति सरल रेखीय नहीं है. प्रेम का पथ वर्तुल है. वह अपनी परिधि में आने वाले हर जीव को अपनी सुगंध से भर देता है. प्रेम करने का नहीं, वरन होने का भाव है. प्रेम स्वयं में होता है. प्रेम किसी से नहीं होता है, वरन वह किसी में होता है और फिर जो भी उस प्रेम की परिधि में आता है उसे वह मिल जाता है, बिना किसी भेद के. प्रेम किसी भी प्रकार से व्यक्ति-केन्द्रित भाव नहीं है.
यह कहना कि "मैं सिर्फ तुमसे प्रेम करता/करती हूँ." इस से बड़ा कोई झूठ नहीं हो सकता है.
लेकिन फिर ऐसे में यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि आखिर वैयक्तिक रूप से अपने किसी निकटवर्ती साथी, सम्बन्धी, मित्र या किसी के भी प्रति मन में उठने वाली भावना क्या है?
वह निस्संदेह प्रेम नहीं हैं, वरन प्रेम से इतर भावनाएं हैं, जिन्हें प्रेम मान लिया जाता है. प्रेम को समझने से पहले हमें कुछ शब्दों के विभेद को भी समझ लेना होगा.
प्रेम, प्यार, मोह (मोहब्बत) और अनुराग (इश्क) परस्पर समानार्थी शब्द नहीं हैं, बल्कि इनके अपने अर्थ और अपनी मूल भावनाएं हैं.
प्रेम शक्ति चाहता है, (Prem seeks Power )
प्यार को अपनी अभिव्यक्ति के लिए काया चाहिए. ( Pyar seeks Body ).
मोह (मोहब्बत) माधुर्य चाहता है, (Moh seeks Maadhurya ).
अनुराग (इश्क) आकर्षण चाहता है. ( Anurag seeks Attraction ).
प्रेम शक्ति चाहता है. यह शक्ति शरीर की नहीं, मन की शक्ति है. एक कमजोर व्यक्ति सब कुछ तो कर सकता है. वह विश्व-विजयी हो सकता है, प्रकांड विद्वान् हो सकता है, परन्तु उसमे प्रेम नहीं हो सकता है.
प्रेम का मूल निर्मोह है. निर्मोह के धरातल पर ही प्रेम का बीज अंकुरित होता है. निर्मोह की शक्ति के बिना प्रेम की प्राप्ति नहीं हो सकती है. पुष्प अगाध और निस्वार्थ प्रेम का प्रतीक है. वह प्रेम रुपी सुगंध बिना किसी भेद के फैलाता है, लेकिन कभी किसी के मोह में नहीं आता. कोई दिन-रात बैठकर पुष्प के सुगंध की चर्चा करता रहे, लेकिन फिर भी पुष्प उसके मोह में नहीं आता. वह उसके जाने के बाद भी उसी प्रकार सुगंध फैलाता रहता है. वह एक निश्छल बालक के लिए भी उतना ही सुगन्धित होता है, जितना कि किसी भी अन्य के लिए.
प्रेम प्राप्ति का माध्यम नहीं है. प्रेम बंधन भी नहीं है. प्रेम तो मुक्त करता है. प्रेम जब अंकुरित हो जाता है तब प्राणिमात्र के बीच भेद नहीं रह जाता.
किसी की माँ को गाली देने वाला, अपनी माँ से प्रेम नही कर सकता. किसी भी स्त्री का अपमान करने वाला, अपने परिवार की स्त्रियों से प्रेम नहीं कर सकता. किसी के बच्चे पर हाथ उठा रही माता को अपने पुत्र से मोह तो हो सकता है, लेकिन उसके मन में सहज प्रेम नहीं हो सकता.
प्रेम जब होता है, तब सिर्फ प्रेम ही होता है. प्रेम किसी से नहीं होता है, प्रेम किसी में होता है, ठीक वैसे ही जैसे कि पुष्प की सुगंध हमसे या आपसे नहीं है, वह पुष्प में है, जो सबके लिए है.
बस यही प्रेम है.



Amit Tiwari

अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद
(09266377199)

Thursday, February 24, 2011

क्या लिखूं ? (Nothing remains...)


सोचता हूँ क्या लिखूं, कोई बात बाकी नहीं.
यादों के झरोखों में, कोई हालात बाकी नहीं.
मौत की शुरुआत लिखूं,
या जिंदगी का अंत.....
खुशनुमा पतझर लिखूं
या उजड़ा हुआ बसंत....
बहार के कांटे लिखूं.....
या पतझर के फूल.........
झूठ का आईना लिखूं
या चेहरे की धूल........
इतने दर्द झेल लिए हैं, मेरी कलम ने
अब इसके खून में, कोई जज्बात बाक़ी नहीं.
सोचता हूँ क्या लिखूं..................................

दिल का वही दर्द लिखूं
या बेदर्द दुनिया.....
बेगरज आंसू लिखूं
या खुदगर्ज दुनिया.......
वक़्त के थप्पड़ लिखूं
या गाल अपने...........
मायूस आँखें लिखूं
या हलाल सपने........
कैसे करूँ जिंदगी में सवेरे का इंतजार...
अब तो जिंदगी में कोई रात बाकी नहीं...
सोचता हूँ क्या लिखूं.............................

ख्वाबों की दास्ताँ लिखूं,
या कत्ल सपनों के .....
गैरों के हमले लिखूं, या
कातिल शक्ल अपनों के
भीड़ का मातम लिखूं या
खामोशियों का शोर......
मरहमों के जख्म लिखूं
या जख्मों के चोर........
जख्म के फूल भी कैसे खिले चेहरे पर.....
आंसुओं की भी कोई बरसात बाकी नहीं...
सोचता हूँ क्या लिखूं................................

बुझता हुआ चिराग लिखूं
या आंधी का हौसला.....
गुजरती हुई साँसे लिखूं,
या मौत का फैसला.......
खुशियों का जनाजा लिखूं
या ग़मों की बारात...........
सोचता हूँ आज, मैं
लिखूं कौन सी बात........
'संघर्ष' कब्र में कैसी शहनाई की तमन्ना..
अब तो मौत की भी बारात बाकी नहीं.....
सोचता हूँ क्या लिखूं...............................

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद 

Tuesday, February 15, 2011

बेहया और बदमिजाज पीढ़ी (Generation Next.???)



अचानक से मन थोडा व्यथित हो गया. एक खबर मिली कि एक लड़के ने दो हत्याएं महज इसलिए कर दी कि लड़की ने उसके प्रेम को अस्वीकार कर दिया था. लड़की के अस्वीकार से क्षुब्ध हुआ वह सीधे उसके ऑफिस पहुँच गया, जहाँ बीच-बचाव की कोशिश करते एक लड़का भी मारा गया और लड़की का भी गला उस उन्मादी युवक ने काट दिया.
जांच पड़ताल होगी. बहुत से बयान आयेंगे-जायेंगे. उस उन्मादी युवक को शायद सजा होगी या शायद अपने रसूख के दम पर वह निश्चिन्त होकर घूमता रहेगा.
वाद का विषय यह नहीं है. जैसा भी होगा वह नया नहीं होगा. दोनों ही तरह की बातें होती रहती हैं. पकडे जाकर सजा पाने वाले भी बहुत हैं... और रसूख और पहुँच के दम पर छुट्टा घूमने वाले भी. विषय है आज के युवाओं के अन्दर पलते इस रोष का. वरन इसे रोष कहना भी गलत ही है. रोष तो एक सकारात्मक शब्द है. यह मात्र उन्माद है. पथभ्रष्ट होते युवा एक गंभीर विषय बन चुके है. एक ऐसा विषय जिस पर कोई चर्चा भी नहीं है. जिस घटना का जिक्र है वह आज के समय में एक सामान्य घटना ही है. यह ऐसा सच है आज के समय का जिस से हर रोज रूबरू होना पड़ता है. हर रोज सुबह अखबार में ऐसी अनगिन घटनाएं देखने को मिल जाती हैं. हर रोज इतना कुछ देखने को मिल जाता है अपनी इस समकालीन पीढ़ी के बारे में कि मन उखड़ जाता है. यह पीढ़ी न अपनी बुद्धि का सही इस्तेमाल करना जानती है ना अपनी शक्ति का.. बुद्धि का इस्तेमाल होता है तो द्विअर्थी संवाद करने में और शक्ति का प्रयोग होता है किसी गरीब और कमजोर पर. बात चाहे पैसा मांगने पर चाय वाले पर चाकू चलाने की हो या फिर कार से छू जाने पर रिक्शे वाले की हत्या कर देने का.. या फिर ऐसी ही किसी नृशंस घटना में उस शक्ति की परिणति होती है.
इसे शक्ति कहा जाए या फिर कायरता का ही नया रूप. जहाँ सच से सामना करने की शक्ति इतनी क्षीण हो गयी है इस पीढ़ी की कि वह उतावलेपन में कोई निर्णय नहीं ले पाने की हालत में रही है.
इस तथाकथित सभ्य और आधुनिक होती युवा पीढ़ी के और भी कई वाहियात रूप देखने को मिलते रहते हैं. शर्म आती है कि हम ऐसी पीढ़ी के समकालीन हैं. ऐसी पीढ़ी जो या तो घोर उन्मादी है या फिर फैशन के नाम पर अपाहिज और दोमुंही पीढ़ी.
ऐसी वाहियात जमात जिसे अपने समाज और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों से कोई सरोकार शेष नहीं है. शर्म आती है जब देखता हूँ कि एक तरफ जब मिस्र जैसे छोटे से अरब देश में जनता सड़क पर उतर कर 30 वर्षों के तानाशाही शासन को उखाड़ फेंकने में लगी है, तब यहाँ की दोगली जमात फेसबुक और ऑरकुट पर चुटकुलेबाजी और तस्वीर बांटने में लगी है. उसे गुस्सा आता है तब, जब लड़की उसका वासनाजनित प्रेम स्वीकारने से मना कर देती है या फिर कोई चाय वाला अपने हक के पैसे मांग लेता है.
जितना वक्त आज की यह तथाकथित आउन नॉर्म्‍स और सिविलाइजेशन को फॉलो करने वाली जमात खुद को संवारने और आइना देखने में बिताती है.. उतना वक्त शायद ही किसी सार्थक कार्य या चर्चा में बिताते हों.. यही कारण तो है कि आज सर्वाधिक युवाओं का देश भारत.. बीमार है.. क्रान्ति और देशभक्ति शब्द गाली जैसे लगते हैं इनके होंठों पर. अब इनका आदर्श भी फिल्मी परदे का अभिनेता होता है. क्रांति के लिए भी इन्हें अब किसी के अभिनय की ही जरूरत पड़ती है. अब ये सड़क पर तभी उतर सकते हैं जब इन्हें कोई ‘रंग दे बसंती’ या फिर ऐसी ही कोई फिल्म दिखाई जाए. कुछ ऐसी फिल्में देखकर ही इनके अन्दर क्रांति जन्म लेती है. और फिर जैसे ही दो शुक्रवार के बाद कोई हिस्स्स्स... या दबंग या तीस मारखां देख लेते हैं.. तुरंत इनके अन्दर की शीला जवान हो जाती है. सारी क्रांति ख़त्म.. इस संवेदन हीन पीढ़ी के मन में अब गजनी में आमिर खान की प्रेमिका के मरने पर तो संवेदना जागती है, लेकिन हर रोज भूख और बेबसी से मरते लाचार किसान और मजदूरों की खबर देख-पढ़कर नहीं जागती है.
बहस के लिए सबके पास इतना वक्त है.. लेकिन सार्थक विमर्श भी होना चाहिए.. इसकी किसी को चिंता नहीं है.. देश हमारा है.. लेकिन इसकी चिंता पडोसी के हाथ में है.. हम सबका चरित्रा यही रहता है.. चिंतन यही रहता है..
चेहरा देखकर तिलक करने की प्रवृत्ति है..
विमर्श के लिए कोई तैयार नहीं है. लोग खुद के प्रति ईमानदार होकर अपनी भूमिका का चयन नहीं कर रहे हैं आज के समय में.. इतने सब के बाद भी जब कोई कहता है कि मेरा भारत महान.. तो सच में कोफ्त होती है. जब यहाँ तरक्की के बड़े-बड़े आंकड़े सुनाये जाते हैं तब यह सब मात्रा आत्मप्रवंचना जैसा ही लगता है. लेकिन हमें सोचना होगा कि आत्मप्रवंचना करने से आत्मसंतुष्टि तो मिल सकती है.. लेकिन सत्य नहीं बदलता है...
देश की हालत क्या है? कितनी बीमार है.. ? ये तो सबको पता ही है.. लेकिन परेशानी यही है कि हम सच को स्वीकारने के बजाय आत्मप्रवंचना में लगे रहते हैं.. हम तो वो जमात है कि जिनके सामने कोई आकर देश के निवासियों को ‘स्लमडाॅग’ कहकर ‘आॅस्कर’ देकर चला जाता है और हम बेशर्मों की तरह ‘जय हो-जय हो’ कहते रहते हैं.
कभी कभी ये सब देखकर ऐसा लगता है कि जैसे बहुत बार थप्पड़ खाने से किसी का चेहरा लाल देखकर भी लोगों को लगता है कि उसके शरीर में खून बहुत है.. लेकिन हमें स्वीकारना चाहिए कि थप्पड़ मारकर गाल लाल कर लेने से ख़ून नहीं बन जाता है... देश की भी यही हालत है... इधर उधर के थप्पड़ से गाल लाल हो जाता है.. और सब लाल चेहरा देखकर खुश हो जाते हैं..
देश के सेहत का सच तो आज भी अस्थि-पंजर बना किसान-मजदूर ही है. और यहाँ के युवा का सच अखबारों की ऐसी ही सुर्खियाँ... बेहया और बदमिजाज पीढ़ी.


- अमित तिवारी 
समाचार संपादक 
निर्माण संवाद
(09266377199) 

Monday, February 14, 2011

यह कैसा प्रेम दिवस है??(Is it Love or Lust?)




आज फिर से प्रेम दिवस का शोर है. एक दिन प्रेम का... सोचकर आश्चर्य होता है कि भला प्रेम का कोई निर्धारित दिन कैसे हो सकता है? प्रेम कोई व्यापार तो नही है कि शुभ मुहूर्त देखकर किया जाए. प्रेम कोई क्षणिक भाव तो नही है जिसे किसी एक दिन के लिए सहेज कर रखा जा सके. आखिर यह कैसे संभव है कि साल भर में किसी एक दिन ही प्रेम की अभिव्यक्ति की जा सकती है.
लेकिन फ़िलहाल ऐसा ही हो रहा है.
कबीर कहते थे कि 'प्रेम न हाट बिकाय'.. लेकिन अब प्रेम हाट में बिकता है. बिक ही तो रहा है लगभग दो हफ्ते से. बाज़ार प्रेम से भरा हुआ है. जिसकी जितने प्रेम की औकात हो वह उतना प्रेम खरीद सकता है. प्रेमिका कीमती प्रेम की प्रतीक्षा में है.
कई प्रेमी उसी कीमत के दम पर ही प्रेम को खरीद लेने के लिए इस दिन का इंतजार करते देखे जा सकते हैं.
यही नही यह दिन अगर प्रेम के इजहार तक ही होता तो भी शायद कोई बात नही थी. अगर इस दिन सिर्फ तोहफों की कीमत और आकार तक ही बात रहती तो भी शायद कोई बात नही थी. सिर्फ चोकलेट और गुलाब की बिक्री और व्यापार की बात होती तो भी शायद कोई बात नही थी. मन मान ही लेता कि कोई बात नही व्यापार ही सही, होने दो इस प्यार को भी. लेकिन अभी बहुत चौंकाने वाले तथ्य सामने आये हैं. ऑनलाइन खुदरा व्यापार यसटुकंडोम के निदेशक शिशिर मिगलानी से एक बातचीत में पता चला कि इस प्रेम दिवस के इर्द-गिर्द कंडोम की बिक्री भी 15 से 20 प्रतिशत तक बढ़ जाती है. इनके ज्यादातर उपभोक्ता युवा होते हैं. इनमे से कई वह होते हैं जो कि इनसे सम्बंधित दिशा-निर्देश भी लेते हैं. अर्थात बहुत से वह होते हैं जो कि पहली बार इस में पड़ रहे होते हैं.
मन स्तब्ध है. किस प्रेम की दिशा में बढ़ रहे हैं युवा? यह प्रेम दिवस है कि वासना दिवस, इस पर भी सोचने की जरूरत है.
अच्छा एक और भी बात बहुत मजेदार है. इस प्रेम दिवस की शुरुआत कैसे हुई? संत वेलेंटाइन की याद में इस दिवस की शुरुआत हुई थी, जैसा कि कहा जाता है. वेलेंटाइन के सम्बन्ध में कोई विशेष प्रमाणिक तथ्य कहीं भी नही मिलते हैं जिस से कि यह सिद्ध हो सके कि उनकी शहादत के केंद्र में किसी प्रकार से प्रेम कारण था. वेलेंटाइन को लेकर कई तरह की कहानियां चलती हैं. उन्ही में से एक है कि तत्कालीन रोमन सम्राट क्लौडीयस द्वितीय ने अपने सैनिकों को विवाह नहीं करने देने की घोषणा की थी. उसका मानना था कि विवाह के बाद सैनिक का ध्यान और उसकी क्षमता कम हो जाता है. वेलेंटाइन चुपके चुपके सैनिको का विवाह कराया करते थे. और सम्राट को पता लगने पर उन्हें मार दिया गया. इस कहानी के कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नही मिलते हैं. इसके अतिरिक्त कुछ कहानियां हैं वेलेंटाइन को लेकर जिनमे ऐसा कुछ भी उल्लेख नही है. न ही उसमे कहीं से भी यह पता लगता है कि वेलेंटाइन कोई बहुत बड़े प्रेम के समर्थक थे. लेकिन समय के साथ साथ उनके उसी विरोध और उनकी शहादत के सम्मान में इस दिवस को मनाया जाने लगा. अब सोच ये रहा हूँ कि यह कैसा प्रेम दिवस है कि जिसका प्रादुर्भाव ही विरोध की कोख से हुआ है? क्या प्रेम का अर्थ विरोध है? क्या प्रेम घृणा के सापेक्ष में ही किया जा सकता है? शायद प्रेम के इसी सापेक्षिक रूप के कारण प्रेम के सापेक्ष में घृणा भी उसी दर से बढ़ रही है लगातार.
माना कि पश्चिम के पास बहुत कुछ ऐसा है भी नही कि जिसके बहाने वो खुद को बहला सकें, इसलिए वो जब इस प्रेम दिवस के पीछे पागल-पागल दिखते हैं तो ज्यादा आश्चर्य नही होता है. वहां देह आधारित प्रेम की ही परम्परा है. पश्चिम में इस देह प्रेम के दिवस को मनाये जाने के कारण हैं. लेकिन भारत में इसको मनाये जाने का कोई भी तो तार्किक कारण नहीं है.
अच्छा मान लीजिये प्रेम दिवस मनाया ही जाना है तो फिर कोई तार्किक दिवस क्यों न हो? कोई ऐसा दिवस क्यों न हो कि जिस के स्मरण मात्र से ही प्रेम आ जाए मन में. कि जिसका प्रादुर्भाव किसी विरोध की कोख से ना हुआ हो. वैसे तो हमारी परम्परा में पूरा बसंत ही प्रेम का प्रतिनिधित्व करता है. वासंती बयार और प्रेम में पगे हुए ना जाने कितनी ही कहानियां और गीत रचे गए हैं यहाँ. होली तो है ही प्रेम पर्व. फिर भी यदि प्रेम दिवस मनाने का मन है तो क्यों न शिवरात्रि को प्रेम दिवस माना जाय. शिव जिनके नाम से ही प्रेम का बोध हो जाता है. जिन्होंने प्रेम ही का संचार किया सम्पूर्ण जगत में. जो अपने भक्त के प्रेम में बसे तो उसके ही हो गए.
लेकिन अब ऐसा कहने में भी खतरा है. यह आधुनिक प्रेम दिवस घृणा का ऐसा मंजर तैयार कर चुका है कि इसकी चर्चा में प्रेम कम घृणा ज्यादा दिखती है. जैसे ही मैं कहता हूँ कि इसे मनाया जाना उद्देश्यविहीन है, तुरंत मुझे किसी संस्कृति के ठेकेदार से जोड़ कर देखा जाने लगेगा. तुरंत मुझे बजरंगी या शिवसैनिक घोषित कर दिया जायेगा. मैं उस वीभत्स विरोध का भी समर्थन नही करता, लेकिन इसको मनाये जाने के औचित्य पर प्रश्न जरूर खड़ा करता हूँ.
इस प्रेम दिवस पर 'कुछ' खरीदने से पहले एक बार प्रेम को जरूर याद कीजिये. क्या कहीं मन के किसी कोने में प्रेम शेष है?? और लगे कि हाँ प्रेम शेष है अभी जीवन में तो फिर इस प्रेम दिवस के औचित्य पर विचार जरूर कीजिये.
हैप्पी वेलेंटाइन डे.

- अमित तिवारी 
समाचार संपादक 
निर्माण संवाद
(09266377199) 

Monday, February 7, 2011

आईने के सामने तकदीर संवारती पीढ़ी !! (This Visionless Generation..!!)




facebook पर आज फैशन के नाम पर चेहरा संवारने में लगी पीढ़ी को लेकर हो रही एक चर्चा हमने देखी. वहां जो कुछ बात हुई.. उसमे से काफी कुछ सार्थक लगा.. वही बातचीत आप सभी से साझा कर रहा हूँ..

Nilus Classes:- हमारे समाज में भी एक अलग समाज बसता है ..
ऐसी कुंदन काया वाले कोमल युवा आजकल व्यापक रूप से देखने को मिलते हैं!!
पता नहीं ये नस्ल आया कहाँ से ...
आते जाते बड़े स्टायल से hi, excuse me, hi, ok, hi करते हैं ..
इनके कान से अक्सर एक तार निकल कर मोबाइल या आई पोट से जुड़ा रहता है
इनको कोई गलती से धक्का मार दे तो ये तुनक कर कहते हैं " how mannerless". kisi ne sahi kaha hai...
''कोहनियों पर टिके हुए लोग..
सुविधाओं में बिके हुए लोग..
बरगद की करते हैं बात..
गमलों में उगे हुए लोग..'

Devansh Nuwal:- .(आप लोग कैसे किसी के पहनावे और उसकी रोजमर्रा की जिंदगी को देखकर ऐसा निर्णय ले सकते हैं. आप लोगों को इनसे कोई परेशानी है तो इसका ये मतलब नही है कि ये बुरे हैं. .. ये उस समाज में रहते हिं जिसके अपने नियम हैं और उसका पालन करते हैं.. आप सब अपने समाज में हैं और आपके अपने तौर-तरीके हैं... वो आपके तौर तरीके का पालन नही करते हैं इसका मतलब ये तो नही है कि वो गलत या बुरे हैं... इस बात से ऐसा नही लगता की आप लोग किसी पूर्वाग्रह में उस समाज को ऐसा कह रहे हैं...)


Nilus Classes:- मै विकृतियों की बात नहीं कर रहा हु ये वो नौजवान हैं जो सोलह श्रींगार करके घर से निकलते हैं...
ये वो हैं जो माँ बाप के लिए मेडिकल से दवाई लाने में इनकी माँ मरती है ... पर जिम जाकर अपनी बॉडी बनाते हैं किसी को इम्प्रेस करने के लिए

Amit Nagpal:-  (आप मुसलमान तो नही बॉस , क्यूंकि 99 % मुस्लिम गंदे बनकर रहने में विश्वास रखते हैं. आपके कहने का मतलब है कि जो साफ़ रहता है वो माँ की दवाई नही लता... जो जिम जाता है वो माँ-बाप की सेवा नही करता.. आपसे इसे बेतुकी बकवास की उम्मीद नही करते हम लोग. )

Nilus Classes:- ये किसने कहा कि 99 % मुसलमान गंदे बनकर रहने में विश्वास करते हैं. सबसे गन्दी तो ये सोच है. मेरे कहने का क्या मतलब आप समझ नही पाएंगे.. मै ये नहीं कह रहा हु की जिम जाने वाले माँ बाप का ध्यान नहीं रखते , मै तो एक मानसिकता की बात कर रहा हु, जहाँ दिखावा हमारे सामाजिक मूल्यों पर भारी पड़ रहा है
बोलने से पहले देख लीजिये की सन्दर्भ क्या है मैंने किसी किसी समुदाय विशेष पर टिपण्णी नहीं की है ...मै उस चलन की बात कर रहा हु जो समाज में फैशन के नाम पर फ़ैल रहा है .. ...

Amit Tiwari:- सही कह रहे हैं नीलू जी..
दरअसल फैशन के नाम एक ऐसी अपाहिज और दोमुंही पीढ़ी तैयार हो रही है, जिसकी पहचान कुछ इसी तरह की बन गयी है.
और इस सब से भी बदतर यह है जो कि आपने अभी यहाँ देखा कि किस तरह से बात के रुख को बदला जा सकता है...!!
कहाँ की बात को कहाँ पहुंचा दिया...?>??
जितना वक़्त आज की यह तथाकथित own norms and civilization को follow करने वाली जमात खुद को संवारने और आइना देखने में बिताती है.. उतना वक़्त शायद ही किसी सार्थक कार्य या चर्चा में बिताते हों... 

Nilus Classes:- बिलकुल यही अर्थ के साथ मैंने ये पोस्ट किया था, मैंने मेट्रो ट्रेन में कुछ लडको का हुलिया और बेशर्मी देखकर दंग रह गया .. कुछ बुजुर्ग थे जो अपने आपको असहज महसूस कर रहे थे .


Amit Tiwari :- जी.... यही कारण तो हैं कि आज सर्वाधिक युवाओं का देश भारत.. बीमार है..
यहाँ के युवा का आदर्श अब फ़िल्मी परदे का कोई अभिनेता होता है.. अब इनके अन्दर क्रांति लाने के लिए भी रंग दे बसंती या और ऐसी ही फिल्मो की जरूरत पड़ती है..
और जैसे ही दो शुक्रवार के बाद कोई हिस्स्स्स.. या दबंग देख लेते हैं.. सारी क्रांति ख़तम..
अब इनके अन्दर संवेदना गजनी में आमिर की प्रेमिका के मरने पर तो पैदा होती है.. लेकिन आत्महत्या करने वाले किसान की खबर देख-सुनकर इनकी संवेदना नहीं जागती है..

Nilus Classes :- असल में हम बड़ी बड़ी बातें तो जरुर कर लेते हैं पर उन छोटी छोटी बातों को जससे समाज खोखला हो रहा है नेगलेक्ट कर जाते हैं , ... अपना वजूद कितना खोखला है उसका एहसास आपने करा दिया

Amit Tiwari :- नीलू जी.. हमारी बात को समझने के लिए आपका धन्यवाद..
दरअसल यह ऐसा सच है जिस से हर रोज रूबरू होना पड़ता है..
हर रोज अखबार में इतना कुछ दिख जाता है अपनी इस पीढ़ी के बारे में कि मन उखड जाता है..
ये पीढ़ी न अपनी बुद्धि का सही प्रयोग करना जानती है न अपनी शक्ति का..
बुद्धि खर्च होती है द्विअर्थी संवाद करने में...और शक्ति आजमाते हैं किसी गरीब और नीरीह पर..
बात चाहे चाय के पैसे मांगने पर चाय वाले पर चाक़ू चलाने की हो.. या फिर कार से छू जाने पर रिक्शा चालक को मार डालने की..
सब का निहितार्थ एक ही निकलता है..
हम सब के सब इसी का हिस्सा हैं..
जहाँ एक ओर मिस्र में जनता विद्रोह सड़क पर कर रही है...
हम facebook पर चुटकुलेबाजी और तसवीरें बांटने में लगे होते हैं..
कोई सही बात कह दी जाय तो टिप्पणी करने वालों का अकाल रहता है...
बहस के लिए सबके पास इतना वक़्त है.. लेकिन सार्थक विमर्श भी होना चाहिए.. इसकी किसी को चिंता नही है..
देश हमारा है.. लेकिन इसकी चिंता पडोसी के हाथ में है..
हम सबका चरित्र यही रहता है.. चिंतन यही रहता है..
चेहरा देखकर तिलक करने की प्रवृत्ति है..
विमर्श के लिए कोई तैयार नही है..
प्रयास होने की सम्भावना कहीं दिखाई नही देती..
वही बात-- "मैं सच कहूँगा और हार जाऊंगा.. वो झूठ बोलकर भी लाजवाब होगा.. "

Nilus Classes :- आपने एक तीर से कई निशाने साधे हैं अमित जी,


Amit Tiwari :-निशाने भी कई नही हैं नीलू जी... निशाना तो बस एक ही है कि कैसे हम सब अपने भीतर के सड़े-गले और बजबजाते सच को समझकर किसी सार्थक बदलाव की ओर कदम बढायें..
"वादे-वादे जायते सत्यबोधः"

Nilus Classes:-  आजकल थोथे चने बहुत हो गए है


Amit Tiwari :-नीलू जी.. आप सही कह रहे हैं कि आजकल थोथे चने ज्यादा हो गए हैं... लेकिन अहमियत सब की होती है.. थोथा चना भी अगर अपने लायक ईमानदार भूमिका चुन ले तो सार्थक हो सकता है... इनका बेहतर इस्तेमाल चूल्हे की आग में किया जा सकता है..
जलते जल्दी हैं थोथे चने..
लेकिन समस्या यही है कि लोग खुद के प्रति ईमानदार होकर अपनी भूमिका का चयन नही कर रहे हैं आज के समय में.. 

-- Haryanaschoolofdramaknl Knl :-  मुझे तो तुम बीमार लगते हो जो इंडिया को बदनाम कर रहे हो. तुम्हे कमेन्ट करना ही बंद कर देना चाहिए. तुम गन्दगी फ़ैलाने लगे हो देश में)


Amit Tiwari :- सम्माननीय बंधुवर आत्मप्रवंचना करने से आत्मसंतुष्टि तो मिल सकती है.. लेकिन सत्य नही बदलता है...
देश की हालत क्या है? कितनी बीमार है.. ? ये तो सबको पता ही है.. लेकिन परेशानी यही है कि हम सच को स्वीकारने के बजाय आत्मप्रवंचना में लगे रहते हैं..
हम तो खुश हो जाते हैं जब कोई हमारे देश के निवासियों को "SLUMDOG " कहता है और फिर पूरी दुनिया के तथाकथित सभ्य लोग ओस्कर देते हैं...
हमारे सच बोलने से देश बदनाम होता है.. लेकिन उस ओस्कर से सम्मान बढ़ा था शायद...

Sachin Sharma:-  Haryanaschoolofdramaknl Knl ,,,,,,, जी....... इस पोस्ट या कोममेंट्स में ऐसा क्या दिखाई दे गया आपको ... जो गंदगी फैला रहा है ..। बोलने से पहले एक बार सोच लेना चाहिए की हम कह क्या रहे है ... बिना बात को समझे कमेंट फेक दिया बस ... भारत हमारा घर है ॥ और घर में कुछ गलत हो रहा हो तो उसकी आलोचना भी की जाती है .॥ उसमे सुधार का प्रयास भी किया जाता है ... सिर्फ खुद को आत्म संतुस्टी देकर जय हो जय हो बोलने से काम नहीं चलता ... और यहा सब अपने लोग है .... विचार विमर्श और विचारो का आदान प्रदान करना ही क्या आपको गंदगी फैलाना लग रहा है .... वाह जी ......वंदे मातरम जय हिन्द

Maahi Singh:- kya galat hai isme?


Amit Tiwari :-सचिन जी.. माही जी.. हमारी बात को समझने के लिए आपका आभार...
दरअसल होता क्या है कि बहुत बार थप्पड़ खाने से किसी का चेहरा लाल देखकर भी लोगों को लगता है कि उसके शरीर में खून बहुत है..
लेकिन हमें स्वीकारना चाहिए कि थप्पड़ मारकर गाल लाल कर लेने से ख़ून नही बन जाता है... देश की भी यही हालत है... इधर उधर के थप्पड़ से गाल लाल हो जाता है.. और सब लाल चेहरा देखकर खुश हो जाते हैं..
देश के सेहत का सच तो आज भी अस्थि-पंजर बना किसान-मजदूर ही है...


उपरोक्त बातों पर आप सभी की टिप्पणियां अपेक्षित हैं..
आप सभी की टिप्पणियों से ही सत्य और स्पष्ट हो सकेगा..


-अमित तिवारी 
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Friday, January 21, 2011

कुछ इस तरह से प्यार करता हूँ...(I love her....)




मैं उसे कुछ इस तरह से प्यार करता हूँ..
हर घडी उस प्यार को इंकार करता हूँ...

है उसे ये ही शिकायत कि बेवफा हूँ मैं...
पर मैं उस से वफ़ा बे-शुमार करता हूँ..

उसकी करीबी से कभी यूँ डर भी लगता है...
साथ उसके खुद को ही दीवार करता हूँ..

आंसू के मोती को हंसी के तार पर जड़ 
भाव के फूलों से मैं श्रृंगार करता हूँ..

आएगा वो फिर कभी तो रूठकर खुद से  
यूँ अपने हर अफ़सोस को लाचार करता हूँ..

एक दफा मैंने कहा था प्यार है तुमसे..
वो कह गया मैं 'भाव का व्यापार' करता हूँ

-अमित तिवारी
समाचार संपादक 
निर्माण संवाद

Saturday, January 15, 2011

किसको गुनहगार लिखूं ???(Who is Sinner)

प्यार लिखूं, श्रृंगार लिखूं,
या बहते अश्रुधार लिखूं,
रोते-रोते जीत लिखूं या
हँसते-हँसते हार लिखूं.

ये कह दूं कि उसने मुझसे
वादे करके तोड़ दिए
या फिर मैं ही उसके दिल पर
अपना हर इक वार लिखूं..

जाने मैंने मारा उसको
या फिर खुद ही क़त्ल हुआ..
उसको अपना कातिल लिखूं
या खुद को गद्दार लिखूं

सपनो का वो शीशमहल, मैंने
ही रचा और आग भी दी.
अब जलते उसके सपने लिखूं
या वो आँखें लाचार लिखूं..

खुद ही हर अपराध किया,
और खुद ही न्यायाधीश बना..
न्याय-धर्म निभाऊं अब मैं,
या उसको गुनह-गार लिखूं..

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

Wednesday, January 5, 2011

दुनिया की मुन्नियों एक हो... (Let's think of Munni..)




सदी का पहला दशक बीतने को है. पिछली सदी में तरक्की की जिस गाथा की शुरुआत हुई थी, इस सदी में उसे बखूबी आगे बढाया जा रहा है. साहित्य, शब्द, उपमाओं और उद्धरणों में भी बदलाव लगातार जारी हैं. दो सदी पहले तक हमारा साहित्य संपन्न वर्ग के मनोरंजन का माध्यम मात्र था. राजाओं की बिरदावलियाँ और यशोगान मुख्य उद्देश्य हुआ करते थे. गाँव की चर्चा तभी थी जब उस गाँव में बुद्ध जाते थे. शबरी और भील तभी विषय बनते थे जब उनके पास राम पहुँचते थे. उस से ज्यादा साहित्य के विषयों से गाँव का सम्बन्ध नहीं था. गाँव तभी साहित्य का विषय बन पाता था जब वह आदर्श गाँव हो.
इस परिपाटी में आमूल-चूल परिवर्तन किया प्रेमचंद ने. प्रेमचंद की कहानी के नायक होरी महतो और बुधिया थे, तो नायिका रधिया या संतो. प्रेमचंद के इस प्रयोग का भारी विरोध भी हुआ था. साहित्य में रधिया-बुधिया के प्रवेश पर लोगों ने बहुत नाक-भौं सिकोड़ी थी.
फिर धीरे-धीरे बाजारवाद के रथ पर सवार इस सदी का आगाज हुआ. बाजार ने बेचना सिखाया. हर चीज को बाजार मिला. हर भावना और हर नाम को बाजार मिला. जो अच्छा कहा जाता रहा था उसका भी बाजार और जिस पर लोगों की नाक भौं सिकुड़ती थी उसको भी बाजार. रधिया-संतो पहले उपेक्षित थी, अब बदनाम हो गयी.
मुन्नी का वर्गीय चरित्र वही है. मुन्नी उसी गाँव की रधिया-संतो का ही तो प्रतिनिधित्व करती है. बाजार ने उसकी उपेक्षा और बदनामी को भी अलंकृत कर दिया है. मुन्नी अब ख़ुशी ख़ुशी बदनाम हो रही है और उसकी बदनामी को कुछ इस तरह से प्रायोजित किया जा रहा है कि हर मुन्नी को अपना लक्ष्य वही बदनामी में ही नजर आने लगा है. अब हर मुन्नी खुद को बदनाम करने के लिए तैयार है. उसे ये एहसास दिलाया जा रहा है कि बाजार में जगह पाने के लिए तुम्हे अपनी बदनामी को सार्वजानिक करना होगा.
लेकिन इसमें एक बात पर जरूर गौर किया जाना चाहिए कि आखिर बाजार प्रायोजित इस बदनाम मुन्नी के जरिये भी मुन्नी के वर्गीय चरित्र में कोई बदलाव लाने का प्रयास नही है. मुन्नी अभी भी उन्ही पारंपरिक मूल्यों में बंधकर बदनाम हो रही है. मुन्नी ने यह बदनामी भी अपने लिए नहीं बल्कि अपने प्रेम के लिए स्वीकार की है. अभी भी मुन्नी अपने डार्लिंग के लिए झंडू-बाम हो रही है. और उसे यह बता दिया गया है कि यह समर्पण ही तुम्हारा अंतिम लक्ष्य है. तुम्हे इसके लिए झंडू-बाम भी होना पड़ेगा और बदनाम भी, तभी तुम लगातार इस बाजार में बनी रह सकती हो. बाजार में किसी शर्मीली रधिया के लिए जगह नही है. बाजार का ही असर है कि किसी भी ऑफिस में ऐसी किसी रधिया के लिए कोई जगह नही है जो मुन्नी की तरह अपनी बदनामी को मंच नही दे सकती है.
मुन्नी की प्रतिरोधी शक्ति को ख़त्म कर दिया गया है. उसे डार्लिंग के लिए समर्पित भी होना होगा और बदनाम भी.
मुन्नी के ही साथ-साथ शीला भी जवान हुई है, लेकिन शीला की जवानी में और मुन्नी की बदनामी में बहुत बड़ा अंतर है. शीला शहर का प्रतिनिधित्व कर रही है. उसकी जवानी में स्वायत्तता है. वह अपनी जवानी को स्वतंत्र होकर जी रही है. उसे किसी के लिए बदनाम होने की इच्छा नहीं है. बाजार अपने सामंतवादी और शोषक नजरिये से बाहर नही निकल पाता है. वह शीला को बदनाम नहीं कर रहा है, बल्कि उसकी जवानी को स्वायत्त कर रहा है. उसे अपनी जवानी को जीने की स्वतंत्रता दे रहा है.
लेकिन मुन्नी हो या शीला, हैं दोनों ही बाजार के कब्जे में. क्यूंकि मुन्नी अगर झंडू-बाम है तो शीला एटम-बम है. दोनों किसी मेडिकल कंपनी की एम्.आर. की तरह काम कर रही हैं. मुन्नी की बदनामी से झंडू-बाम की बिक्री बढ़ी है और कल हो सकता है कि शीला की जवानी को भी वियाग्रा जैसी कोई कम्पनी पेटेंट करा ले. क्योंकि शीला के बाद अब हर मुन्नी शीला की जवानी के राज को खोजने के लिए तत्पर हो रही है. उसे भी स्वतंत्र जवानी की इच्छा है. बाजार यही चाहता है.
बाजार का लक्ष्य संस्कारिक अवधारणाओं को तोडना ही रहा है. चाहे मुन्नी को बदनाम करना पड़े, या शीला को जवान करना पड़े, बाजार की नजर अपने लक्ष्य पर केन्द्रित है.
एक समय में मार्क्स ने कहा था कि दुनिया के मजदूरों एक हो. सर्वहारा वर्ग को एक होने के लिए आह्वान किया गया था. तब सर्वहारा का एक वर्गीय चरित्र था. वाम रुझान के नेताओं ने तमाम अरसे तक वही नारा दिया. हालाँकि सर्वहारा को एक नही कर सके. उसका कारण भी था, बाजार ने सर्वहारा वर्ग को बाँट दिया. शहरी मजदूर और ग्रामीण मजदूर एक दूसरे से अलग हो गए. नतीजा यह रहा कि सर्वहारा का अपना कोई निश्चित वर्गीय चरित्र नही रह गया.
इसी तरह नारी समानता और नारी समता के नारों के बीच भी बाजार वही कर रहा है. अब उसे शीला और मुन्नी के बीच में बांटा जा रहा है. लेकिन अब समय आ गया है कि एक नारा दिया जाए. येचुरी और प्रकाश करात को अब 'सर्वहारा एक हो' की जगह 'मुन्नियों एक हो' का नारा देना चाहिए. और हर मुन्नी को यह समझाना होगा की शीला की जवानी में भी उसी मुन्नी की बदनामी के तार छुपे हैं.
बीता साल मुन्नियों के लिए एक सवाल छोड़ गया है. नए साल में हर मुन्नी के सामने अपनी बदनामी और शीला की जवानी में से किसी एक को चुनने का विकल्प बाजार ने रख दिया है.
अब देखना है कि मुन्नियाँ बाजार का विकल्प बनकर रह जाना चाहेंगी या फिर इस नए साल में कुछ नया होगा???

-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद
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