जाने क्यों सच कभी-कभी
कमजोर सा मालुम होता है।
मन मेरा भी कभी-कभी
इक चोर सा मालुम होता है।।
शब्द शिकायत करते हैं,
कि अर्थ समझ से बाहर है।
कहते हैं जब लब कुछ तो,
कुछ और सा मालुम होता है।।
जब बोलूं सावन- तो दिल
सूखी लकड़ी सा लगता है।
पतझर में गम के फूलों
में जोर सा मालुम होता है।।
जब चाहा बोलूं कुछ तो
सब चुप-चुप सा लगता है।
जब चुप बैठूं तो दिल में
इक शोर सा मालुम होता है।।
'संघर्ष' वफाएं करते रहे,
रिश्तों से, रिश्ते छूट गए।
जब छोड़ चला रिश्ते, रिश्तों में
भोर सा मालुम होता है।।
-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद
शब्द शिकायत करते हैं,
ReplyDeleteकि अर्थ समझ से बाहर है।
कहते हैं जब लब कुछ तो,
कुछ और सा मालुम होता है।।
ेअमित जी लाजवाब रचना है। बधाई।
जब चाहा बोलूं कुछ तो
ReplyDeleteसब चुप-चुप सा लगता है।
जब चुप बैठूं तो दिल में
इक शोर सा मालुम होता है।
hmmm.............lajwaab rachna hai jiiiii............aise hi likhte rahiye...amit ji
sach ek khab hai...
ReplyDeletesach ek aaina hai..
sach parda hai..
sach bass ek dilasa hai..
or kuch nahi .....shabdo ka ek khel hai..
sach, sach, sach, wastav me kuch nahi jo apka DIL kahe wahi sach hai...
ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है
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