चियर्स कह देने से लोग खुश हो सकते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कि हैप्पी गांधी जयंती कह देने से गांधी जयंती भी हैप्पी हो जाती है. कामनवेल्थ खेलों की व्यवस्था में तमाम खामियों के बाद भी गांधी जयंती काफी हैप्पी हो गयी थी. क्यूंकि देर शाम खुद गृहमंत्री ने यह सुनिश्चित किया कि कामनवेल्थ खेलों के आयोजन की सुरक्षा में कोई कमी न रह जाए. पुलिस/पैरा मिलिट्री के लगभग एक लाख जवान और विशेष कमाण्डो इन खेलों की सुरक्षा में लगाये गए हैं. पूरी दिल्ली-एनसीआर को बंधक बना लिया गया. 'गणतंत्र' का वो 'गण' जो इस राजधानी के लिए किसी आतंकवादी खतरे से भी अधिक इसकी शानो शौकत पर धब्बा थे, उन्हें या तो शहर से निकाल दिया गया है या फिर कहीं छिपा दिया गया है. एक लाख रेहड़ी पटरीवालों को पखवारे भर के लिए गायब कर दिया गया है. दिल्ली के सभी सरकारी स्कूलों को भी पंद्रह दिन के लिए बंद कर दिया गया ताकि खेलों के आयोजन में बच्चे कहीं से बाधक न बने.
अब भला इससे बड़ी विडंबना और बेशर्मी क्या होगी कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र ब्रिटेन के गुलाम रहे दुनिया के 54 देशों के खेल का बढ़-चढ़ कर आयोजन करे. हमें ज्ञात होना चाहिए कि 1930 में ब्रिटेन के गुलाम नौ देशों के साथ शुरू हुआ ‘ब्रिटिश एंपायर गेम’, ‘ब्रिटिश एंपायर कॉमनवेल्थ गेम्स’ से होता हुआ आज ‘कॉमनवेल्थ गेम्स’ बन गया है. और आज भी गुलामी जिंदाबाद. होना तो ये चाहिए था कि लगभग 200 साल तक ब्रिटेन के गुलाम रहे ‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ भारत की राष्ट्रपति को इसके उदघाटन समारोह में ही इसका उल्लेख करना चाहिए था और ‘ कॉमनवेल्थ गेम्स’ के आयोजन को खत्म करने या अगले गेम से भारत को अलग करने की घोषणा करनी चाहिए थी.
लेकिन जैसा कि ना होना था ना हुआ, और खेल शुरू कर दिए गए. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और सच्चे देशप्रेमी लालबहादुर शास्त्री की पैदाइश के ठीक अगले दिन ब्रिटिश उपनिवेशवाद के गुलाम 54 देशों के कॉमनवेल्थ गेम्स का गांधी के ही देश के रहनुमाओं के द्वारा भव्यता से आयोजन करने पर हर सच्चे हिंदुस्तानियों को शर्म आई होगी.
क्या ऐसा नहीं लगता कि ब्रिटेन के गुलाम रहे हिंदुस्तान की सरजमीन पर कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन स्वाधीनता आंदोलन में शहीद हुए हजारों स्वाधीनता सेनानियों का अपमान है। क्या आजादी के महज छह दशक बाद ही हम अपने स्वाधीनता सेनानियों को भूल रहे हैं?
राष्ट्रीय शर्म को राष्ट्रीय गौरव के साथ जोड़ दिया गया. यही कारण था कि दिल्ली से दूर बैठे लोगों ने टेलीविजन चैनलों पर जब उदघाटन का रंगारंग कार्यक्रम देखा होगा तो उनका राष्ट्रीय स्वाभिमान निश्चित रूप से बल्लियों उछल गया होगा. लेकिन वो इस बात से बेखबर हैं कि जल्द ही ये बल्लियां दिल्ली में रहनेवाले लोगों के सिर पर डंडे बनकर बरसेंगी. अभी यह बात नहीं करते हैं कि जब खेलों का आयोजन खत्म हो जाएगा तो दिल्ली वालों को आनेवाले कितने दशकों तक इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी बल्कि तात्कालिक तौर पर भी वे कीमत चुका ही रहे हैं. दिल्ली में अत्यावश्यक पदार्थों की सप्लाई भी बाधित कर दी गयी है क्योंकि खाने, पीने और जीने के अधिकांश सामान ट्रकों में भरकर सड़कों के रास्ते दिल्ली पहुंचते हैं और दिल्ली सरकार को सड़कों पर ट्रकों की भीड़ नहीं चाहिए इसलिए उसने औद्योगिक गतिविधियों को तो ठप कर ही दिया है ट्रकों के प्रवेश पर भी अधिकांश रोक लगा दिया है. सब्जियों के भाव भी पचास साठ रूपये किलो है. दिल्लीवालों का दिल टटोलिए, सिवाय कोफ्त के और कुछ नहीं निकलेगा.
लोग कष्ट भुगतें तो भुगते. गलती उनकी है. सरकार के लाखों बार कहने के बाद भी आखिरकार शेष दिल्लीवालों ने खेलों में हिस्सेदारी क्यों नहीं की? दिल्ली पुलिस की सावधान करती चेतावनियां भी जारी हो रही हैं. इन सड़कों पर आधी रात तक न जाएं और इस सड़क को आधे दिन के लिए इस्तेमाल न करें. आधी रात और आधे दिन का भेद रख पाना हर ज्ञानी पुरुष के लिए शायद संभव नहीं होगा इसलिए वह पूरे दिन का ही बचाव करने में अपनी भलाई समझ रहा है.
इन सब के बीच सबसे बड़ा परिवर्तन मीडिया के चरित्र में देखने को मिला. जो खेल शुरू होने के दो दिन पहले तक बेड टूटने और सांप निकलने के किस्से बता रहे थे, रातों-रात उन्हें चमत्कार के दर्शन हो गए. अगले ही दिन से उन्होंने हमें बता दिया कि ऐसा खेलगांव तो कहीं बना ही नहीं है. सरकारी उत्साह भी चरम पर दिखा. चिदम्बरम ने लुंगी शर्ट छोड़ टी शर्ट और पैण्ट पहन लिया. शीला दीक्षित की सीटियां रूकने का नाम नहीं ले रहीं. मनमोहन सिंह आदत के अनुसार पूरे खेलों के दौरान मुस्कुराते ही रहेंगे.
यही नहीं इन्कम टैक्स विभाग ने भी पूरे उत्साह के साथ आधे आधे पेज का विज्ञापन देकर कामनवेल्थ खेलों को अपनी शुभकामनाएं दी. क्यों? आप भी सोचिए, दिल्ली वाले तो अगले दस बीस सालों तक इस शुभकामना की कीमत चुकाएंगे ही.
गुलामी की परंपरा निभाते हुए सब कुछ होता रहा. प्रिंस ऑफ वेल्स चार्ल्स ने औपचारिक संदेश पढ़ा और राष्ट्रपति प्रतिभा देवी पाटिल ने कहा 'अब खेल शुरू हों.., और खेल शुरू हो गया. अब भले ही इन बातों को बेमानी कर दिया गया है कि "राष्ट्रों का ये मंडल" पूर्व गुलामों का संगठन है जो खेल के इस महा-उत्सव के जरिये महारानी को शुक्रिया अदा करते हैं। लेकिन एक जमाने में इस पर खूब बात होती थी। 1960 के आसपास हिंदी के श्रेष्ठ कवि नागार्जुन ने महारानी के आगमन को लेकर एक चर्चित कविता लिखी थी।
बाबा नागार्जुन की उस कविता की पंक्तियाँ भी आज हंस उठी हैं ये सब देखकर..
आओ रानी हम ढोएंगे पालकी
यही हुई है राय जवाहरलाल की
रफू करेंगे फटे-पुराने जाल की
यही हुई है राय जवाहरलाल की
आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी !
आओ शाही बैंड बजाएं,
आओ वंदनवार सजाएं,
खुशियों में डूबे उतराएं,
आओ तुमको सैर कराएं
उटकमंड की, शिमला-नैनीताल की
आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी
तुम मुस्कान लुटाती आओ,
तुम वरदान लुटाती जाओ,
आओ जी चांदी के पथ पर,
आओ जी कंचन के रथ पर,
नज़र बिछी है, एक-एक दिक्पाल की
छ्टा दिखाओ गति की लय की ताल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
सैनिक तुम्हें सलामी देंगे,
लोग-बाग बलि-बलि जाएंगे,
दृग-दृग में खुशियां छलकेंगी
ओसों में दूबें झलकेंगी
प्रणति मिलेगी नये राष्ट्र की भाल की
आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी !
बेबस-बेसुध सूखे-रुखड़े,
हम ठहरे तिनकों के टुकड़े
टहनी हो तुम भारी भरकम डाल की
खोज खबर लो अपने भक्तों के खास महाल की !
लो कपूर की लपट
आरती लो सोने की थाल की
आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी !
भूखी भारत माता के सूखे हाथों को चूम लो
प्रेसिडेंट के लंच-डिनर में स्वाद बदल लो, झूम लो
पद्म भूषणों, भारत-रत्नों से उनके उदगार लो
पार्लमेंट के प्रतिनिधियों से आदर लो, सत्कार लो
मिनिस्टरों से शेक हैंड लो, जनता से जयकार लो
दायें-बायें खड़े हजारी आफिसरों से प्यार लो
होठों को कंपित कर लो, रह-रह के कनखी मार लो
बिजली की यह दीपमालिका फिर-फिर इसे निहार लो
यह तो नयी-नयी दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो
एक बात कह दूं मलका, थोड़ी सी लाज उधार लो
बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो
जय ब्रिटेन की, जय हो इस कलिकाल की !
आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी!
रफू करेंगे फटे-पुराने जाल की !
यही हुई है राय जवाहरलाल की !
आओ रानी हम ढोएंगे पालकी !
कुल जमा अगर जोड़ा जाए तो जब से मेजबानी मिली है तब से खेलगांव बनाने और दिल्ली को सजाने के नाम पर दिल्ली और देश ने करीब 80 हजार करोड़ रुपये खर्च कर दिये हैं. शायद इसलिए कि भारत का नया उभरता मध्यवर्ग और उनके नौनिहाल दुनिया के मानचित्र पर टहलें तो कह सकें कि सबसे आगे होते हैं हिन्दुस्तानी. लेकिन ये हिन्दुस्तानी किस कीमत पर आगे होने की कोशिश कर रहे हैं, इसकी विवेचना की इजाजत नहीं है हमें. वैसे भी शीला दीक्षित हमें बता ही चुकी हैं कि खेलों के आयोजन के बाद दिल्ली में जो सुविधाएं निर्मित की गयी है उसका उपयोग तो दिल्लीवाले ही करेंगे. इसलिए धैर्य रखें और खेलों को सफल बनाने में सहयोग करें.
बेहतर है कि दिल्ली वाले इस जूठन का शांति से इंतजार करें. सदिच्छा से इनके खेलों के सफल होने की दुआ करें. पिछले दो-तीन दिन से अखबार तो हर रोज आपको सोना और सोने पे सुहागा की खबरें दे ही रहे हैं. सोने की चमक से खुश रहिये. अभी अघोषित आपातकाल का दौर है. बीत जायेगा. खेलों में हिस्सा लेने वाले चले जायेंगे. अपना-अपना सोना-चांदी समेटे सब अपने ठिकाने होंगे. सब धीरे-धीरे और खेलों में जीतने-हरने के सिलसिले में लग जायेंगे. तब फिर वैसे भी दिल्ली वालों को अकेले ही याद करना होगा इन खेलों को.
भूल तो सकते नहीं. जब-जब 'महंगाई डायन' खाएगी, तब-तब इस 'गुलामी डायन' की याद आएगी. जिन घरों में इन दिनों में दोनों जून की रोटी नसीब नहीं हो पा रही होगी.. वो अगले कई महीनो तक हर रोटी के टुकड़े के साथ इस आपातकाल को याद करेंगे. जब-जब टेक्स की बढ़ी हुई दरें सामने आएँगी 'आयकर विभाग' का शुभकामना सन्देश याद आयेगा.
तब तक इस अघोषित आपातकाल की जय हो......